तटबंधों के अंदर रहने वालों की सुरक्षा

हम पं. जवाहर लाल नेहरू के उस वक्तव्य से अपनी बात समाप्त करना चाहेंगे जो उन्होंने 1952 में भारत सेवक समाज की स्थापना के समय दिया था। उन्होंने कहा था, ...कुछ हद तक हम अपने सारे संसाधनों का अनुमान लगा सकते हैं। परन्तु अपने सबसे महत्वपूर्ण संसाधन, मानवीय शक्ति तथा उसको महान उद्देश्यों की ओर प्रेरित करने वाले दर्शन का अनुमान करना मुश्किल है। जब तक हम इन विशाल मानवीय संसाधनों का उपयोग न करें और उनमें वह जोश पैदा न करें जो कि कठिनाइयों को देख कर मुस्कराये तब तक हमें कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं मिलेगी।

एक बार यह मान लिया जाए कि तटबंध अब हकीकत हैं और उन्हें निरस्त नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में क्या विज्ञान बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए आगे आ सकता है? शायद हाँ। तटबंध अगर हकीकत है तो उसके साथ-साथ यह भी सच है कि नदियों के तटबंधों के बीच लोग रहते हैं और वह इसलिए कि बड़े बांधों के विस्थापितों से इतर इन लोगों को अपनी जीविका चलाने के लिए खेती की जमीन नहीं दी गयी थी। इन विस्थापितों से यह उम्मीद की गयी थी कि वह पुनर्वास में रहते हुए खेती अपनी पुश्तैनी जमीन पर तटबंध के अंदर करेंगे। यहाँ बता देना जरूरी है कि बिहार में कोसी तटबंधों के बीच भारत के 380 और नेपाल के 34 गाँव हैं जिनकी कुल आबादी लगभग 12 लाख के करीब होगी। इसी तरह महानन्दा तटबंधों के बीच 66 तथा कमला तटबंधों के बीच 102 गाँवों की जमीन पड़ती है। बागमती तटबंधों के बीच 95 गाँवों का विस्तृत विवरण इस पुस्तक में अन्यत्र दिया हुआ है। गंडक और बूढ़ी गंडक तटबंधों के बीच फंसे गाँवों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।

परिस्थिति-1 तटबंधों पर आशियाना बनाना- बरसात के मौसम में जब नदी अपने पूरे शबाब पर होती है तो इन लोगों को अक्सर अपना घर-द्वार छोड़ कर किसी सुरक्षित स्थान की तलाश करनी पड़ती है और जब चारों ओर पानी भरा हो तब नदी का तटबंध ही वह जगह बचती है जहाँ लोग शरण ले सकें। एसे लोगों का कम से कम तीन से चार महीने हर साल तटबंधों पर ही बीतता है। इनमें से कुछ परिवारों को तो तटबंध का ही आसरा बचा है और वह यहाँ स्थायी तौर पर रहते हैं। तटबंधों पर इतने ज्यादा लोगों की रिहाइश की वजह से गाड़ियों की आवा-जाही और तटबंधों के रख-रखाव में बाधा पड़ती है। सरकार ऐसे लोगों को तटबंधों से हटाने का उपक्रम करती है और यदि सरकार के दबाव से हार कर यह लोग किसी तीसरी जगह चले जाते हैं तो यह जाना पुनः वापस आने के लिए ही होता है।

परिस्थिति-2 तटबंधों के अंदर बसे गाँवों के बाढ़ के पानी में घिरने के क्रम का निर्धारण- तटबंधों के अंदर बसे गाँवों को नदी की बाढ़ के तल के संदर्भ में चित्र 13.2 में दिखाया गया है। राज्य का जल-संसाधन विभाग और केन्द्रीय जल-आयोग तटबंधों के अंदर नदी के प्रवाह और बाढ़ के लेवेल का लेखा-जोखा रखते हैं। अगर हमें अंदर के गाँवों और बढ़ती बाढ़ के लेवेल का पता रहे तब यह बात बड़ी आसानी से बतायी जा सकती है कि किस गांव पर कब खतरा आने वाला है वापसी का क्रम भी इसी आधार पर तैयार किया जा सकता है।

