बहरहाल, अगर इंजीनियरों की गलती या लापरवाही से तटबंध टूट गया और इतने लोग बेघर हो गए और प्रशासन की लापरवाही और गलती से पिछले चार साल से वो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं जबकि अपने जान-माल की सुरक्षा के लिए जनता ने न तो इंजीनियरों को न्यौता दिया था और न ही प्रशासन को तो लोग क्या करें? उन्होंने तो किसी न किसी को सरकार बना कर उनके हितों की रक्षा के लिए चुना था जो कि प्रशासन और जल-संसाधन विभाग को लोक-हित में नियंत्रित करता। अगर किसी को सबसे पहले कठघरे में खड़ा करना है तो यह राज्य सरकार के अलावा दूसरा कोई नहीं हो सकता। लोकतंत्र आम आदमी को यही ताकत देता है। आम जनता जिलाधिकारी या चीफ इंजीनियर की नियुक्ति नहीं करती पर अपने हितों की रक्षा के लिए सरकार चुनती है। जनता जब तक जागरूक होकर इस बात को नहीं समझेगी इस तरह की घटनायें होती रहेंगी।
टूटते तटबंध के सामने किसी गाँव के पड़ने का क्या मतलब होता है, इसकी जिंदा मिसाल सुप्पी प्रखंड, जिला सीतामढ़ी का रामपुर कंठ गाँव है जो कभी बागमती नदी के पश्चिमी किनारे पर बसा हुआ था। 1970 के दशक के 90 परिवारों तथा 213 हेक्टेयर रकबे वाला यह गाँव नदी और उसके पश्चिमी तटबंध के बीच में फंस गया और उसका पुनर्वास करना जरूरी हो गया। बागमती परियोजना की पुनर्वास योजना तो वही थी कि तटबंध के बाहर एक रिहाइशी प्लॉट मिल जायेगा, वहीं घर बना लीजिये और तटबंधों के अंदर अपनी जमीन पर खेती कीजिये। मगर इसके पहले कि इतनी सी भी योजना कोई शक्ल ले सके 1974 और 1975 की बरसात के मौसम में यह गाँव डूबने-उतरने लगा था। यही हालत 1978 में भी हुई लेकिन तब तक काफी जद्दो-जहद के बाद यह तय हो चुका था कि गाँव का पुनर्वास होगा। सरकारी रिकार्डों के अनुसार 6.826 हेक्टेयर (16.86 एकड़) जमीन का अधिग्रहण किया गया जो कि रामपुर कंठ की ही जमीन थी और बागमती के पूर्वी तटबंध के पूरब में थी। इसके पहले कि भू-अर्जन की प्रक्रिया पूरी हो पाती लगभग 3-4 साल का समय गाँव वालों को बागमती के निर्माणाधीन तटबंध पर ही अपने माल-मवेशी के साथ बिताना पड़ गया। धीरे-धीरे लोग इस पुनर्वास की जमीन पर बसने लगे और 2001 की जनगणना के अनुसार गाँव के परिवारों की संख्या बढ़कर 259 तथा आबादी 1009 हो गयी। जाहिर है कि जितनी जमीन में 90 परिवार पुनर्वासित हुए होंगे उतनी ही जमीन पर अब उससे लगभग तीन गुने 259 परिवार बसते हैं।इस तरह से गाँव की कुछ जमीन तटबंध में, कुछ पुनर्वास में और बाकी की खेती की जमीन, जो तटबंधों के बीच थी, वह नदी के हवाले हो गयी। जैसे-जैसे नदी इस जमीन को काटती गयी या उस पर बालू बिछाती गयी, खेती की संभावनाएं कम होने लगीं और तब रोजगार की तलाश में युवकों का पलायन शुरू हो गया। 2007 में जुलाई माह के अंत में बागमती, रामपुर कंठ के पास तटबंध के बहुत नजदीक आ गयी और किसी अमंगल की आशंका से रामपुर कंठ पुनर्वास के लोग भयभीत हो गए क्योंकि अब पुनर्वास और नदी के बीच में तटबंध के नाम पर बालू की एक भीत खड़ी थी जो किसी भी वक्त जुगाली करती हुई भैंस की तरह बैठ सकती थी। 