सरकार और सामाजिक संगठन अगर ईमानदारी से वास्तव में मानवता के लिए शर्मनाक इस पेशे के उन्मूलन के प्रति संजीदा हैं तो उन्हें निसंदेह सिर्फ शौचालय बनाने के पैसे देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं समझ लेनी होती बल्कि इन लोगों के पुनर्वास की मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी। तभी इस प्रथा से निजात की उम्मीद की जा सकती है।
मानवता को कलंकित करने वाली सिर पर मैला ढोने की प्रथा ‘उत्तम प्रदेश’ में बदस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश के 70 फीसदी गांवों और 20 फीसदी शहरों में मैला ढोने की यह प्रथा जारी है पर संज्ञेय अपराध को लेकर सूबे के किसी भी थाने में कोई भी मुकदमा दर्ज नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड दलित गरिमा मंच के बाबूलाल वाल्मीकि और संजय सिंह इसे तस्दीक भी करते हैं। वाल्मीकि बताते हैं, ‘हमने जनसूचना अधिकार के तहत यह जानने की कोशिश की कि इस मामले में प्रदेश में कितनी प्राथमिकी दर्ज हुई है तो हमें जवाब मिला कि प्रदेश में कोई प्राथमिकी दर्ज ही नहीं है। यह जरूर हुआ है कि कई मामलों में इस तरह के शौचालय मालिकों को नोटिस दिया गया है।’यह हालत उस प्रदेश की है जहां मायावती चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, जिन पर सामाजिक दंश को झेलने वालों ने अपना पूरा भरोसा जताया है। पर उनके राज में भी मैला ढोने वालों के दिन नहीं बहुरे। 1993 में संज्ञेय अपराध की कोटि में रखे गए इस अपराध को रोकने के लिए बना लाचार कानून सिर्फ खोखली लाठी बन गया है। नरसिंह राव के कार्यकाल में ‘शुष्क शौचालय सनिर्माण अधिनियम-93’ कानून बना। इस कानून में मैला उठाना और उठवाना दोनों ही संज्ञेय अपराध घोषित किए गए। उस समय मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र, गोवा, हिमाचल प्रदेश और पुड्डुचेरी समेत 11 राज्यों ने इसे तत्काल प्रभाव से अंगीकार कर लिया। उत्तर प्रदेश में यह कानून लागू नहीं हो सका। राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की पहल पर समाज कल्याण मंत्रालय ने राज्य सरकार को इस संबंध में विचार करने के निर्देश दिए। इसके बाद 1997 में तत्कालीन मुख्य सचिव योगेंद्र नारायण ने आयोग के साथ बैठक कर इस कानून को अंगीकार करने पर सहमति जताई। 1999 में कैबिनेट की बैठक में इसे मंजूरी दे दी गई। पर 13 साल बाद आज भी जब आम घरों की महिलाएं बच्चों को नहला-धुलाकर स्कूल भेजने की तैयारी में जुटी रहती हैं, तब इस समाज की महिलाएं कमर पर टोकरी रख हाथ में तसले और झाड़ू रखकर, मानवता की डींग हांकने वाले समाज को शर्मशार करने के लिए मैला ढोने के काम पर निकलते देखी जा सकती हैं।
हद तो यह है कि सूबे के 41 जिलों में मैला ढोने का काम आज भी जारी है। सरकारी आंकड़ों में भी सूबे के 33,256 परिवार आज भी इस घृणित कार्य को करने के लिए अभिशप्त हैं। यहां तक कि राजधानी लखनऊ के यासिनगंज, मुअज्जमनगर सहित कई इलाकों में भी यह प्रथा बदस्तूर जारी है। बक्शी का तालाब ब्लॉक के गोइला पंचायत में एक दर्जन से अधिक घरों में अब भी उठाउ शौचालय हैं। गांव की वाल्मीकि समाज की दो महिलाएं सिर पर मल उठाकर गांव के बाहर फेंकती देखी जा सकती हैं लेकिन शासन को भेजी रिपोर्ट में सिर पर मैला ढोने की प्रथा आठों ब्लॉक से समाप्त कर दी गई है।
हद तो यह है कि दुनिया के मानचित्र पर अपनी जगह बनाने वाले आगरा में मैला ढोने की प्रथा सबसे ज्यादा है। दूसरे नंबर पर कानपुर और तीसरे नंबर पर मथुरा है। इसके अलावा सहारनपुर, मेरठ, बरेली और बनारस में भी मैला ढोने की प्रथा बदस्तुर जारी है। मेरठ में 30 हजार के आसपास शुष्क शौचालय हैं, जहां मैला उठाने वालों की संख्या 1,314 है। जबकि बरेली में 27,280 शुष्क शौचालय हैं और मैला उठाने वाले 1,349 लोग हैं। प्रदेश के तमाम जिले इसी तरह के आंकड़ों की गवाही दे रहे हैं। ऐसा नहीं कि इस कुप्रथा से निकलने की छटपटाहट इन तबकों में नहीं दिखती हो लेकिन समाज इनके साथ खड़ा नजर नहीं आता। यह स्थिति तब है जबकि वर्ष 2008 में केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश को शुष्क शौचालय मिटाने के लिए 250 करोड़ रुपए की भारी-भरकम धनराशि दी थी। जबकि उत्तर प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों से इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए 545 करोड़ रुपए जारी किए गए थे। वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश के 59 जिलों में अब भी दो लाख 19,401 घरों में शुष्क शौचालय हैं, हालांकि राज्य सरकार के आंकड़े में मैला ढोने वालों की तादात 33,256 ही तस्दीक की गई है।
