तटबंध में दरारें-पैंतरे एवं बहानेबाजी

13.9.1 चूहा सिद्धांत –


अमेरिका में मिसिसिपी नदी में 1912 में एक बार भयंकर बाढ़ आयी थी और उस नदी पर बने तटबंध पूरी तरह से तहस-नहस हो गए थे। वहाँ की बाढ़ की स्थिति पर लिखी गयी एक रिपोर्ट के अनुसार उस साल मिसिसिपी नदी का पानी तटबंधों के ऊपर होकर बहुत ही जगहों पर बह गया जिसकी वजह से उनमें 300 जगहों पर दरारें पड़ गईं। 1640 किलोमीटर लंबे तटबंधों में से 96 किलोमीटर लम्बाई में तो तटबंध एक दम साफ हो गए थे। सन् 1882 के बाद मिसिसिपी घाटी में कई बार भीषण बाढ़ें आईं जो तटबंधों के बावजूद और उनके कारण आयी थीं। उनमें से 1897 और 1903 की बाढ़ को विशेष रूप से वहाँ याद किया जाता है। इसी तरह 1927 में मिसिसिपी घाटी में आयी बाढ़ में 51,200 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र घिर गया था और कुल सम्पत्ति का नुकसान 20 करोड़ से लेकर 100 करोड़ डॉलर तक होने का अनुमान किया गया था। इस बाढ़ में 7,50,000 लोग बेघर हो गए थे और उनमें से 6 लाख लोगों को रेड क्रॉस से मिलने वाली राहत सामग्री पर महीनों गुजारने पड़ गए थे। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे समृद्ध देश का वैभव और शक्ति लोगों की तकलीफों के सामने बौनी पड़ गयी।’’ (तालिका - 13.2 देखने के लिए पी.डी.एफ फाईल देखें)

1927 की मिसिसिपी नदी की बाढ़ की समीक्षा अमेरिका के इंजीनियरों के संगठन अमेरिकन सोसायटी ऑफ सिविल इंजीनियर्स ने 1928 में की। इस गोष्ठी में यह बात आयी कि तटबंधों के टूटने का एक महत्वपूर्ण कारण तटबंधों में चूहों, छछून्दरों और लोमड़ियों द्वारा बिल बनाना है जिनमें बाढ़ का पानी जब घुसता है तो वह अपने दबाव के कारण तटबंधों को ध्वस्त कर देता है। अमरीकी सेना के एक अवकाशप्राप्त कर्नल टाउनसेंड का कहना था, ‘‘...जमीन में बिल बनाने वाले यह जानवर अच्छे से अच्छे तरीके से बनाये गए तटबंधों में छेद कर सकते हैं जिन्हें अगर तुरंत बंद न कर दिया जाए तो तबाही मच सकती है।’’ टाउनसेंड का आगे कहना था कि मजबूत से मजबूत तटबंधों की भी सुरक्षा चूहों, छछून्दरों, लोमड़ियों, अंधेरी रात और लापरवाह सुपरवाइजर की मेहरबानी पर ही निर्भर करती है। इस बात का दूसरा पहलू यह है कि किसी भी तटबंध के टूटने की जिम्मेवारी इन निरीह जानवरों या सुपरवाइजर पर डाली जा सकती है और सम्बद्ध अधिकारी इस तर्क का फायदा उठाने में कभी नहीं चूकते।

बाढ़ की समस्या को बढ़ाने में चूहों, छछूंदरों, खरगोशों और लोमड़ियों के योगदान को कम करके नहीं आंका जा सकता क्योंकि जब अमेरिका जैसे सम्पन्न और सुव्यवस्थित देश में चूहे वहाँ की तकनीकी क्षमता पर भारी पड़ते हैं तो फिर भारत जैसे गरीब और दुर्व्यवस्था से ग्रस्त देश में उनका उपद्रव कितना भयंकर होता होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। तटबंधों की समस्या और जनाक्रोश से निबटने के लिए जल-संसाधन विभाग और सरकार किस तरह से चूहों का उपयोग अपने हक में कर लेती है, इसके कुछ बड़े ही दिलचस्प उदाहरण देखने को मिलते हैं।

