छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति में जब खुद समाज का पसीना लगेगा; उसकी संवेदना व सरोकारों का जगना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी। नदी प्रदूषण के कारण आज जाने कितनी ही छोटी नदियों का समाज अपनी और खेती की खराब सेहत को लेकर त्रस्त है। जाहिर है कि पड़ोस की नदी की प्रदूषण मुक्ति का सबसे पहला फायदा उसी ग्रामसभा को होगा, जो प्रदूषण मुक्ति के काम में लगेगी। यह नतीजा उसे बड़ी नदियों की प्रदूषण मुक्ति का सपना लेने और उसके लिए जुटने को प्रोत्साहित करेगा। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के तहत दिए जाने वाले काम में जल संचयन ढांचों के निर्माण व पुनरुद्धार को प्राथमिकता पर रखे जाने की बात हम सभी जानते हैं। इस कदम ने भारत के जल संचयन व जल पुनर्भरण को लेकर एक बड़ी उम्मीद जगाई थी। मनरेगा के तहत राज्य सरकारों द्वारा बनाई योजनाओं में वृक्षारोपण से भी उम्मीद जगी थी कि इससे पर्यावरण का कुछ भला होगा। हालांकि ग्रामप्रधानों की भ्रष्ट कमाई को लेकर कोई मुगालता किसी को नहीं है, बावजूद अब छोटी नदियों को साफ कराने का जिम्मा सीधे ग्राम प्रधानों को सौंपे जाने संबंधी उत्तर प्रदेश सरकार की ताजा योजना से नदी प्रेमियों को मन में फिर आशा का संचार हुआ है। इससे छोटे-छोटे प्रयासों करने वालों के लिए एक रास्ता खुलेगा।
हालांकि उत्तर प्रदेश में गंगा तथा यमुना एक्सप्रेस वे जैसी नदी विरोधी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने जैसी गलत कदम की गुनाहगार सपा व बसपा दोनों पार्टियों की सरकारें हैं, बावजूद इसके दोनों द्वारा लिए कुछेक अच्छे निर्णयों की हम निंदा नहीं कर सकते। उल्लेखनीय है कि पिछली बसपा सरकार ने मनरेगा के तहत बन रहे तालाबों के डिजाइन में हो रही गलती सुधारते हुए पानी आने के ढाल क्षेत्र की ओर से तालाबों को खुला रखने का आदेश देकर एक अहम पहल की थी। अब सपा की सरकार ने छोटी नदियों के जरिए बड़ी नदियों के प्रदूषण भार को कम करने का रास्ता खोलकर एक बड़ी पहल की है। अधिकारियों ने इसके लिए ग्रामप्रधानों को जिम्मेदारी देने का नुख्सा ढूंढ निकाला है। प्रयोग के तौर इसे मथुरा में आजमाया जा चुका है। अब इसे गंगा, यमुना और गोमती जैसी मुख्य नदियों के किनारे पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश में व्यवहार में उतारने की योजना है। कारगर रहने पर अगले चरण में इसे पूरे प्रदेश में लागू कर दिया जायेगा। यह बहुप्रतीक्षित कदम निश्चित ही सराहनीय भी है और व्यावहारिक भी।
