देश की जल समस्या के लिए नदी जोड़ने का नुस्खा डेढ़ सौ साल से भी पुराना है, लेकिन इस नुस्खे की पेचीदगियों ने हर बार ऐसी किसी भी कोशिश का रास्ता रोका है। इस कोशिश का सबसे बड़ा अवरोध पर्यावरण को होने वाला नुकसान है। नदियों को जोड़ना चाहिए या नहीं, जोड़ें तो कैसे व कितना और किस कीमत पर, ऐसे ढेरों सवाल नदियों के जोड़े जाने की कवायद पर मंडराते रहते हैं। करीब एक दशक पहले जब राजग सरकार के समय नदियों को जोड़ने की महती परियोजना राष्ट्रपति अभिभाषण का हिस्सा बनी तो इसे लेकर बहस और तेज हो गई। सियासत से अलग जल संसाधन विशेषज्ञों में भी इसे लेकर खासे मतभेद है। यही वजह भी है कि 1972 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव की ओर से इस बाबत पहली बार रखे गए औपचारिक प्रस्ताव के बाद से अभी तक केवल उत्तरप्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में केन और बेतवा को जोड़ने की परियोजना ही आगे बढ़ पाई है।
जल संबंधी मामलों पर सक्रिय साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम, रिवर्स एंड पीपुल के संयोजक हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि नदियों को जोड़ने के विचार से कई गंभीर पारिस्थितिकीय खतरे जुड़े हैं। इसमें लोगों के विस्थापन से लेकर जंगलों के नष्ट होने तक की चिंता शामिल है जो पर्यावरण के साथ-साथ नदियों को भी खत्म कर सकती है। वहीं नदी क्षेत्र की मिट्टी, भू-जल संचय, स्थानीय पेड़ पौधे, जीव-जंतुओं के वजूद को लेकर भी अनेक प्रश्न हैं। संसाधन विशेषज्ञ ठक्कर के शब्दों में नदी जोड़ों की पूरी अवधारणा पानी की अधिकता वाले नदी बेसिन को कम पानी वाले नदी बेसिन से जोड़ने की है। लेकिन जल तंत्र में मानसून की महती भूमिका वाले इस मुल्क में जब केन में बाढ़ आएगी तो बेतवा का बहाव भी ज्यादा होगा। ऐसे में अधिक पानी को संभालने के लिए पर्याप्त ड्रेनेज व्यवस्था की कमी मुसीबत ला सकती है। उनके अनुसार भारत में किसी भी नदी के जल प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए कोई व्यवस्था ही नहीं है, जो एक बड़ी समस्या है। ऐसे में बांध या नहर निर्माण से नदी के बाद आगे जा रही धारा में कितना पानी जा रहा है इसके आकलन का भी कोई इंतजाम नहीं है।
इसके अलावा जानकारों की चिंता जहां नदी तंत्र में पाई जाने वाले पादप और जंतु प्रजातियों के अस्तित्व को लेकर है वहीं फिक्र इस परियोजना से प्रभावित होने वाले जंगलों से भी जुड़ी है। सवाल लाजिमी है कि गंगा में पाई जाने वाले डॉल्फिन मछलियां क्या गोदावरी के पानी में भी जी पाएंगी? बिरला इंस्टीट्यूट में प्रोफेसर और जस संसाधन विशेषज्ञ डॉ. एपी सिंह के अनुसार ऐसे किसी विचार पर आगे बढ़ने से पहले बेहद जरूरी है कि देश में नदी जल के हर पहलू का वैज्ञानिक आकलन हो। जिसमें वाष्पीकरण से लेकर भू-जल संभरण व प्रवाह को समाहित किया जाए।
इनके अनुसार शहरों की आबादी के लिए भी ऐसी परियोजना के साथ तालमेल आसान नहीं होगा। अधिक पानी के साथ जी रही आबादी के लिए अपनी जरूरतों को कम करना और कम जल के साथ जीने को अभ्यस्त लोगों के लिए उसे संभालने की क्षमता विकसित करने में दिक्कतें संभव हैं। इसके कारण नदी की धारा में अप-स्ट्रीम और डाउन-स्ट्रीम आबादी के बीच तनाव भी संभव है। हालांकि उनके मुताबिक रिमोट सेंसिंग तकनीक जैसे आधुनिक संसाधनों और पर्याप्त शोध व सावधानी से आगे बढ़ा जाए तो इसके सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैं।
-प्रणय उपाध्याय
प्रदेशों की पीड़ा
झारखंड
