वर्तमान युग में एक ओर लोगों को साफ जल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है तो दूसरी ओर जल से संबंधित समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। जल संबंधी समस्याओं में सर्वप्रमुख है जल का खारापन, जिसके लिए अब विलवणीकरण या डिसेलिनेशन तकनीक का व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। सरल भाषा में कहें तो विलवणीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं. जो पानी से नमक तथा दूसरे खनिजों को निकालती है। खारे पानी को मीठे पानी में बदलने के लिए विलवणीकरण किया जाता है ताकि यह मानव खपत या सिंचाई के उपयुक्त बन सके। उन क्षेत्रों में जहां ताज़े पानी की उपलब्धता सीमित है, वहां सस्ते ढंग से ताजा पानी उपलब्ध कराने के लिए आजकल विलवणीकरण की प्रक्रिया पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
"यह जल जो दिखता है चारों ओर, यह जल जो मिलता है चारों ओर, रूप कहीं दूषित है इसका, कहीं नमकीन स्वरूप |
प्यास किसी की बुझा नहीं पाता, आस किसी की जगा नहीं पाता, जलते हुए जंगल पर जैसे दावानल-सी धूप।।"
ऊपर की स्वरचित पंक्तियों में जिस स्थिति का वर्णन किया गया है, वह आज की कड़वी सच्चाई को बयान करता है। आज हमारे देश में एक ओर पानी को लेकर पड़ोसी राज्यों के बीच विवाद बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर कई शहर पानी के कारण कर्फ्यू की मार झेल रहे हैं। भारत में जल की उपलब्धता के संबंध में किए गए विभिन्न अध्ययन बेहद भयावह तस्वीर पेश करते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार हर साल भारत 761 बिलियन क्यूविक पानी का इस्तेमाल घरेलू, कृषि और औद्योगिक उपयोग के लिए करता है। लेकिन चिंता की बात यह है कि अब इसमें आधे से अधिक पानी दूषित हो गया है।
भारत सरकार द्वारा गठित संसदीय समिति की वर्ष 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक भूजल भंडार की स्थिति और भी खराब है। दक्षिण, पश्चिम और केंद्रीय भारत के नौ राज्यों में भूजल का स्तर खतरे के निशान को पार कर गायब होने की कगार पर है। सीधा सा अर्थ है कि इन राज्यों में 90 प्रतिशत भूमिगत जल का इस्तेमाल किया जा चुका है एक और रिपोर्ट के मुताबिक 6 राज्यों के 1071 ब्लॉक,मंडल और तालुका में 100 प्रतिशत भौमजल का इस्तेमाल पहले ही किया जा चुका है।
उत्तर में हिमाच्छादित हिमालय और दक्षिण में हिंद महासागर से घिरा होने के बावजूद आज जल की उपलब्धता के मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है। खासकर भौमजल की दृष्टि से भारत पूरी धरती पर सबसे ज्यादा खराब स्थिति में पहुंच गया है। लेकिन खतरा कितना भी बड़ा क्यों न हो, विवेकपूर्ण और नियोजित ढंग से इसकी भयावयता को कम किया जा सकता है। भारत सरकार भी देश में पेयजल की कमी की समस्या के प्रति गंभीर है और सरकार ने इसे एक मिशन के रूप में लिया है। जल की शुद्धता और उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अपने देश में ही आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं स्वदेशी तकनीक के विकास की दिशा में सरकार ने कई पहल की हैं।
आज जल के स्मार्ट ग्रिड, गुणवत्तापूर्ण जल के लिए संवेदक (सेंसर) प्रौद्योगिकी का उपयोग, जल आपूर्ति व्यवस्था में संदूषणरोधी सिलिकॉन का उपयोग, ऑटोमेशन की स्वदेशी प्रौद्योगिकी का उपयोग, ऑनलाइन विसंक्रमण किट आदि कई उदीयमान जल शुद्धिकरण संबंधी प्रौद्योगिकियों पर काम किया जा रहा है। इसी प्रकार, पारामुक्त प्लाज्मा यूवी लैंप, इलेक्ट्रोकेमिकल इलेक्ट्रोलाइटिक डीफ्लोरिडेशन, माइक्रो-फ्लूइडिक्स, सेंसर ऑटोमेशन, आर्सेनिक संसूचन के लिए विकसित डीएनए आधारित जैव संवेदक, मेम्स दाब संवेदक, एक्वा कल्चर स्ट्रेस पैरामीटर मानीटरन आदि प्रौद्योगिकी एवं तकनीक की मदद से जलविज्ञानी जल संबंधी समस्याओं का समाधान खोजने में जुटे हुए हैं।