29 जुलाई के दिन गाँव वालों ने बिहार के मुख्यमंत्री, जल संसाधन मंत्री और पटना के बाढ़ नियंत्रण कक्ष को इस बात की सूचना दी। 31 जुलाई को जिले के कलक्टर को सामूहिक रूप से दुर्घटना की आशंका की सूचना दी गयी और फौरी तौर पर कार्यवाही करने की अपील की गयी और इस अपील की प्रतियाँ सभी संबद्ध अधिकारियों तथा मंत्रियों को भेजी गईं। सीतामढ़ी के अपर समाहर्ता ने इतना किया कि बागमती प्रमंडल सीतामढ़ी के एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर को उन्होंने सुरक्षात्मक कार्यवाही के लिए संदेश भेजा और की गयी कार्यवाही से अवगत कराने को कहा। जाहिर है कि कोई कारगर व्यवस्था नहीं हुई और बांध 18 अगस्त की रात 9 बजे दरक गया। अधिकांश घर बह गए, चारों ओर पानी फैल गया और गाँव वाले आश्रय विहीन होकर टूटे तटबंध के बचे हिस्से पर फूस और पॉलीथीन की बनी झोपड़ियों में आने को मजबूर हो गए। अभी बरसात के मौसम का आधा भाग बाकी था। इस बीच सीतामढ़ी के जिलाधिकारी 20 अगस्त को क्षेत्र का दौरा कर के अधिकारियों और इंजीनियरों को कुछ निर्देश देकर चले गए। टूटे बांध के गैप को भरने का काम पूर्वी तटबंध की तलहटी से मिट्टी काट कर चलता रहा। 23 अगस्त को एक बार फिर मुख्यमंत्री समेत तमाम अधिकारियों को गाँव वालों ने घटना की बेअसर जानकारी दी। गाँव के लोग अपने बचे हुए माल-मवेशी के साथ तटबंध पर थे मगर चारों ओर पानी भरा रहने के कारण उन्हें अब तक यह पता नहीं था कि नदी ने न केवल उनके आशियाने उजाड़े हैं वरन् उनके पुनर्वास वाली जमीन पर गड्ढा भी कर दिया है और वहाँ अब एक तालाब बन गया है जिसमें घर बनाना तब तक संभव नहीं होगा जब तक इसे पाटा न जाए। गाँव वाले जब अधिकारियों और इंजीनियरों के पास 7 सितम्बर को अपनी हालत बयान करने गए तब वहाँ भी उनको अवहेलना ही मिली।
यह तटबंध पीड़ित, जो कुछ दिन पहले तक तटबंध की मरम्मत की मांग कर रहे थे, बदली परिस्थितियों में उनकी जिस रिहाइशी जमीन पर नदी ने गड्ढा कर दिया था उसकी भरावट, क्षतिपूर्ति, मकानों केपुनर्निर्माण के लिए अनुदान और दुर्घटना के लिए दोषी व्यक्तियों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही और उनके निलंबन की भी मांग करने लगे। अब यह तय हो चुका था कि 134 परिवारों के घर तटबंध टूटने की घटना में बह गए थे। बताते हैं कि मुख्यमंत्री कार्यालय से 134 घरों के पुनर्निमाण के लिए अनुदान सीतामढ़ी तक पहुँचा मगर स्थानीय मुखिया ने एक तो प्रति परिवार पाँच हजार रुपये बतौर नजराने की मांग की और दूसरे, पीडि़तों की 185 लोगों की एक नई सूची सरकार को प्रेषित कर दी। इन 134 परिवारों के लोग नजराना देने को तैयार नहीं थे और सूची में हेराफेरी का संज्ञान लेकर सरकार ने अनुदान का पैसा वापस ले लिया। इन घटनाओं का वास्ता देते हुए रामपुर कंठ वासियों ने एक बार फिर मुख्यमंत्री, आपदा प्रबंधन मंत्री, तिरहुत कमिश्नरी के आयुक्त और सीतामढ़ी के जिलाधिकारी के सामने गुहार लगाई। यह 15 दिसम्बर 2008 की घटना है जबकि तटबंध को टूटे हुए एक साल से ज्यादा का समय बीत चुका था।
