विश्व जल दिवस पर विशेष
दुनिया के तमाम विकसित देश अपने यहाँ की कचरा फैलाने और अधिक पानी पीने वाली औद्योगिक इकाइयों को गरीब देशों में स्थानान्तरित करने का खेल शुरू कर चुके हैं। विदेशी आमन्त्रित करते वक्त यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे उद्योगों सेे सम्बन्धित बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत न आने दिया जाए। सरकार को भी चाहिए कि वह पानी-पर्यावरण की चिन्ता करने वाले कार्यकर्ताओं को विकास विरोधी बताने की बजाय, समझे कि पानी बचेगा, तो ही उद्योग बचेंगे; वरना किया गया निवेश भी जाएगा और भारत का औद्योगिक स्वावलम्बन भी। फेडरेशन आॅफ चैम्बर्स आॅफ काॅमर्स एण्ड इंडस्ट्री (फिक्की) द्वारा कराए एक औद्योगिक सर्वे के 77 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने माना कि उन्हें पानी आसानी से उपलब्ध है। 14 प्रतिशत ने माना कि उन्हें पानी के लिये काफी खर्च करना पड़ रहा है। 23 प्रतिशत ने कहा कि उनकी औद्योगिक इकाई पानी के संकट से पीड़ित है।
क्या पानी की कमी अथवा प्रदूषण के कारण उनके उद्योग पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है? इस प्रश्न के उत्तर में 60 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने हाँ कहा। सर्वे रिपोर्ट का आकलन है कि अगले दस वर्षों में नकारात्मक रूप प्रभावित होने वाले ऐसे उत्तरदाताओं का यह प्रतिशत 60 से बढ़कर 80 होने वाला है।
रिपोर्ट के मुताबिक 41 प्रतिशत भारतीय उद्योग सतही जल स्रोत, 35 प्रतिशत भूजल और 24 प्रतिशत उद्योग स्थानीय निकाय के पानी कनेक्शन से पानी ले रहे हैं। अनुमान है कि औद्योगिक क्षेत्र में पानी का इस्तेमाल आगे और बढ़ेगा। 2010 में दर्ज छह प्रतिशत खपत का आँकड़ें में चार प्रतिशत की वृद्धि होगी। 2025 से 2050 के बीच भारत के औद्योगिक क्षेत्र में ताजे पानी के इस्तेमाल में 8.5 से 10.1 प्रतिशत की वृद्धि होगी।
ये आँकड़े सतर्क करते हैं कि भारत को औद्योगिक विकास और औद्योगिक क्षेत्र में निवेश से ज्यादा चिन्ता मौजूदा उद्योगों को पानी के संकट से उबारने के लिये करनी चाहिए। ये संकेत है कि फैक्टरी से निकले गन्दे पानी के शोधन और फिर उसके पुनः उपयोग के बगैर भविष्य में मशीन का चक्का आगे बढ़ेगा नहीं। यह करना ही होगा; प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड का प्रमाण पत्र पाने के लिये नहीं, बल्कि उद्योग को बचाने के लिये। उद्योगों को अपनी जरूरत के पानी का जल-संचयन और संरक्षण की जवाबदेही स्वयं उठानी होगी। एक बात यह भी कि सतही जल के भरोसे काम चल नहीं सकता। बचाना और बढ़ाना तो भूजल ही होगा।
जम्मू, झारखण्ड, बुन्देलखण्ड, पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र... गिनते जाइए कि भारत में तेजी से गिरते भूजल वाले इलाके कई हैं। किसी भी इलाके की भूजल सन्धारण क्षमता की सीमा रेखा जाँचे बगैर उसे औद्योगिक क्षेत्र के रूप में अधिग्रहित करने का रवैया आगे बहुत महंगा पड़ने वाला है।
गुड़गाँव, नोएडा और ग्रेटर नोएडा इसी के रवैये के मशहूर बीमार हैं। रेलवे ने बुन्देलखण्ड जैसे ऐसे इलाके में अपना रेल नीर संयन्त्र लगाया, जो खुद अपने लिये पानी के संकट से अक्सर जूझता दिखाई देता रहता है। यह संकट वहाँ खनन उद्योग, वन माफिया और ढाँचागत विकास के नाम पर निर्मित ढाँचों ने खड़ा किया है।
नैतिक और कानूनी.. दोनों स्तर पर यह सुनिश्चित करना ही होगा कि जो उद्योग जितना पानी खर्च करे, वह उसी क्षेत्र में कम-से-कम उतने पानी के संचयन का इन्तजाम करे। वरना एक दिन उस इलाके का भूजल संकट के दायरे में आएगा और उद्योग भी। लोग भी गहरे पानी के साथ आने वाले प्रदूषक रसायनों के शिकार बन बीमार होंगे; मरेंगे।
