टूटते तटबंध

हमें इस बात पर आश्चर्य और दुःख दोनों है कि इस तालिका-13.1 में बाढ़ की दृष्टि से देश की सबसे महत्वपूर्ण नहीं कोसी के टूटे हुए तटबंधों का कोई जिक्र नहीं है। जल-संसाधन विभाग शायद यह बताने से डरता है कि एक बार कुसहा की दरार की घटनाओं का जिक्र उसने अपनी रिपोर्ट में कर दिया तो भानुमती का ऐसा पिटारा खुलेगा कि उससे उठे सवालों का जवाब देते-देते उसकी नाक में दम हो जायेगा। कुसहा से पहले की कोसी तटबंधों में दरार की घटना का जिक्र दूसरी जगह है इसलिए हम उसके विस्तार में यहाँ नहीं जायेंगे। हमें आश्चर्य और दुःख इस बात का भी है कि तकनीकी समिति ने तटबंधों के टूटने की जानकारी लेने के लिए बिहार राज्य द्वितीय सिंचाई आयोग के पन्नों को क्यों नहीं पलटा और क्यों नहीं जल-संसाधन विभाग की वार्षिक रिपोर्टें खंगाली? यह दोनों दस्तावेज आम आदमी के लिए भी उपलब्ध है और अगर इनके बारे में तकनीकी समिति को पता नहीं था तो उनकी नीयत और कार्य क्षमता दोनों पर सन्देह पैदा होता है।

तटबंधों का टूटते रहना तटबंध निर्माण की तकनीक का अविभाज्य अंग है। 1963 में कोसी का पश्चिमी तटबंध नेपाल में डलवा गाँव के पास टूट गया था। जब इस दरार को पाट दिया गया तब पश्चिमी तटबंध पर नदी के हमले डलवा से थोड़ा नीचे भारत-नेपाल सीमा पर कुनौली के पास शुरू हो गए। यहाँ कोई दुर्घटना नहीं हुई और परेशानी भी बहुत ज्यादा नहीं हुई। कुनौली भारत में अवस्थित है। इस तरह नेपाल प्रकरण से सरकार बची हुई थी। खर्च और दरार पड़ने का दबाव जरूर अपनी जगह पर था। सांसद एस. एम. बनर्जी के दरार से बचाव संबंधी एक प्रश्न के जवाब में, लोकसभा में तत्कालीन केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डॉ. के.एल. राव ने 12 जुलाई 1967 को एक बयान दिया था, ‘‘...नदी के सम्बंध में कोई भी यह नहीं कह सकता कि दरार पड़ेगी या नहीं। कोसी के बारे में यह बात खास कर कही जा सकती है क्योंकि कोसी हमेशा पश्चिम की ओर खिसकती रही है। कोसी की इस विशिष्टता के कारण ही हमें कोसी परियोजना को हाथ में लेना पड़ा है जिसकी वजह से नदी पर लगाम कसी जा सकी और यह पिछले दस वर्षों से एक जगह बनी हुई है वरना यह दरभंगा जिले में झंझारपुर तक पहुँच गयी होती।’’ यह बयान उन्हीं डॉ. के. एल. राव का है जिन्होंने चीन की ह्वांगहो घाटी की यात्रा के बाद तटबंधों की पूरी बहस का रुख मोड़ दिया था और वह उस समय चाहते थे कि कोसी पर तटबंधों का निर्माण बराज के निर्माण से पहले ही कर लिया जाय। उन्होंने 1967 में जो बात कही, वही बात अगर 1954 में कही होती तो कोसी पर तटबंधों की योजना कब की कूड़ेदान में फेंक दी गयी होती। सवाल इस बात का उठता है कि तटबंधों में कितनी दरारें पड़ें कि सरकार को लगे कि इन घटनाओं का संज्ञान लेना चाहिये। यहाँ हम तालिका-13.1 में 1987 से लेकर 2009 तक बिहार की नदियों के किनारे बने विभिन्न तटबंधों में पड़ी दरारों की एक सूची दे रहे हैं जिसे जल-संसाधन विभाग ने 2009-10 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में जारी किया है। यह सूचना कितनी भरोसेमंद है उस पर हम पहले भी थोड़ी चर्चा कर आये हैं फिर भी आधिकारिक रिपोर्ट होने के कारण इसे सही मानना सबकी विवशता है।