वर्तमान युग में एक ओर लोगों को साफ जल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है तो दूसरी ओर जल से संबंधित समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। जल संबंधी समस्याओं में सर्वप्रमुख हैं जल का खारापन जिसके लिए अब विलवणीकरण या डिसेलिनेशन तकनीक का व्यापक प्रयोग किया जा रहा है। सरल भाषा में कहें तो विलवणीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं जो पानी से नमक तथा दूसरे खनिजों को निकालती है। खारे पानी को मीठे पानी में बदलने के लिए विलवणीकरण किया जाता है ताकि यह मानव खपत या सिंचाई के उपयुक्त बन सके। उन क्षेत्रों में जहां ताज़े पानी की उपलब्धता सीमित है, वहां सस्ते ढंग से ताजा पानी उपलब्ध कराने के लिए आजकल विलवणीकरण की प्रक्रिया पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
भारत में 60 प्रतिशत पानी खारा है। देश में पानी इस हद तक खारा है कि उसका शोधन किए बिना सभी को पेयजल मुहैया करा पाना संभव ही नहीं होगा। भारत में विभिन्न स्थानों पर पानी में खारेपन की मात्रा प्रति लीटर पानी में 500 मिलीग्राम से लेकर 3000 मिलीग्राम तक है। ये समुद्री जल के खारेपन से हालांकि काफी कम है। क्योंकि समुद्र के प्रति लीटर पानी में लवण की मात्रा 35000 प्रति मिली लीटर होती है। लेकिन भारत के तटवर्ती इलाके के बहुत बड़े हिस्से में बिजली की पर्याप्त आपूर्ति नहीं है अथवा ज्यादातर मामलों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि वहां विलवणीकरण या डीसैलीनेशन के पारंपरिक रिवर्स ऑस्मोसिस संयंत्र लगाए जा सकें।
भारत के गांवों में पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए जमीन से निकलने वाले खारे पानी की समस्या का समाधान निकालना जरूरी है। बिजली की कोई व्यवस्था नहीं होने एवं अन्य संसाधनों का अभाव होने जैसी इन प्रतिकूल परिस्थितियों में आधुनिक विज्ञान मददगार साबित हो रहा है। शोधों के आधार पर सिद्ध हुआ है कि सौर ऊर्जा से चलने वाली विलवणीकरण की इलेक्ट्रोडायलिसिस तकनीक से भी पर्याप्त साफ और निर्मल पानी बनाया जा सकता है। महत्वपूर्ण बात है कि इनके माध्यम से दूरदराज के गांवों की जरूरत को पूरा किया जा सकता है। हालांकि सौर ऊर्जा पैनल पर काम करने वाली विलवणीकरण की इलेक्ट्रोडायलिसिस तकनीक / प्रक्रिया का प्रयोग विकासशील देशों में प्रायः कम देखने को मिलता है लेकिन यह प्रक्रिया कई अर्थों में हमारे देश के लिए बहुत लाभदायक है।
भारत में उपलब्ध पानी में नमक की कम मात्रा और दूरदराज के क्षेत्रों में बिजली की अनुपलब्धता को देखते हुए इलेक्ट्रोडायलिसिस उपयुक्त तकनीक है। हमारे देश में उपलब्ध खारा पानी सीधे तौर पर नुकसान तो नहीं करता, लेकिन लंबे समय में स्वास्थ्य पर इसका दुष्प्रभाव पड़ सकता है। यही कारण है कि सौर ऊर्जा की मदद से खारे जल के स्रोत से निर्मल और नमकीन स्वाद से मुक्त पानी प्राप्त करने के लिए बहुत से सरकारी और गैर-सरकारी संगठन विभिन्न तकनीक विकसित करने से संबंधित योजनाओं पर काफी पहले से कार्य कर रहे हैं। इन्हीं प्रयासों की बदौलत बेयरफुट कॉलेज ने कोरटी स्थित मंथन नामक एक छोटे से स्वयंसेवी संगठन ने वर्ष 2006 में भारत का पहला सौर ऊर्जा चालित विलवणीकरण संयंत्र लगाया।