शुक्र है कि फिक्की ने वाटर मिशन बनाकर इसकी चिन्ता शुरू की है, तो कंफेडरेशन आॅफ इंडियन इंडस्ट्री ने वाटर सेल बनाकर और पंजाब-हरियाणा-दिल्ली चैम्बर आॅफ काॅमर्स एण्ड इंडस्ट्री ने गुड़गाँव और मेवात जैसे पानी के संकटग्रस्त इलाकों में ज़मीन पर जल संचयन के कुछ अच्छे कामों को मदद कर। यह अच्छी बात है। लेकिन जल शोधन, कचरा निष्पादन और पानी के पुनः उपयोग के ज़मीनी आँकड़े बहुत निराश करने वाले हैं। यह अच्छी बात नहीं हैं।
फिक्की के आँकड़ों को ही यदि सच माने तो भी मात्र 24 प्रतिशत उद्योग ही शोधन पश्चात् पानी का पुनः उपयोग करते हैं। तरल कचरे का उद्योग क्या कर रहे हैं, इसका हाल दिन-प्रतिदिन बदतर होती भारतीय नदियों से अच्छा कौन बता सकता है? तरल कचरे का शोधन करने की बजाय, उद्योग उन्हें सीधे भूजल में मिलाने का जानलेवा अपराध कर रहे हैं।
पानी की कमी और प्रदूषण के कारण खुद उद्योगों के उजड़ने और इलाके के बीमार होने के सटीक उदाहरण देखने हों, तो कभी कानपुर या गाज़ियाबाद के पुराने औद्योगिक क्षेत्रों में घूम आइए। अकेले उत्तर प्रदेश में देखें तो अलीगढ़, गौतमबुद्ध नगर, गाज़ियाबाद, मेरठ, बागपत, मुज़फ़्फरनगर, सहारनपुर.. ये सभी इलाके ऐसे हैं, जहाँ आप प्रदूषण नियन्त्रण कायदों की धज्जियाँ उड़ाने में उद्योगों को कोई संकोच नहीं।
नतीजा? काली, कृष्णी, हिण्डन जैसी नदियों में अब पानी नहीं, जहर बहता है। इन इलाकों में कैंसर, किडनी, पेट, साँस, चमड़ी और हड्डी के रोगियों की भरमार है। ये कैसा औद्योगिक विकास है और जो जिन प्राकृतिक और मानव संसाधनों के बूते चलता है, उसे ही नष्ट कर रहा है।
दुखद है कि ठोस कचरे के निष्पादन के मामले में भारतीय उद्योग इतने अवैज्ञानिक और अनैतिक हैं कि उसे खुले में डम्प करने के अलावा जैसे उन्हें और कोई तरीका मालूम ही नहीं है। न हम अपने कचरे की कोई आॅडिट रिपोर्ट बनाते हैं और न पानी की। कागज पर शोधन संयन्त्र भी हैं और पानी का पुनः उपयोग भी; किन्तु इन्हें चलाने में आने वाले खर्च से डर लगता है।
विज्ञान पर्यावरण केन्द्र द्वारा हाल में कोयले से बिजली बनाने वाले संयन्त्रों को लेकर ताजी ग्रीन रेटिंग रिपोर्ट के तथ्य बताते हैं कि प्रदूषण नियन्त्रण सम्बन्धी कायदों को लेकर सरकारी क्षेत्र के उद्योगों का रवैया और खराब है। ताप विद्युत घरों से निकली राख और गर्म पानी से इलाके-के-इलाके बर्बाद हो रहे हैं। सोनभद्र, इसकी सबसे गम्भीर मिसाल है। गंगा-यमुना का संगम इसकी अगली मिसाल बनने को तैयार है। उद्योगों को इस दाग से उबरना होगा। पानी और कचरे को लेकर अपनी क्षमता और ईमानदारी, व्यवहार में दिखानी होगी।
दुनिया के तमाम विकसित देश अपने यहाँ की कचरा फैलाने और अधिक पानी पीने वाली औद्योगिक इकाइयों को गरीब देशों में स्थानान्तरित करने का खेल शुरू कर चुके हैं। विदेशी आमन्त्रित करते वक्त यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे उद्योगों सेे सम्बन्धित बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारत न आने दिया जाए।
सरकार को भी चाहिए कि वह पानी-पर्यावरण की चिन्ता करने वाले कार्यकर्ताओं को विकास विरोधी बताने की बजाय, समझे कि पानी बचेगा, तो ही उद्योग बचेंगे; वरना किया गया निवेश भी जाएगा और भारत का औद्योगिक स्वावलम्बन भी। क्या भारत इसके लिये तैयार है?
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Post By: RuralWater