इस तालिका का अध्ययन करने पर यह बात साफ हो जाती है कि तटबंधों की टूटन के बारे में सूचना देने में राज्य के जल-संसाधन विभाग की नीयत कितनी साफ है वह इसी बात से जाहिर हो जाता है कि 2008 की कोसी एफ्लक्स बांध में कुसहा में पड़ी दरार को उसने ‘अन्य’ के खाते में डाल दिया है। हम यहाँ याद दिला दें कि इस दुर्घटना में बिहार के पाँच जिलों के 35 प्रखंडों के 993 गाँवों में कोसी की बाढ़ का पानी फैला था जिसकी वजह से 3.68 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूब गयी थी। कोई 2,22,754 घर इस एक घटना में धराशायी हो गए थे जिसकी पूर्णाहुति 527 व्यक्तियों तथा 19,323 जानवरों की जल-समाधि से हुई थी। इस घटना को छिपाने या हल्का कर के प्रस्तुत करने में मुमकिन है कि व्यवस्था इस बात पर परदा डालना चाहती हो कि राज्य के जल-संसाधन मंत्री, आपदा प्रबंधन मंत्री और आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव का घर इसी क्षेत्र में पड़ता था। बिहार की यह अकेली बाढ़ थी जिसे प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय आपदा घोषित की थी। (तालिका – 13.1 देखने के लिए पी.डी.एफ फाइल देखें)

इस तालिका में 1991 में कोसी तटबंध के जोगिनियाँ कटाव का भी जिक्र नहीं है और न ही 1987 में कोसी के पश्चिमी तटबंध की गंडौल और समानी में पड़ी दरार का जिक्र है। यह मुमकिन है कि इन घटनाओं को ‘अन्य’ खाते में डाल कर सरकार इसे असामाजिक तत्वों का काम बताना चाहती है और खुद को पाक दामन बताना चाहती हो। इस तालिका में 1993 में कमला तटबंध में सोहराय के पास पड़ी दरार का जिक्र नहीं है और न ही 1994 में नवटोल, बलभद्रपुर, नरुआर और बौर में 4 स्थानों पर पड़ी दरारों को गिनाया गया है। 1995 में कमला का पूर्वी तटबंध बेलही, निर्मला (2 स्थानों पर), खैरी (बलिया), खैरी (परसाद) और फैटकी (परसाद)-कुल मिलाकर 6 स्थानों पर टूटा/काटा गया था। जल-संसाधन विभाग द्वारा तालिका-13.1 में सीधे-सीधे शब्दों में गुमराह करने वाली है और इसको तैयार करने वालों पर अनुशासनिक कार्यवाही होनी चाहिये। इसके अलावा 1993 में बागमती नदी के बसबिट्टा से लेकर रुन्नी सैदपुर तक जो 14 दरारें पड़ी थीं, उसको विभाग साफ तरीके से हजम कर गया। इस रहस्य की खोज की जानी चाहिये कि विभाग ने मांगने पर भी तटबंधों के टूटने की घटनाओं की सूची नीलेन्दु सान्याल समिति को क्यों नहीं दी।

हमने बागमती तटबंधों की टूटन/दरार की घटनाओं का विभिन्न श्रोतों से संकलन किया है जिसमें अधिकांश श्रोत सरकारी हैं और इसे आगे तालिका-13.2 में दिया गया है। यह मुमकिन है कि इसमें तटबंध टूटने की सारी घटनाओं का हवाला न आ पाया हो पर जो भी सूचना उपलब्ध है उसे श्रोत के साथ दिया गया है।

इस तालिका में हम करेह (बागमती) के हायाघाट से बदलाघाट के बीच तटबंधों का वास्ता नहीं दे पाये हैं क्योंकि उस लम्बाई में तटबंध प्रायः हर साल और बेभाव टूटते हैं। तालिका-13.1 में जल संसाधन विभाग ने इन दरारों की संख्या तो बतायी है पर उनका स्थान बताने से परहेज किया है। अपने सन्देहों के साथ इस सूचना को स्वीकार ही कर लेना पड़ेगा। हमें इस बात पर आश्चर्य और दुःख दोनों है कि इस तालिका-13.1 में बाढ़ की दृष्टि से देश की सबसे महत्वपूर्ण नहीं कोसी के टूटे हुए तटबंधों का कोई जिक्र नहीं है। जल-संसाधन विभाग शायद यह बताने से डरता है कि एक बार कुसहा की दरार की घटनाओं का जिक्र उसने अपनी रिपोर्ट में कर दिया तो भानुमती का ऐसा पिटारा खुलेगा कि उससे उठे सवालों का जवाब देते-देते उसकी नाक में दम हो जायेगा। कुसहा से पहले की कोसी तटबंधों में दरार की घटना का जिक्र दूसरी जगह है इसलिए हम उसके विस्तार में यहाँ नहीं जायेंगे। हमें आश्चर्य और दुःख इस बात का भी है कि तकनीकी समिति ने तटबंधों के टूटने की जानकारी लेने के लिए बिहार राज्य द्वितीय सिंचाई आयोग के पन्नों को क्यों नहीं पलटा और क्यों नहीं जल-संसाधन विभाग की वार्षिक रिपोर्टें खंगाली? यह दोनों दस्तावेज आम आदमी के लिए भी उपलब्ध है और अगर इनके बारे में तकनीकी समिति को पता नहीं था तो उनकी नीयत और कार्य क्षमता दोनों पर सन्देह पैदा होता है।

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Post By: tridmin
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