इसके बाद गड्ढा बनी हुई रिहाइशी जमीन पर मिट्टी भरने का काम शुरू हुआ। गाँव वालों की शिकायत है कि शायद इस काम में ठेकेदारों को कोई खास फायदा नहीं था इसलिए उन्होंने खेती की जमीन की मिट्टी का उलट-फेर किया और रिहाइशी जमीन पर बने गड्ढ़े को आधा-तीया भर कर काम छोड़ कर चलते बने। यह जमीन अभी भी घर बनाने लायक नहीं थी। यह 134 परिवार फिलहाल बागमती के पूर्वी तटबंध पर झोपड़ी बना कर रह रहे हैं। बागमती तटबंधों के विस्तार ऊँचा और मजबूत करने की 792 करोड़ रुपयों की सरकार की जो योजना है उसका काम तो रुन्नी सैदपुर से ढेंग तक दिखाई पड़ता है मगर रामपुर कंठ वाले बीच के हिस्से में कोई काम नहीं हुआ है क्योंकि वहाँ तटबंध पर यह परिवार बसे हुए हैं। इन लोगों का कहना है कि इनकी रिहाइशी जमीन का गड्ढा सरकार भर दे और घर बनाने के लिए कुछ मदद कर दे तो वह तटबंध पर से हट जायेंगे। मुमकिन है सरकार भी यही चाहती हो मगर इस दिशा में अब तक कोई सार्थक प्रयास होता नहीं दीखता।
इसी दौरान 24 जनवरी 2009 को सीतामढ़ी जिले के डुमरा प्रखंड के राघोपुर बखरी गाँव में मुख्यमंत्री का जनता दरबार लगा था जिसमें रामपुर कंठ के ग्रामीणों ने अपनी मांग मुख्यमंत्री के सामने रखी थी (पावती संख्या 1301920017)। बताते हैं कि मुख्यमंत्री ने इस आशय का आश्वासन भी ग्रामीणों को दिया था कि उनका काम हो जायेगा। यह काम कितना पूरा हुआ उसकी पुष्टि इसी बात से हो जाती है कि 2 फरवरी 2010 के दिन गाँव वालों ने सीतामढ़ी के जिलाधिकारी को फिर एक आवेदन दिया जिसकी 8 में से 4 मांगे थीं,
‘‘1. बागमती नदी कटाव से झील में तब्दील पुनर्वासित जमीन की मिट्टी भराई का अधूरा काम अविलम्ब शुरू किया जाय।
2. कटाव पीड़ित 134 परिवारों को इन्दिरा आवास या मुख्यमंत्री आवास दिया जाय।
3. बागमती नदी के कटाव से पीड़ित परिवारों की धारा में ध्वस्त संपत्ति की क्षतिपूर्ति की जाए।
4. पेय जल के लिए चापाकल दिया जाय।’’
जाहिर है लगभग ढाई साल की भाग-दौड़ और पंचायत के मुखिया से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक हर दरवाजे पर दस्तक देने के बावजूद रामपुर कंठ के तटबंध और कटाव पीड़ित लोग वहीं हैं जहाँ वह 18 अगस्त 2007 की रात 9 बजे पहुँच गए थे। खुले आसमान के नीचे, आंधी-पानी, जाड़ा, बरसात और लू के बीच जहाँ हवा का एक झोंका उनकी झोपड़ी उड़ा ले जाने के लिए काफी है। दोपहर में तटबंधों के बीच उड़ती हुई रेत उनकी जिजीविषा का इम्तहान लेती है। प्रशासन खुश है कि जनता कड़े से कड़ा इम्तहान पास कर लेती है, बरसात सिर पर है तो क्या हुआ? दुआ के हाथ तीन साल के बाद भी अगर ऊपर ही टँगे हुए हैं तो क्या हुआ?