परिस्थिति-3 तटबंध टूट जाए और तटबंध के अंदर एकाएक पानी उतर जाये- तटबंधों के अंदर बरसात के मौसम में तमाम दिक्कतों के बावजूद एक चीज जरूर अच्छी हो जाती है कि नावें हर तरफ जा सकती हैं और उस समय वहाँ परिवहन व्यवस्था सुधरी हुई रहती है। तटबंध टूटने की स्थिति में बाढ़ का पानी एकाएक उतर जाता है और जो जहाँ है वहीं ठहर जाता है। यातायात प्रायः ठप्प पड़ जाता है। नावें अपनी जगह फंस जाती हैं और आदमियों तथा जानवरों को कीचड़ से होकर ही कहीं जाना पड़ता है। कभी-कभी कीचड़ की गहराई का अंदाजा भी नहीं लगता। गंदे परिवेश में आवा-जाही करने की वजह से एक ओर बीमारियाँ फैलती हैं तो दूसरी ओर नावों के न चल पाने और सड़कों/ पगडंडियों के डूबे रहने या टूट जाने से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बंद हो जाती है। इस स्थिति से समय रहते निपटने की तैयारी कर लेनी चाहिये। दुर्भाग्यवश होता यह है कि एक बार कहीं तटबंध टूट जाए तो आम धारणा यही बनती है कि अंदर वालों को आराम हो गया। सच यह है कि संपर्क मार्ग चालू होने तक तो उनकी मुसीबतें अपनी जगह बनी ही रहती हैं, नदी का तेजी से उतरता पानी ज्यादा कटाव करता है जिसकी वजह से खेत कटते हैं और घरों को लिए-दिए बैठ जाने की घटनाओं में वृद्धि होती है। सब कुछ ठीक हो जाने के बाद नदी का सूख जाना, पानी की किल्लत और रेत भरी आंधी उनका पीछा नहीं छोड़ती। इन घटनाओं का संज्ञान कोई भी नहीं लेता जिस पर समाज और सरकार का ध्यान जाना चाहिये।

हेमपुर के पासकोसी के पूर्वी तटबंध में पड़ी दरार के कारण पानी का फैलावहेमपुर के पासकोसी के पूर्वी तटबंध में पड़ी दरार के कारण पानी का फैलावपरिस्थिति-4 तटबंध का टूटना और क्रमिक रूप से सुरक्षित क्षेत्र के गाँवों का डूबना- तटबंधों का टूटते रहना तटबंध निर्माण तकनीक का अविभाज्य अंग है। इन घटनाओं का रिकार्ड रखा जाना चाहिए कि अमुक स्थान पर अमुक डिस्चार्ज और पानी के अमुक लेवेल पर तटबंध टूटने के बाद पानी कहाँ-कहाँ, कितनी गहराई का और कितनी और वहाँ के बाशिंदों को अगर सुरक्षित स्थान पर ले जाना पड़े तो वह स्थान कहाँ होगा, यह पहले से निर्धारित किया जा सकता है। अगर ऐसे लोगों के लिए बाढ़ शरणालय बनाना पड़े तो उस स्थान का निर्धारण, वहाँ पहुँचने का जरिया, वहाँ कितने लोगों के लिए और कितने दिनों के लिए भोजन, पानी, औषधि, शौचालय, पशु-चारा आदि की व्यवस्था करनी पड़ेगी यह पहले से तय किया जा सकता है। बाढ़ पीड़ितों की देर में पहुँचेगा। चित्र-13.3 में हम 1984 में नवहट्टा में जो कोसी का तटबंध टूटा था उसके डूब क्षेत्र का विवरण दे रहे हैं। जल-संसाधन विभाग के पास इस बात के रिकोर्ड जरूर होंगे कि बाढ़ के पानी को फैलने में कितना समय लगा और वह कितनी गहराई में विभिन्न जगहों तक पहुँचा। यदि यह सूचना उपलब्ध हो तो कम्प्यूटर की मदद से इस बात का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि किसी भी बाढ़ से सुरक्षित गाँव में बाढ़ का पानी पहुँचने में कितनी देर लगेगी और वहाँ पानी की गहराई बढ़ने का क्या क्रम होगा? इसके लिए जरूरी होगा कि इस तरह की गणना तटबंध की पूरी लम्बाई में 2-2.5 किलोमीटर के अन्तराल पर की जाए। तटबंधों में पहले पड़ी दरारों के पिछले अनुभवों से यह काम काफी विश्वसनीय तरीके से किया जा सकता है।

अगर इस तरह की सूचना उपलब्ध हो तो बचाव और राहत कार्यों तथा आवश्यक राहत सामग्री पहुँचाने में योजनाबद्ध तरीके से काम किया जा सकता है। यहाँ हम केवल इस प्रस्ताव का एक बुनियादी खाका ही दे सके हैं मगर गणना करते समय स्थानीय धाराओं, दूसरे तटबंध, सड़कें, नहरें और रेल लाइनों तथा बस्तियों आदि का संज्ञान लेना पड़ेगा और उनके अनुरूप आवश्यक सुधार करने पड़ेंगे।