खारे पानी के कारण खाना पकाने, कपड़े धोने आदि कार्यों में सामान्य रूप से लोगों को परेशानी आती है, साथ ही इसका स्वाद भी कई बार लोगों की अरूचि का कारण बनता है। इसलिए हर जगह पर आसानी से उपलब्ध सूरज के प्रकाश से ऊर्जा उत्पन्न करके पानी को साफ व स्वादयुक्त बनाना आसान हो गया है। सौर ऊर्जा से चलने वाले 2.5 किलोवॉट सौर जनरेटर की मदद से 1,000 से अधिक ग्रामीणों के लिए पीने का पानी उपलब्ध कराया जा सकता है। इसके लिए अत्यंत उच्च दबाव पर खारे पानी को एक पतली झिल्ली के माध्यम से गुजारा जाता है और रिवर्स ऑस्मोसिस प्रणाली के माध्यम से पीने योग्य पानी प्राप्त होता है। इस तकनीक से रोजना 3,600 लीटर पानी मिलता है तथा किसी भी बिजली ग्रिड पर आश्रित नहीं रहना पड़ता है।
शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययनों में यह भी पाया है कि सौर ऊर्जा से संचालित इलेक्ट्रोडायलिसिस संयंत्र के जरिए एक छोटे गांव के पीने के पानी की जरूरत को आसानी से पूरा किया जा सकता है नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के सौर ऊर्जा केंद्र के सहयोग से टाटा एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) ने सौर विलवणीकरण के एक लघु संयंत्र का डिजाइन तैयार किया। सौर ऊर्जा केंद्र में इसके प्रोटोटाइप की जांच की गई और इसे सफल पाया गया। एक समय में इस प्रणाली से एक गांव में 2000 से 5000 लोगों के लिए पेयजल की व्यवस्था बहुत आराम से की जा सकती है।
खारे पानी के विलवणीकरण के लिए हमारे देश में लगातार शोध किए जा रहे हैं। इसी वर्ष मई में आई एक खबर के अनुसार मुंबई स्थित भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बीएआरसी) के वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक विकसित की है। इसमें परमाणु रिएक्टर से निकलने वाले भाप की मदद से समुद्र के खारे पानी को पीने लायक साफ बनाया जा सकता है।
बीएआरसी के वैज्ञानिकों का दावा कि इससे प्रतिदिन करीब 63 लाख लीटर पानी साफ किया जा सकता है। और इसका पायलट प्लांट तमिलनाडु के कलपक्कम में लगाया गया है। इस तरह के कई प्रायोगिक प्लान्ट पंजाब, पश्चिम बंगाल व राजस्थान में भी लगाए गए हैं, इसके अलावा अनुसंधान केंद्र ने कई ऐसे मेंब्रेन विकसित किए हैं, जिसकी मदद से यूरेनियम व आर्सेनिक युक्त भूजल को भी साफ कर पीने लायक बनाया जा सकेगा।
आजकल जब पूरी पृथ्वी पर मानव उपयोग के लायक जल की भारी कमी हो रही है तो ऐसे में मल-जल या सीवेज के उपचार के द्वारा उपयोगी जल प्राप्त करने की तकनीक को और अधिक उन्नत किया जा रहा है। मलजल उपचार संयंत्र यानि सीवेज प्लांट के बारे में आपने अवश्य सुना होगा और बड़े शहरों में देखा भी होगा। गंगा, यमुना आदि नदियों के सफाई अभियान के तहत ऐसे संयंत्र हमारे देश की उन नदियों के किनारे बसे अधिकांश बड़े शहरों में लगाए भी गए हैं। इतना ही नहीं, कई शहरों में काफी पहले से सीवेज उपचार संयंत्रों द्वारा उपचारित पानी का उपयोग खेती के लिए और शहरी इलाकों में पार्क, बाग-बगीचों आदि की सिंचाई के लिए किया भी जा रहा है। लेकिन महत्वपूर्ण बात है कि दुनिया के कई देश सीवेज का उपचार करके इससे मानवीय उपयोग के लायक पानी भी उपलब्ध करा रहे हैं। स्पष्ट है कि इसके लिए अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसे शौचालय-से- नलका तकनीक का नाम दिया गया है। मलजल के उपचार से प्राप्त इस जल को मानवीय उपयोग के लायक बनाने के लिए अत्यधिक सूक्ष्म छिद्र वाले पॉलीमर झिल्लियों का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न