रामपुर कंठ में जब बागमती का तटबंध 2007 में टूटा तब वहाँ के रहने वालों पर जो गुजरी या अभी तक गुजर रही है उसकी थोड़ी सी जानकारी हमने पहले ली है पर इस दुर्घटना का एक दूसरा पहलू भी है और वह यह कि इसका जिम्मेवार कौन है? अपनी तरफ से तो गाँव वाले प्रायः उस हर मुमकिन जगह पर 29 जुलाई से गुहार लगाते रहे जहाँ से उनको उम्मीद थी कि कोई न कोई उनकी फरियाद जरूरसुनेगा मगर ऐसा हुआ नहीं और इस अवहेलना का नतीजा 18 अगस्त की शाम को आ गया। न सिर्फ ग्रामवासी वरन् स्थानीय समाचार पत्र भी इस बीच लगातार इस आशय की खबरें छापते रहे कि गाँव का वजूद खतरे में है पर किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी। जब तटबंध टूट गया तब स्थानीय प्रशासन और जल-संसाधन विभाग दोनों सावधान हुए। प्रशासन के लिए यह बहुत ही आसान है कि वह जल-संसाधन विभाग के अधिकारियों को दुर्घटना का जिम्मेवार ठहराने और उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की सिफारिश करे। सरसरी तौर पर देखने से यह उचित भी लगता है। जल-संसाधन विभाग भी अपनी अंदरूनी जाँच करवा कर आमतौर पर किसी छोटे तबके के अधिकारी या कर्मचारी पर इसकी जिम्मेवारी तय करता है और उसके खिलाफ कार्यवाही की सिफारिश करता है भले ही प्रशासन इस कार्यवाही से संतुष्ट हो या नहीं। यहाँ तक तो काग़जी घोड़े बड़े आराम से दौड़ते हैं मगर जैसे ही कोई कार्यवाही सचमुच करने की बात आती है तब कर्मचारियों और अफसरों के संघ सामने आ खड़े होते हैं कि अगर कोई कार्यवाही उनके किसी सदस्य पर होगी तो वह काम बंद कर देंगे। तब प्रशासन भी अपना भविष्य सोच कर शांत हो जाता है क्योंकि इस तरह की आपात् स्थिति में इंजीनियर या दूसरे तकनीकी स्टाफ हड़ताल पर चले गए तो सारा गुड़ गोबर हो जायेगा। सरकार भी अपने अनुशासनात्मक कदम पीछे खींच लेती है और फिर सब कुछ आम दिनों जैसा हो जाता है।
रामपुर कंठ में जब तटबंध टूटा तब भी कुछ ऐसा ही हुआ था। 2007 में पूरे उत्तर बिहार में बाढ़ की स्थिति खराब थी और राज्य सरकार ने किसी भी आपात स्थिति से निबटने, व्यवस्था बनाये रखने के लिए और सुचारु रूप से राहत कार्य चलाये जाने के लिए हर प्रभावित जिले में एक विशेष जिलाधिकारी की नियुक्ति कर दी। इस साल बागमती के फेज-2 वाले तटबंधों में पचनौर (15 जून), रमणी (28 जुलाई), खरहुआँ (27 जुलाई) और रामपुर कंठ (18 अगस्त) में चार जगहों पर दरारें पड़ीं। यह चारों जगहें सीतामढ़ी जिले में थी और कहा जाता है कि सीतामढ़ी के विशेष जिलाधिकारी की अनुशंसा पर सुप्पी के प्रखंड विकास पदाधिकारी श्री बाबू यादव ने लिखित रूप से प्रा.अभि.ई. ज्वाला प्रसाद, मुख्य अभियंता, जल-संसाधन विभाग, मुजफ्फरपुर के खिलाफ 28 अगस्त 2007 के दिन सीतामढ़ी थाना काण्ड संख्या 113/07 के माध्यम से भारतीय दंड विधान की धारा 187, 188, 269, 270, 288, 336, 491 और आपदा प्रबंधन अधिनियम 56 के अधीन प्राथमिकी दायर की। इस प्राथमिकी के बाद जो जांच हुई उसमें बागमती परियोजना-रीगा, जिला सीतामढ़ी के एक सहायक अभियंता को भा.द.वि. की धारा 187 और 288 के अंतर्गत दोषी पाया गया जबकि मुख्य अभियंता के विरुद्ध आरोपों की पुष्टि नहीं हो पायी और उन्हें इन अभियोगों से मुक्त कर दिया गया। सहायक अभियंता के विरुद्ध अंतिम प्रतिवेदन सं. 156/07 दिनांक 6 अक्टूबर 2007 को समर्पित किया गया और यह मामला माननीय न्यायालय में विचाराधीन है।