बहरहाल, शौचालयों को पक्का बनाने के लिए सर्वेक्षण किया जा रहा है। नगर क्षेत्र में बने शुल्क शौचालयों को पक्के में परिवर्तित करने की जिम्मेदारी ‘राज्य नगरीय विकास अभिकरण (सूडा) ’ की होती है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में यह जिम्मेदारी पंचायती राज विभाग निभाता है। सूडा की उप निदेशक संगीता सिंह भी मानती हैं कि अभी हालात ठीक से नहीं सुधरे हैं। उन्होंने बताया कि ‘उत्तर प्रदेश के 22 ऐसे जिले हैं जहां पांच हजार से ज्यादा शुष्क शौचालय बने हैं। जबकि कुछ ऐसे भी शहर हैं जहां शुल्क शौचालयों की संख्या 10 हजार से भी ज्यादा है। मैला ढोने वालों की मैला ढुलान काम से मुक्ति के लिए कम लागत सफाई की केंद्र प्रवर्तित स्कीम 1980-81 में गृह मंत्रालय द्वारा शुरू की गई थी। जिसे बाद में समाज कल्याण मंत्रालय द्वारा चलाया गया।
वर्ष 1989-90 से इस स्कीम का कार्यान्वयन शहरी विकास मंत्रालय द्वारा तथा बाद में शहरी रोजगार और गरीबी उपशमन मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है। अब इसका नाम आवास और गरीबी उपशमन मंत्रालय कर दिया गया है। इस स्कीम का मुख्य उद्देश्य मौजूदा शुष्क शौचालयों को कम लागत के जल प्रवाही शौचालयों में बदलना और जहां ऐसे शौचालय नहीं हैं, वहां पर शौचालयों का निर्माण करना है। इसके लिए बाकायदा सफाई कर्मचारी नियोजन एवं शुष्क शौचालय सनिर्माण प्रतिरोध अधिनियम 1993 बनाया गया। केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से चलने वाली इस योजना के तहत उत्तर प्रदेश में जनगणना सर्वे के आधार पर वर्ष 2008 में 53 जिलों में 2,38,253 शुष्क शौचालयों को खत्म कर पक्के शौचालयों का निर्माण कराया। यह आंकड़ा नगर क्षेत्र का है।
विभागीय जानकार बताते हैं कि नगर क्षेत्र में शुष्क शौचालयों को पक्के शौचालयों में बदलने के लिए दस हजार रुपए दिए जाते हैं। इनमें साढ़े सात हजार रुपए केंद्र सरकार, डेढ़ हजार रुपए राज्य सरकार देती है तथा एक हजार रुपए लाभार्थी को देना होता है। पहले इन शौचालयों को पक्का बनाने के लिए 22 सौ रुपए से लेकर साढ़े चार हजार रुपए तक दिए जाते थे लेकिन अब यह धनराशि भी कुछ दिन पहले ही बढ़ाकर 10 हजार रुपए तक कर दी गई है। योजना का काम देख रहे पंचायती राज विभाग के उप निदेशक (पंचायत) सुरेंद्र जयनारायण से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने किसी भी तरह की सूचना देने से इनकार कर दिया। उन्होंने इसे कम महत्वपूर्ण विषय बताते हुए का कि ‘इससे अधिक महत्वपूर्ण विषयों पर काम कर रहा हूं।’ सरकार और सामाजिक संगठन अगर ईमानदारी से वास्तव में मानवता के लिए शर्मनाक इस पेशे के उन्मूलन के प्रति संजीदा हैं तो उन्हें निसंदेह सिर्फ शौचालय बनाने के पैसे देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं समझ लेनी होती बल्कि इन लोगों के पुनर्वास की मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी। तभी इस प्रथा से निजात की उम्मीद की जा सकती है।
बांदा के 36, हमीरपुर के 24, झांसी के 59, ललितपुर के 25 और जालौन के 131 शुष्क शौचालय वालों घरों की स्वच्छकार स्वाभिमान मंच तथा बुंदेलखंड दलित गरिमा मंच के साथ किए गए सर्वे में भी यही बात उभरकर आई है। इसके लिए इन घरों में काम करने वालो से भी बातचीत की गई। इस कलंक को ढोने के लिए कोई तैयार नहीं था पर इन तक किसी सरकारी योजना का अभी तक न पहुंचना यह चुगली करता है कि चाहते हुए भी किसी नए विकल्प की ओर यह नहीं मुड़ पा रहे हैं।
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