संदूषकों, अशुद्धियों और हानिकारक जीवाणुओं की संभावना पूरी तरह से समाप्त करने के लिए पानी के शुद्धिकरण की इस प्रक्रिया के दौरान अतिसूक्ष्म निस्यंदन या अल्ट्रा- फिल्ट्रेशन तथा रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) तकनीक का इस्तेमाल भी किया जाता है। हालांकि यह एक सच्चाई है कि मलजल से प्राप्त जल की स्वीकार्यता को लेकर आरंभ में कई प्रकार की शंकाएं व्यक्त की गई, लेकिन दुनिया के अनेक हिस्सों में साफ जल की भारी कमी के कारण कई देश इस तकनीक को अपना रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण और निरापद तकनीक के प्रयोग से निर्मल जल उपलब्ध कराने के ऐसे एक कार्यक्रम को सिंगापुर द्वारा बड़े पैमाने पर चलाया जा रहा है। यहां कुछ देशों द्वारा पर्यावरण के अनुकूल और पाउडर के रूप में विकसित किए गए उपचारी एजेंट का उल्लेख करना भी प्रासंगिक होगा। मलजल को 24 घंटे के धारण समय ( रिटेंशन टाइम) तक रखने और इसके क्लोरीनीकरण के बाद इस एजेंट के प्रयोग से मलजल से निकलने वाली दुर्गंध को तुरन्त रोका जाता है।
इस उपचारी एजेंट के प्रयोग के द्वारा कृषि औद्यानिकी / बागवानी / गोल्फ कोर्स की सिंचाई और इस तरह के अन्य गैर-पीने योग्य अनुप्रयोगों के लिए सीवेज के पानी का पुनः उपयोग किया जा सकता है। अच्छी बात है कि सही प्रकार के पराबैंगनी उपचार के बाद इस जल का उपयोग पीने के लिए भी किया जा सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह तकनीक पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल है और प्रयुक्त एजेंट के चूर्ण या पाउडर के रूप में होने के कारण इस प्रक्रिया में यांत्रिक रूप से किसी वातन या वेंटिलेशन की कोई जरूरत नहीं है। चूंकि इसमें बिजली की बचत होती है इसलिए, ऊर्जा संरक्षण में सहायक होने के साथ-साथ बायोशुद्धीकरण की यह प्रक्रिया गैर खतरनाक, गैर विषैली और गैर संक्षारक भी है।
खारे पानी के उपचार से जहां स्वच्छ पेयजल प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान है, वहीं पर इसकी स्वीकार्यता भी अधिक है। दूसरी ओर, मल-जल या सीवेज के उपचार के द्वारा उपयोगी जल प्राप्त करने की तकनीक को और अधिक उन्नत बनाने के प्रयास भी लगातार किए जा रहे हैं। लेकिन आज दुनिया में जल की कमी जिस तेजी से त्रासदी का रूप ले रही है, वैसे में प्रदूषित जल और संदूषित जल की शुद्धीकरण का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। हमारे देश के कई हिस्सों में पीने के पानी में लोहे और आर्सेनिक की भारी मात्रा के कारण सामान्य जनता को जो पेयजल उपलब्ध नहीं है, वह कई बीमारियों को जन्म देता है।
यदि ऐसे प्रदूषित जल को शुद्धिकरण के माध्यम से जनता को उपलब्ध कराया जाए तो जल की कमी से ग्रस्त क्षेत्रों में पानी की कमी संबंधी समस्या दूर की जा सकती है।
हमारे देश के कई शोध संस्थानों ने ऐसे उपकरण और संयंत्रों का विकास किया है जिनके माध्यम से पानी में उपस्थित लोहे या आर्सेनिक की मात्रा को स्वीकार्य सीमा तक लाने के सफल प्रयोग किए गए हैं। उदाहरण के लिए सीएसआईआर-सीएमईआरआई, दुर्गापुर ने प्रभावकारी आर्सेनिक जल फिल्टर का विकास किया है। यह उन क्षेत्रों में अत्यंत सहायक है जहां पर भूजल में आर्सेनिक की भारी मात्रा पाई जाती है। आर्सेनिक को मानव जीवन के लिए बहुत खतरनाक माना गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि 500 मिलियन से भी अधिक लोग आर्सेनिक युक्त पानी में घुले जहर से बीमार पड़ते हैं। ऐसे में आर्सेनिक जल फिल्टर के आविष्कार से उत्तम जल पाना और स्वास्थ्य का संरक्षण ग्रामीण इलाकों में भी संभव हो पाया है।