हम-आप जानते ही हैं कि यमुना-गंगा-गोमती जैसी प्रमुख नदियों के अलावा उत्तर प्रदेश में हिंडन, काली, कृष्णी, पांवधोई, पांडु, सई, ससुरखदेड़ी तथा आमी जैसी दूसरी नदियों की प्रदूषण मुक्ति को लेकर पिछले 10 वर्षों में कई अभियान चले हैं। जलबिरादरी की नदी इकाइयों ने ही इस दिशा में जनजागरण की कई पुरजोर कोशिशें की हैं। अलग-अलग संगठनों ने दीवार लेखन, विद्यालयों, ग्रामीणों के बीच नदी प्रदूषण व उससे जुड़े सरोकारों की चर्चा, प्रदूषण जांच का प्रशिक्षण, निगरानी, शासन से संवाद और मीडिया पहल से लेकर मुकदमें तक दर्ज कराये हैं। बावजूद इसके नदी प्रदूषण मुक्ति को लेकर उ.प्र. में उल्लेख करने लायक कोई नतीजा अभी तक हासिल हो सका हो; मुझे याद नहीं। सहारनपुर शहर में पांवधोई नदी को कचरा मुक्त करने का एक अनुपम उदाहरण अवश्य स्थानीय प्रशासन व समाज के साझे खाते में दर्ज है। इसे नजीर मानकर मायावती सरकार ने कई जिलों को शासनादेश भी जारी किया था। ज्यादातर कोशिशें इसलिए फेल हुईं चूंकि छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति की योजना बनाने वाले कार्यकर्ताओं के पास आवश्यक आर्थिक व समर्पित मानव संसाधन नहीं था। वे पांवधोई प्रदूषण मुक्ति के अगुवा बने तत्कालीन जिलाधीश आलोक कुमार जैसे पदाधिकारियों की खोज करने व उनसे संवाद-समन्वय बनाने में भी असफल रहे।
दरअसल, नदी प्रदूषण मुक्ति का काम नदी प्रवाह की समृद्धि से सीधे जुड़ा हुआ है। इसे लेकर जलबिरादरी के इलाहाबाद नदी सम्मेलन-2011 में ग्रामीण विकास मंत्रालय के आला अफसरों से मांग की गई थी कि वे छोटी नदियों के पुनरुद्धार के काम को मनरेगा के तहत कराने का रास्ता बनायें। यह सच है कि मनरेगा के तहत क्या काम किया जाये, यह तय करना ग्रामसभा का काम है, न कि सरकार का। बावजूद इसके अच्छा लगा कि किसी और मद से ही सही, अखिलेश सरकार ने उत्तर प्रदेश की जमीन से उठी मांग के निहितार्थ को समझा और देर से ही सही, छोटी नदियों की चिंता करनी शुरू की है।
इसमें दो राय नहीं कि छोटी नदियों को प्रवाहमान बनाकर ही बड़ी नदियां उस पर्यावरणीय प्रवाह को हासिल कर सकती हैं, जिसकी मांग लंबे समय से गंगा को लेकर होते रहे आंदोलन उठाते रहे हैं। इसी तरह इस बात की भी खासी महत्ता है कि यदि बड़ी नदियों को प्रदूषण मुक्त करना है; प्रदूषण मुक्ति के प्रति समाज को उसकी जिम्मेदारियों को एहसास कराना है; उसकी मरी संवेदनाओं को जगाना है... तो इसकी शुरुआत छोटी नदियों से ही की जानी चाहिए। विषय के प्रति जन-जागरूकता, कचरा निकालने जैसे श्रमनिष्ठ काम और प्रदूषण मुक्ति में सहायक जीवाणुओं आदि के उपयोग जैसे तकनीकी ज्ञान... सभी को आपस में जुड़ने की जरूरत होगी।
छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति में जब खुद समाज का पसीना लगेगा; उसकी संवेदना व सरोकारों का जगना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी। नदी प्रदूषण के कारण आज जाने कितनी ही छोटी नदियों का समाज अपनी और खेती की खराब सेहत को लेकर त्रस्त है। जाहिर है कि पड़ोस की नदी की प्रदूषण मुक्ति का सबसे पहला फायदा उसी ग्रामसभा को होगा, जो प्रदूषण मुक्ति के काम में लगेगी। यह नतीजा उसे बड़ी नदियों की प्रदूषण मुक्ति का सपना लेने और उसके लिए जुटने को प्रोत्साहित करेगा। तब समाज जरूरी कदम उठाने के लिए सरकारों को भी बाध्य कर ही लेगा। यह अच्छा होगा।