‘‘...कोसी में जो बाढ़ आयी थी उसकी एक नई थ्योरी बतायी गयी कि चूहों ने सूराख कर दिये थे। मेरा कहना है कि चूहों के सूराख नहीं थे बल्कि सरकार की लापरवाही थी। छोटे-मोटे चूहों को अर्थात ओवरसीयर्स वगैरह को तो सरकार ने सस्पेंड कर दिया लेकिन जो मोटे चूहे थे, जो बड़े-बड़े अधिकारी हैं, जो वाकई में पैसा खाते हैं, उनके खिलाफ कोई एक्शन अभी तक नहीं लिया गया।’’

यूँ तो तटबंधों का टूटना और उसके लिए चूहों को जिम्मेवार ठहराने का काम बूढ़ी गंडक पर पूसा के पास लदौरा गाँव (जिला समस्तीपुर) में 1956 में ही शुरू हो गया था और शुरू-शुरू में लोगों ने सिंचाई विभाग द्वारा अपने बचाव के इस रास्ते पर कोई ध्यान नहीं दिया मगर जब यह रोजमर्रा की घटना होने लगी तब लोगों के कान खड़े हुए कि कहीं न कहीं कोई गड़बड़ जरूर है। फिर इसके खिलाफ आवाजें उठने लगीं। 1963 में विधान सभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर बहस चल रही थी। उस समय भी तटबंधों में दरार के कारण के रूप में चूहों को याद किया गया था। इस पर भोला प्रसाद सिंह की प्रतिक्रिया थी, ‘‘...बांध क्यों टूटता है? सरकार कह सकती है कि चूहों के बिल के कारण टूटता है, मैं कहता हूँ कि जब आप चूहों के बिल को नहीं बंद कर सकते हैं तो आप क्या कर सकते हैं? अगर चूहों के बिल को नहीं बंद कर सकते हैं तो आपको चूहे के बिल में ही चले जाना चाहिये।’’ उसी साल एक बार फिर बाढ़ के मौसम में बूढ़ी गंडक का पूसा-बछौली तटबंध लदौरा गाँव में ही टूटा। सरकार की तरफ से बिहार विधान सभा में डूमरलाल बैठा ने बयान दिया, ‘‘...उक्त स्थान पर बांध का टूटना एक अप्रत्याशित घटना थी क्योंकि बांध काफी मजबूत बना था और स्पेसिफिकेशन के मुताबिक था। बाढ़ के पानी का दबाव वहाँ ज्यादा नहीं था। उस स्थान का निरीक्षण करने के बाद उच्च पदाधिकारी इस निर्णय पर पहुँचे कि यह घटना चूहों द्वारा किये गए छिद्रों के कारण हुई थी। बांध के टूटने के कारण लदौरा ग्राम के आस-पास टट्टी की बनी झोपड़ियों के चारों तरफ पानी जमा हो गया था जिससे उसमें रहने वाले लोग अपना सभी सामान लेकर तटबंध के ऊपर चले गए थे और करीब एक सप्ताह में पानी कम होने पर वे लोग अपने-अपने घरों में लौट आये।’’

उसी तरह, 1968 में कोसी नदी का पश्चिमी तटबंध अक्टूबर 1968 में जमालपुर के पास दरभंगा में पांच स्थानों पर टूट गया। उस समय राज्य में राष्ट्रपति शासन था और बहस की केन्द्र बिन्दु बिहार विधान सभा न होकर लोकसभा थी।

लोकसभा में जब इस तटबंध के टूटने के कारणों पर बहस हुई तो उसमें कामेश्वर सिंह का कहना था, ‘‘...कोसी में जो बाढ़ आयी थी उसकी एक नई थ्योरी बतायी गयी कि चूहों ने सूराख कर दिये थे। मेरा कहना है कि चूहों के सूराख नहीं थे बल्कि सरकार की लापरवाही थी। छोटे-मोटे चूहों को अर्थात ओवरसीयर्स वगैरह को तो सरकार ने सस्पेंड कर दिया लेकिन जो मोटे चूहे थे, जो बड़े-बड़े अधिकारी हैं, जो वाकई में पैसा खाते हैं, उनके खिलाफ कोई एक्शन अभी तक नहीं लिया गया।’’