राज्य में तीस के करीब छोटी-बड़ी नदियां हैं। इनमें से कई मौसमी हैं जो गर्मी आते-आते सूख जाती हैं। कुछ नदियों में सालों भर पानी जमा रहता है। यह देश का पहला राज्य है जिसने अंतर्राज्यीय नदियों को जोड़ने की योजना तैयार की थी। योजना का मोटा-मोटा खाका सरकार के जल संसाधन विभाग ने खींच रखा है। पर अभी इसे कई स्तरों से गुजरना है। डीपीआर की तैयारी के अलावा इस पर केंद्र सरकार से राय मशविरा करने के बाद पड़ोसी राज्यों की भी सहमति लेनी है। संबंधित अधिकारी के अनुसार यदि इसके डीपीआर पर आज काम शुरू किया जाए तो इसे पूरा होने में कम से कम दो साल लगेंगे।
हरियाणा
राज्य में नदियों को जोड़ने की कोई परियोजना कभी नहीं बनी। इतना जरूर है कि पंजाब व हरियाणा अलग-अलग सूबे बनने के बाद जल बंटवारे का विवाद बरसों से चल रहा है। पंजाब से हरियाणा के हिस्से का पानी लेने के लिए सतलुज यमुना जोड़ नहर (एसवाईएल) की योजना बनी। पर यह नदी आधी अधूरी है। पंजाब व हरियाणा में विवाद चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट हरियाणा के हक में फैसला दे चुका है पर अब मामला राष्ट्रपति के पास है। 2005 में हरियाणा सरकार ने राज्य में मौजूदा पानी के बंटवारे के लिए हांसी बुटाना नहर बनाई। नहर पूरी हो चुकी है पर इस पर पंजाब और राजस्थान सरकार के कई एतराज है। यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट में है।
उत्तराखंड
टिहरी बांध की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के मद्देनजर केंद्र की राजग सरकार के कार्यकाल में अलकनंदा का पानी भागीरथी में डालने का प्रस्ताव जरूर था, लेकिन बाद में यह ठंडे बस्ते में चला गया। वैसे जानकारों का कहना है कि विषम परिस्थितियों वाले उत्तराखंड में यदि नदी जोड़ परियोजना शुरू होने पर यह मुसीबत का सबब बन सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि उत्तराखंड में जैसी विषम भौगोलिक स्थितियां हैं, उनमें नदियों को आपस में जोड़ना किसी भी तरह हित में नहीं होगा। नदी बचाओ आंदोलन के प्रमुख सुरेश भाई के मुताबिक नदियों को आपस में जोड़ने के लिए पहाड़ों में सुरंगें बनानी होंगी, जो किसी भी दशा में यहां के हित में नहीं होगा। फिर पहाड़ तो पहले ही तमाम समस्याओं से जूझ रहा है, ऐसे में नदियों को जोड़ने से एक और मुसीबत सामने आ सकती है।
बिहार
नदियों को जोड़ने के लिए पांच योजनाओं का विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन तैयार किया जा रहा है। इसमें एक योजना का विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन तैयार हो गया है। योजना के तहत नवादा जिले में सकरी नदी पर बकसोती के समीप बैराज का निर्माण होगा और नाटा नदी पर निर्मित वीयर के स्थान पर बैराज का निर्माण कर सकरी नदी को नाटा नदी से जोड़ दिया जायेगा। सकरी व नाटा नदी के जुड़ने से सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो सकेगा। केन्द्रीय जल आयोग की सहमति प्राप्त होने के बाद इसे योजना आयोग को भेजा जायेगा। वर्तमान गंडक नहर प्रणाली में जल संवर्धन के लिए बूढ़ी गंडक व बाया नदी जल का अंतरण व गंडक नदी पर अरेराज के समीप गंडक योजना चरण दो के अन्तर्गत एक दूसरे बैराज का निर्माण किया जाना है। इसका डीपीआर तैयार हो रहा है। इसी प्रकार बागमती बहुउद्देश्यीय योजना में दो चरणों में कोसी नदी से जल हस्तांतरण के साथ इसके प्रथम चरण में भारत-नेपाल सीमा पर ढेंग के समीप बैराज निर्माण, मोकामा टाल में जल निस्सरण व आर्थिक विकास के लिए जल का उत्तम उपयोग व नवादा जिले में धनारजै जलाशय व फुलवरिया नहर प्रणाली को एक दूसरे से जोड़कर पानी की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए डीपीआर तैयार हो रहा है। अन्य 12 योजनाओं का भी डीपीआर तैयार किया जायेगा। उत्तर बिहार में बाढ़ की विनाशलीला को कम करने के लिए अधिक पानी वाली नदी का पानी कम पानी वाली नदी में अंतरण कर दिया जायेगा।
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