यदि जल में उपस्थित लोहे की बात करें तो यह भी मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न करता है। जल से लीह के अपनयन/ निष्कासन के लिए संयंत्रों की स्थापना से पानी में उपस्थित लोहे की मात्रा को स्वीकार्य सीमा तक लाया गया है। इस संयंत्र में स्थानीय रूप से उपलब्ध रेत और बजरी का इस्तेमाल होता है और किसी भी बिजली आपूर्ति की जरूरत नहीं पड़ती। इन वजहों से सुदूर ग्रामीण इलाकों के लिए यह संयंत्र बहुत लाभदायक सिद्ध हो रहा है। विशेष बात यह है कि ऐसा एक संयंत्र पूरे गांव की पानी की जरूरत को पूरा कर सकता है और यह बहुत सस्ता भी है। इस संशोधित संयंत्र से जल में उपस्थित लोहे की भारी मात्रा से उत्पन्न होने वाली बीमारियों से बचना संभव हो पाएगा।
दुनिया की बढ़ती आबादी के कारण जल की बढ़ती मांग तथा भारत के कई हिस्सों में वर्षा के अभाव ने यदि परिस्थितियों को प्रतिकूल बनाया है तो दूसरी ओर, जल के संरक्षण के लिए सरकार की ओर से कुछ सकारात्मक पहल की गई हैं। बेकार जल को पुनः उपयोग लायक बना कर इसके उपयोग को बढ़ावा देने के लिए भारतीय रेल ने कई योजनाएं बनाई हैं। इसके अनुसार भारतीय रेल निजी उद्यमियों से अपशिष्ट उपचारित जल खरीदकर न केवल रेलवे स्टेशनों पर बल्कि संबद्ध अस्पतालों, कालोनी, कारखानों आदि में इसका व्यापक उपयोग सुनिश्चित करेगी। इस प्रकार, जल का सदुपयोग बढ़ाने के लिए 'राष्ट्रीय रेल जल प्रबंधन निधि' बनाने का निर्णय भी लिया गया है।
भारतीय रेल ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के सहयोग से अपने पूरे तंत्र में पानी के उपयोग में 20% कटौती करने की योजना भी बनाई है।
इसी को मूर्त रूप देने के लिए, पीने का पानी छोड़ कर बाकी सभी कामों के लिए उपचार संयंत्रों से प्राप्त उपचारित जल का प्रयोग किया जाएगा। अब तक भारतीय रेल राज्य सरकारों से जरूरत का पानी खरीदता था लेकिन निजी क्षेत्रों से क्रय उपचारित जल के प्रयोग से रेल मंत्रालय को 400 करोड़ रुपये सालाना की बचत हो सकेगी। इसके लिए निजी क्षेत्र के भागीदारों को जल उपचार संयंत्रों की स्थापना के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। इससे जल का संरक्षण होगा और उपचारित पुनः चक्रित जल का व्यापक उपयोग बढ़ाना संभव हो सकेगा।
वर्तमान युग पर्यावरणीय चेतना और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का युग है। इसलिए, पानी की हर बूंद के उपयोग हेतु वैज्ञानिक समाज द्वारा अपनाए जाने वाले जल के बायोशुद्धीकरण / पुनः चक्रीकरण और पुनःप्राप्ति की तकनीकी प्रक्रियाओं का व्यापक रूप से समर्थन एवं स्वागत आवश्यक हो जाता है। जल की भारी कमी से जूझ रहे देशों में जल संबंधी अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं तथा शोध कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। स्पष्ट है कि वर्तमान परिस्थितियों में उपलब्ध जल चाहे वह अनुपयोगी हो, प्रदूषित हो, खारा हो, अपशिष्ट हो या फिर मलजल ही क्यों न हो, इसे पुनः उपयोग लायक बना कर इसका सदुपयोग आवश्यक हो जाता है क्योंकि जल की हर बूंद अनमोल है।
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संजय चौधरी एवं डॉ. नित्यानन्द चौधरी, जे. एंड के.-16 बी,दिलशाद गार्डन,
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ईमेल : sanjayerri2007@rediffmail.com
स्रोत : जल चेतना, खण्ड 8, अंक 1 जनवरी 2019
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