तटबंध टूटने के चूहा थ्योरी पर बैद्यनाथ मेहता को विश्वास नहीं था। वह इसे लीपा-पोती का जरिया और किसी भी प्रकार की जिम्मेवारी से बच निकलने का रास्ता भर मानते थे। उन्होंने बिहार विधान सभा में यह प्रश्न एक बार उठाया था। उनका कहना था, ‘‘...आखिर यह ब्रीचेज क्यों होते हैं? इंजीनियर इसको देखते हैं, पूना रिसर्च इंस्टीच्यूट का एप्रूवल होता है, वाटरवेज का एप्रूवल होता है, बड़े-बड़े विशेषज्ञों की राय से बनाये जाते हैं, तो भी ऐसा क्यों होता है? एक ही कारण मैं समझता हूँ और वह यह है कि ऐडमिनिस्ट्रेटिव लैप्सेज इसमें रहते हैं। अफसरों को भय नहीं रहता है कि अगर हमारी नेग्लिजेन्स की वजह से नेशनल कैलेमिटी होती है तो इसकी जिम्मेवारी उन पर होगी।’’

सीतामढ़ी के समाजकर्मी नागेन्द्र प्रसाद सिंह का कहना है, ‘‘...2007 में एक बार मुख्यमंत्री के यहाँ सरकार के अफसरों, नेताओं तथा कुछ समाजकर्मियों की मीटिंग हो रही थी। मुझसे बाढ़ का हाल चाल पूछा गया। मैंने कहा कि हमारा जो इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट है उसके बारे में हम लोगों की एक राय बन गयी है कि इसको फ्लड प्रोटेक्शन में कोई रुचि नहीं है, उसको फ्लड फाइटिंग में मजा आता है। फ्लड प्रोटेक्शन अगर करना है तो यह काम तो पूरे साल चलना चाहिये या बाढ़ आने के कम से कम छः महीने पहले से शुरू होना चाहिये मगर इसमें इस विभाग की रुचि नहीं है। फ्लड फाइटिंग इनके लिए ऐडवेन्चर होता है। तब बोल्डर गिराया जाता है जिसकी न कभी कोई गिनती होती है और न ही कोई हिसाब किया जाता है। बोल्डर गया पानी में और उसका बिल बन जाता है। मुख्यमंत्री ने मुझसे पूछा कि तटबंध कहाँ-कहाँ टूटा तो मुझे तो सब मालुम था। मधकौल, रमणी, नारायणपुर घाट आदि दर्जनों जगह का नाम उनको गिना दिया और यह भी कहा कि तटबंध एक ही जगह पर कई-कई बार टूटा है। उन्होंने अपने अफसरों से पूछा कि जब एक जगह मरम्मत हो जाती है तो वहीं बार-बार क्यों टूटता है? अफसर निरुत्तर थे। सच बात यह है कि कभी भी तटबंध टूटने की जिम्मेवारी तय नहीं होती, इसलिए दोषी लोगों का हौसला बढ़ा रहता है। 1970 से अब तक जितनी बार और जितनी जगह तटबंध टूटा है उसकी जिम्मेवारी न तो सरकार लेने को तैयार है न उसके इंजीनियर। तटबंध टूटने की जिम्मेवारी जाती है चूहों पर कि उनके बिल बनाने की वजह से बांध टूट जाता है। चूहा सरकार और जल-संसाधन विभाग के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होता है वह सरकार की सभी जिम्मेवारियों के जाल को बड़ी आसानी से कुतर देता है।’’ बहरहाल, चूहे अभी भी अनियंत्रित हैं और सरकार के जल-संसाधन विभाग की बहुत मदद करते हैं। पहले कभी चूहों के बिल और लोमड़ियों की मांद पर नजर रखने के लिए जल-संसाधन विभाग प्रति तीन किलोमीटर लम्बाई के लिए एक बांध खलासी की नियुक्ति करता था जिसका काम समय-समय पर इन छिद्रों को बंद करते रहना हुआ करता था। अब यह काम हाइटेक हो गया है और इसका सारा जिम्मा फ्लड फाइटिंग फोर्स के पास चला गया है और वही इस काम को देखते या नहीं देखते हैं।

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Post By: tridmin
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