क्या ही अच्छा हो कि उत्तर प्रदेश सरकार छोटी-छोटी सूखी नदियों को पुनः सदानीरा बनाने का पुण्य काम भी लगे हाथ कर ही डाले। इसके बगैर छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति पूरी तरह यूं भी संभव नहीं होगी। समझना होगा कि उत्तर प्रदेश में अलग-अलग जगह अलग-अलग वजह से ये नदियां सूखीं। कहीं इनके किनारे की वनस्पति के उजड़ने व तालाबों पर कब्जे होने से नदियां सूखीं। कहीं गहरी करने के नाम पर बड़ी-बड़ी मशीने लगाकर इनके प्राकृतिक तल-ढाल को छील कर एकदम सपाट-ढालू बना देने के कारण नदियां सूखीं। कहीं अति दोहन ने इन्हें सुखाया। कहीं मूल स्रोत के सूख जाने के कारण छोटी नदियां बेपानी हुईं। जिस नदी में बड़ी संख्या में प्राकृतिक कुण्ड शेष रहते हैं, वह बरसाती हो, तो भी उसमें चिड़िया से लेकर जंगली जीवों-मवेशियों के पीने लायक पानी गर्मी में भी शेष रहता है। कुण्ड के आसपास छोटी वनस्पति भी अपने भीतर कुछ पानी पकड़कर रखती ही है। इन कुण्डों को नष्ट किए जाने की बेसमझी जीव-जंतुओं व खुद नदी के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई है।
नदियों में कुण्ड निर्माण तथा आवश्यकतानुसार उनके तल को वापस पानी रोककर रखने लायक बनाने के लिए जरूरी संरचना निर्माण का काम करने के लिए बहुत धन की जरूरत नहीं होगी। बस! प्रदेश सरकार नदी पुनरुद्धार के काम को मनरेगा हेतु बनाई प्रादेशिक योजनाओं में प्राथमिकता के तौर पर शामिल कर ले; ताकि जो गांव नदी पुनरुद्धार के काम को करना चाहे, उसे किसी परियोजना, फाइल या अनुमति की प्रतीक्षा न करनी पड़े। तब सरकार का काम नदी पुनरुद्धार का काम करने वाली ग्रामसभा को प्रोत्साहित करने तथा उसके मार्ग में आने वाली प्रशासनिक व तकनीकी बाधाओं को दूर करने तक सीमित रह जायेगा। वह इसे ठीक से निभा ले जाये; इतना ही काफी होगा। पानी-पर्यावरण के मोर्चे पर यह सचमुच एक बड़ा काम होगा। इसी से नदियों का भी उद्धार होगा, समाज का भी और अपराध के बढ़ते ग्राफ के बीच गिरती छवि वाली अखिलेश सरकार का भी। काश! कि ऐसा हो।
हालांकि उत्तर प्रदेश में गंगा तथा यमुना एक्सप्रेस वे जैसी नदी विरोधी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने जैसी गलत कदम की गुनाहगार सपा व बसपा दोनों पार्टियों की सरकारें हैं, बावजूद इसके दोनों द्वारा लिए कुछेक अच्छे निर्णयों की हम निंदा नहीं कर सकते। उल्लेखनीय है कि पिछली बसपा सरकार ने मनरेगा के तहत बन रहे तालाबों के डिजाइन में हो रही गलती सुधारते हुए पानी आने के ढाल क्षेत्र की ओर से तालाबों को खुला रखने का आदेश देकर एक अहम पहल की थी। अब सपा की सरकार ने छोटी नदियों के जरिए बड़ी नदियों के प्रदूषण भार को कम करने का रास्ता खोलकर एक बड़ी पहल की है। अधिकारियों ने इसके लिए ग्रामप्रधानों को जिम्मेदारी देने का नुख्सा ढूंढ निकाला है। प्रयोग के तौर इसे मथुरा में आजमाया जा चुका है। अब इसे गंगा, यमुना और गोमती जैसी मुख्य नदियों के किनारे पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश में व्यवहार में उतारने की योजना है। कारगर रहने पर अगले चरण में इसे पूरे प्रदेश में लागू कर दिया जायेगा। यह बहुप्रतीक्षित कदम निश्चित ही सराहनीय भी है और व्यावहारिक भी।