सूचना के अधिकार के अधीन नागेन्द्र प्रसाद सिंह को दिये गए अपने उत्तर में अधीक्षण अभियंता, बाढ़ नियंत्रण योजना एवं मॉनिटरिंग अंचल, सिंचाई भवन, पटना ने स्पष्टीकरण दिया, ‘‘नेपाल भाग से आने वाली नदियों में गाद के कारण बिहार भू-भाग में Meandering (घुमावदार बहाव) की स्वाभाविक प्रवृत्ति रहती है जिसके कारण तटबंध टूटते हैं। राज्य के सीमित संसाधनों के कारण सभी पूर्व निर्मित तटबंधों की अनिवार्य मरम्मती एक साथ संभव नहीं है। अतः राज्य सरकार द्वारा इस कार्य हेतु भारत सरकार से मदद प्राप्त करने की कार्यवाही की गयी है। इसके बावजूद यदि किसी स्थल पर टुटान पदाधिकारियों की लापरवाही से होता है तो नियमानुसार निगरानी शाखा, जल-संसाधन विभाग से कार्यवाही की जाती है।’’
इस पूरे मसले पर विभाग द्वारा जो ‘नियमानुसार कार्यवाही’ हुई उससे पता लगा, ‘‘रामपुर कंठ के समीप तटबंध को ध्वस्त होने में तीन सप्ताह से अधिक का समय लगा। लगभग 90 मीटर की दूरी से कटाव करती बागमती की धारा तटबंध से महज दस मीटर की दूरी तक आ पहुँची थी। यह भी सच है कि इससे पूर्व बैम्बू पाइलिंग व एनसी क्रेटिंग के जरिये कटाव को रोकने की विभागीय कार्यवाही भी की गयी थी। बैम्बू पाइलिंग की नदी की तेज धारा में विलीन होते ही अभियंताओं ने अपने हाथ खड़े कर दिये। संबंधित कार्यपालक अभियंता ने स्थिति की गंभीरता को जानने के लिए कटाव स्थल तक जाना मुनासिब नहीं समझा। हद तो यह है कि नदी के द्वारा जारी खतरनाक कटाव के संबंध में तटबंध पर तैनात सहायक अभियंता की ओर से प्रेषित सूचना तक की परवाह नहीं की गयी। कार्यपालक अभियंता की नींद तब खुली जब तटबंध ध्वस्त हो चुका था।’’ इस रिपोर्ट के आने के पहले ही सीतामढ़ी के जिलाधिकारी ने जल-संसाधन विभाग के प्रधान सचिव को बागमती प्रमंडल-1 के कार्यपालक अभियंता के निलंबन की सिफारिश कर दी थी।
इसके जवाब में बिहार अभियंत्रण सेवा के प्रायः सभी विभागों के चार हज़ार इंजीनियर 10 अक्टूबर 2007 को सामूहिक अवकाश पर चले गए। अपना नाम गोपनीय रखने की शर्त पर एक विभागीय इंजीनियर का कहना है, ‘‘...2007 में बागमती का पूर्वी तटबंध कई जगह टूटा था और वहाँ जो स्पेशल डी.एम. आये उन्होंने विभाग के स्टाफ और कार्यपालक अभियन्ताओं पर डंडा चलाना शुरू किया कि दरार को जल्दी पाटो नहीं तो जेल भेज देंगे। सभी संबद्ध इंजीनियर भारी तनाव में थे। इस तरह की कार्य शैली से तो किसी भी इंजीनियर का नर्वस ब्रेक डाउन हो जायेगा या हार्ट फेल हो जायेगा। स्पेशल डी.एम. को यह पता ही नहीं था कि दरार तब तक नहीं पाटी जा सकती जब तक बाढ़ का पानी हट न जाए। तटबंध कोई पहली बार तो टूटा नहीं था। उसका तो टूटने का इतिहास रहा है। सरकार भी इस कमजोर बांध की सुरक्षा के प्रति चिन्तित थी। यही सब बातें जब स्पेशल डी.एम. को बताई गईं कि इंजीनियरों का मनोबल टूट जायेगा अगर उन पर इस तरह का दबाव बनाइयेगा तो उनको लगा होगा कि इंजीनियर उन्हें चैलेन्ज कर रहे हैं और इस पर उनकी नाराजगी थी। उन्होंने एफ.