13.18 जल-संसाधन और आपदा प्रबंधन विभाग काविलय


बिहार की प्राकृतिक आपदायें मुख्यतः पानी के इर्द गिर्द घूमती हैं। बारिश की थोड़ी सी कमी से यहाँ सूखा पड़ता है तो हल्की सी ज्यादा बारिश बाढ़ लेकर आ जाती है। इन दोनों ‘विपत्तियों’ का मुकाबला आपदा प्रबंधन विभाग को करना पड़ता है और जन-संसाधन विभाग द्वारा किये या न किये गए कामों का उसे फल भोगना पड़ता है। इन दोनों विभागों में, जहाँ तक हमारी जानकारी है, कोई ताल-मेल नहीं है। व्यावहारिक तौर पर जल-संसाधन विभाग, आपदा प्रबंधन विभाग के लिए काम का जुगाड़ करता है जिसकी उसे पहले से कोई जानकारी नहीं होती। अब जल जनित ‘विपत्ति’ का सारा दायित्व आपदा प्रबंधन विभाग पर आ जाता है। अच्छा यह होता कि इन दोनों विभागों को एक ही मंत्रालय के अधीन कर दिया जाए ताकि आपदा प्रबंधन विभाग को कम-से-कम यह पता तो रहेगा कि उसका सहयोगी उसके लिए क्या-क्या मुसीबतें पैदा करने वाला है।

13.19 बाढ़ों के साथ जीवन निर्वाह


परम्परागत रूप से बाढ़ क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के पास जल-संस्कृति का एक समृद्ध अनुभव होता है। इसमें भोजन संचय, ईंधन की व्यवस्था, चारे की रक्षा, सुरक्षित स्थान का निर्धारण, आवगमन की व्यवस्था, पीने के पानी का इंतजाम, आवश्यक पारम्परिक औषधियाँ तथा कृषि प्रणाली आदि का विशिष्ट स्थान होता है। जरूरत इस बात की है कि इंजीनियर/वैज्ञानिक इन चीजों का अध्ययन करके उसे आधुनिक विज्ञान की मदद से सजाने-संवारने का काम करें। हम यहाँ इनके विस्तार में नहीं जायेंगे क्योंकि इस विषय पर साहित्य अन्यत्र उपलब्ध है पर इतना जरूर कहना चाहेंगे कि आम ग्रामीण और विशेषज्ञों के बीच संवादहीनता की खाई को पाटे बिना यह काम नहीं हो सकता। फिलहाल स्थिति यह है कि वैज्ञानिक/इंजीनियर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को हीन दृष्टि से देखते हैं और उन्हें ले मैन कह कर संबोधित करते हैं। जवाब में ग्रामीण लोग भी इन विशेषज्ञों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और उनकी नीयत पर शक करते हैं।

हम पं. जवाहर लाल नेहरू के उस वक्तव्य से अपनी बात समाप्त करना चाहेंगे जो उन्होंने 1952 में भारत सेवक समाज की स्थापना के समय दिया था। उन्होंने कहा था, ‘‘...कुछ हद तक हम अपने सारे संसाधनों का अनुमान लगा सकते हैं। परन्तु अपने सबसे महत्वपूर्ण संसाधन, मानवीय शक्ति तथा उसको महान उद्देश्यों की ओर प्रेरित करने वाले दर्शन का अनुमान करना मुश्किल है। जब तक हम इन विशाल मानवीय संसाधनों का उपयोग न करें और उनमें वह जोश पैदा न करें जो कि कठिनाइयों को देख कर मुस्कराये तब तक हमें कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं मिलेगी। ...इसलिए हमको अपने लोगों की ओर मुड़ना होगा, उनके पास जाकर उनसे वार्तालाप करना होगा और उनके साथ काम करना होगा। समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हमें मित्र और सहयोगी की तरह काम करना होगा। हो सकता है कि हमें उनको कुछ सिखाना पड़े पर हमें उनसे भी बहुत कुछ सीखना है। अतः हमें उनके पास अपने ज्ञान के अभिमान के साथ नहीं बल्कि पूरी विनम्रता के साथ इस तीव्र आकांक्षा को लेकर जाना होगा कि हम अपने पारस्परिक श्रम से जड़ता के पहाड़ों को झकझोरें और उन्हें तोड़ दें।” क्या हम लोग उनसे भी कुछ सीखेंगे जिनके पास इन परिस्थितियों में जीने का, सदियों का अनुभव है और क्या हम अपनी नदियों के साथ मित्र भाव से पेश आयेंगे? एक तरफ तकनीकी क्षमता का अहंकार जिसमें भौगोलिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों की अनदेखी और अकर्मण्यता की चाशनी मिली हुई है और दूसरी तरफ अपनी समस्या, अपनी धरती, अपने संसाधन, अपने अनुभव, अपनी परम्परा और इन सब के अनुरूप अपने विज्ञान के विकास और उपयोग का रास्ता है। समाज और देश के हित में हम किस रास्ते पर चलते हैं, यह निर्णय हमको-आपको करना पड़ेगा।

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Post By: tridmin
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