हम-आप जानते ही हैं कि यमुना-गंगा-गोमती जैसी प्रमुख नदियों के अलावा उत्तर प्रदेश में हिंडन, काली, कृष्णी, पांवधोई, पांडु, सई, ससुरखदेड़ी तथा आमी जैसी दूसरी नदियों की प्रदूषण मुक्ति को लेकर पिछले 10 वर्षों में कई अभियान चले हैं। जलबिरादरी की नदी इकाइयों ने ही इस दिशा में जनजागरण की कई पुरजोर कोशिशें की हैं। अलग-अलग संगठनों ने दीवार लेखन, विद्यालयों, ग्रामीणों के बीच नदी प्रदूषण व उससे जुड़े सरोकारों की चर्चा, प्रदूषण जांच का प्रशिक्षण, निगरानी, शासन से संवाद और मीडिया पहल से लेकर मुकदमें तक दर्ज कराये हैं। बावजूद इसके नदी प्रदूषण मुक्ति को लेकर उ.प्र. में उल्लेख करने लायक कोई नतीजा अभी तक हासिल हो सका हो; मुझे याद नहीं। सहारनपुर शहर में पांवधोई नदी को कचरा मुक्त करने का एक अनुपम उदाहरण अवश्य स्थानीय प्रशासन व समाज के साझे खाते में दर्ज है। इसे नजीर मानकर मायावती सरकार ने कई जिलों को शासनादेश भी जारी किया था। ज्यादातर कोशिशें इसलिए फेल हुईं चूंकि छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति की योजना बनाने वाले कार्यकर्ताओं के पास आवश्यक आर्थिक व समर्पित मानव संसाधन नहीं था। वे पांवधोई प्रदूषण मुक्ति के अगुवा बने तत्कालीन जिलाधीश आलोक कुमार जैसे पदाधिकारियों की खोज करने व उनसे संवाद-समन्वय बनाने में भी असफल रहे।
दरअसल, नदी प्रदूषण मुक्ति का काम नदी प्रवाह की समृद्धि से सीधे जुड़ा हुआ है। इसे लेकर जलबिरादरी के इलाहाबाद नदी सम्मेलन-2011 में ग्रामीण विकास मंत्रालय के आला अफसरों से मांग की गई थी कि वे छोटी नदियों के पुनरुद्धार के काम को मनरेगा के तहत कराने का रास्ता बनायें। यह सच है कि मनरेगा के तहत क्या काम किया जाये, यह तय करना ग्रामसभा का काम है, न कि सरकार का। बावजूद इसके अच्छा लगा कि किसी और मद से ही सही, अखिलेश सरकार ने उत्तर प्रदेश की जमीन से उठी मांग के निहितार्थ को समझा और देर से ही सही, छोटी नदियों की चिंता करनी शुरू की है।
इसमें दो राय नहीं कि छोटी नदियों को प्रवाहमान बनाकर ही बड़ी नदियां उस पर्यावरणीय प्रवाह को हासिल कर सकती हैं, जिसकी मांग लंबे समय से गंगा को लेकर होते रहे आंदोलन उठाते रहे हैं। इसी तरह इस बात की भी खासी महत्ता है कि यदि बड़ी नदियों को प्रदूषण मुक्त करना है; प्रदूषण मुक्ति के प्रति समाज को उसकी जिम्मेदारियों को एहसास कराना है; उसकी मरी संवेदनाओं को जगाना है... तो इसकी शुरुआत छोटी नदियों से ही की जानी चाहिए। विषय के प्रति जन-जागरूकता, कचरा निकालने जैसे श्रमनिष्ठ काम और प्रदूषण मुक्ति में सहायक जीवाणुओं आदि के उपयोग जैसे तकनीकी ज्ञान... सभी को आपस में जुड़ने की जरूरत होगी।
छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति में जब खुद समाज का पसीना लगेगा; उसकी संवेदना व सरोकारों का जगना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी। नदी प्रदूषण के कारण आज जाने कितनी ही छोटी नदियों का समाज अपनी और खेती की खराब सेहत को लेकर त्रस्त है। जाहिर है कि पड़ोस की नदी की प्रदूषण मुक्ति का सबसे पहला फायदा उसी ग्रामसभा को होगा, जो प्रदूषण मुक्ति के काम में लगेगी। यह नतीजा उसे बड़ी नदियों की प्रदूषण मुक्ति का सपना लेने और उसके लिए जुटने को प्रोत्साहित करेगा। तब समाज जरूरी कदम उठाने के लिए सरकारों को भी बाध्य कर ही लेगा। यह अच्छा होगा।
क्या ही अच्छा हो कि उत्तर प्रदेश सरकार छोटी-छोटी सूखी नदियों को पुनः सदानीरा बनाने का पुण्य काम भी लगे हाथ कर ही डाले। इसके बगैर छोटी नदियों की प्रदूषण मुक्ति पूरी तरह यूं भी संभव नहीं होगी। समझना होगा कि उत्तर प्रदेश में अलग-अलग जगह अलग-अलग वजह से ये नदियां सूखीं। कहीं इनके किनारे की वनस्पति के उजड़ने व तालाबों पर कब्जे होने से नदियां सूखीं। कहीं गहरी करने के नाम पर बड़ी-बड़ी मशीने लगाकर इनके प्राकृतिक तल-ढाल को छील कर एकदम सपाट-ढालू बना देने के कारण नदियां सूखीं। कहीं अति दोहन ने इन्हें सुखाया। कहीं मूल स्रोत के सूख जाने के कारण छोटी नदियां बेपानी हुईं। जिस नदी में बड़ी संख्या में प्राकृतिक कुण्ड शेष रहते हैं, वह बरसाती हो, तो भी उसमें चिड़िया से लेकर जंगली जीवों-मवेशियों के पीने लायक पानी गर्मी में भी शेष रहता है। कुण्ड के आसपास छोटी वनस्पति भी अपने भीतर कुछ पानी पकड़कर रखती ही है। इन कुण्डों को नष्ट किए जाने की बेसमझी जीव-जंतुओं व खुद नदी के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई है।
नदियों में कुण्ड निर्माण तथा आवश्यकतानुसार उनके तल को वापस पानी रोककर रखने लायक बनाने के लिए जरूरी संरचना निर्माण का काम करने के लिए बहुत धन की जरूरत नहीं होगी। बस! प्रदेश सरकार नदी पुनरुद्धार के काम को मनरेगा हेतु बनाई प्रादेशिक योजनाओं में प्राथमिकता के तौर पर शामिल कर ले; ताकि जो गांव नदी पुनरुद्धार के काम को करना चाहे, उसे किसी परियोजना, फाइल या अनुमति की प्रतीक्षा न करनी पड़े। तब सरकार का काम नदी पुनरुद्धार का काम करने वाली ग्रामसभा को प्रोत्साहित करने तथा उसके मार्ग में आने वाली प्रशासनिक व तकनीकी बाधाओं को दूर करने तक सीमित रह जायेगा। वह इसे ठीक से निभा ले जाये; इतना ही काफी होगा। पानी-पर्यावरण के मोर्चे पर यह सचमुच एक बड़ा काम होगा। इसी से नदियों का भी उद्धार होगा, समाज का भी और अपराध के बढ़ते ग्राफ के बीच गिरती छवि वाली अखिलेश सरकार का भी। काश! कि ऐसा हो।
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