आइ.आर. करके पुलिस केस बना दिया तो पुलिस को जांच करनी पड़ी और उसने केस बंद करवा दिया। बांध का समुचित रख-रखाव नहीं होगा, उसका स्लोप छीज जायेगा तो वह फिल्टर की तरह काम करने लगता है, उससे होकर पानी निकलने लगता है और वह टूटता है। अब रख-रखाव के लिए समय पर राशि ही उपलब्ध नहीं होगी तो कौन क्या कर लेगा? अगर तटबंध टूटने की वजह से इंजीनियर दोषी हो जाता है तो क्यों खून होने पर या दंगा होने पर प्रशासन अपने आप दोषी नहीं हो जाता है? उस पर भी प्राथमिकी होनी चाहिये और मुकद्दमें चलने चाहिये। आप किसी डॉक्टर को जेल भेजने की धमकी देकर अपने मरीज का सही इलाज नहीं करवा सकते और न ही किसी वकील को धमका कर अदालत में जिरह करवा सकते हैं।’’
बहरहाल, अगर इंजीनियरों की गलती या लापरवाही से तटबंध टूट गया और इतने लोग बेघर हो गए और प्रशासन की लापरवाही और गलती से पिछले चार साल से वो दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं जबकि अपने जान-माल की सुरक्षा के लिए जनता ने न तो इंजीनियरों को न्यौता दिया था और न ही प्रशासन को तो लोग क्या करें? उन्होंने तो किसी न किसी को सरकार बना कर उनके हितों की रक्षा के लिए चुना था जो कि प्रशासन और जल-संसाधन विभाग को लोक-हित में नियंत्रित करता। अगर किसी को सबसे पहले कठघरे में खड़ा करना है तो यह राज्य सरकार के अलावा दूसरा कोई नहीं हो सकता। लोकतंत्र आम आदमी को यही ताकत देता है। आम जनता जिलाधिकारी या चीफ इंजीनियर की नियुक्ति नहीं करती पर अपने हितों की रक्षा के लिए सरकार चुनती है। जनता जब तक जागरूक होकर इस बात को नहीं समझेगी इस तरह की घटनायें होती रहेंगी।
सरकार शायद यह सोचती है कि जब योजना बनी थी तब इस गाँव के 90 परिवारों का उसने पुनर्वास कर दिया था और विस्थापितों के प्रति अपनी सारी जिम्मेवारियों से आजाद हो गयी। अब 134 परिवार फिर तैयार हो गए पुनर्वास लेने के लिए और यह सिलसिला कभी खत्म होने वाला तो है नहीं। तटबंध टूटता ही रहेगा और पुनर्वास की मांग उठती ही रहेगी। एक बार अगर किसी गाँव का किसी भी बहाने दुबारा पुनर्वास हो गया तो यह भूत और भविष्य दोनों के लिए मिसाल बन जायेगा। शायद इसीलिए एहतियात बरती जा रही हो कि मांगने वाले को इतना थका दो कि इस पूरी घटना को कुदरत का कहर मान ले और वह हार कर बैठ जाए।
जहाँ तक तटबंध और कटाव पीड़ितों का सवाल है उनको अगर पता होता कि जहाँ उन्हें पुनर्वास मिला है वहाँ तटबंध टूट कर उन्हें किसी भी वक्त तबाह कर सकता है तो वह पुनर्वास में आने के पहले दुबारा सोचते। उन्हें अगर यह भी पता होता कि तटबंध बनाना तो सरकार को आता है मगर उसे बचा कर रखना नहीं आता और अगर कोई अनिष्ट हो जाए तो उसकी जिम्मेंवारियों से पल्ला झाड़ लेना सरकारी दस्तूर होता है तो वह पुनर्वास में रहने की कभी नहीं सोचते। इन सवालों या समस्याओं का कोई सहज समाधान नहीं है सिवाय इसके कि जिम्मेवारियाँ तय हों और कानून अपना काम करे तथा उसका कुछ तो खौफ अमला तंत्र के अंदर हो।
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