तटबन्धों ने नदी की बहुत सी धाराओं का स्रोत ही समाप्त कर दिया था जिसकी वजह से पानी में और भी अधिक ठहराव आता था और एक तरह से तटबन्ध के किनारे-किनारे झील का निर्माण हो जाता था। इसके अलावा तटबन्धों के कारण नदी का पानी सुरक्षित क्षेत्रों में फैलने से तो जरूर रुक गया मगर इसके साथ ही इस सुरक्षित क्षेत्र को हर साल बाढ़ के ताजे पानी और नई उर्वरक सिल्ट की आपूर्ति भी बन्द हो गई। गंडक पर तटबन्धों के निर्माण के कारण आई इस विकृति पर ही सारण नहर प्रणाली की बुनियाद रखी गई थी।
ईस्ट इंडिया कम्पनी की गिरफ्त जैसे ही देश पर मजबूत हुई वैसे ही उसने राजस्व के नये-नये स्रोत खोजने और अपने नये उपनिवेश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की नीयत से यहाँ का सर्वेक्षण करवाया। मेजर जेम्स रेनेल (1778) ने उत्तर भारत में यह सर्वेक्षण किया और अपनी इस कोशिश में उसने बहुत से बाढ़ सुरक्षा वाले काम भी देखे थे। रेनेल ने लिखा है कि ‘‘बहुत सी जमीनें ऐसी हैं कि जिनकी प्रकृति और उन पर पैदा होने वाले उत्पादन इस तरह के हैं कि उनके लिए दूसरी चीजों के मुकाबले पानी की बहुत कम जरूरत पड़ती है। यह जमीनें पानी में लम्बे समय तक डूबी रहेंगी अगर उन्हें तटबन्धों या बांधों की मदद से बचाया न जाये क्योंकि नदियों के तल इन जमीनों से ऊपर पड़ते हैं। इन तटबन्धों के रख-रखाव पर बेतरह खर्च आता है और यह हमेशा कामयाब भी नहीं हो पाते हैं क्योंकि इनकी मिट्टी की बनावट ही कुछ ऐसी है। ऐसा हिसाब किया गया है कि इन तटबन्धों की लम्बाई करीबन 1,000 मील (1600 किलोमीटर) होगी। इनमें से कुछ की जड़ में चौड़ाई एक किले की साधारण दीवार जैसी होती है। गंगा की एक धारा (जो कि इंग्लैंड में चेलसी में थेम्स जितनी चौड़ी है और केवल बरसात में ही नौका-चालन के लिए उपयुक्त है) लगभग 70 मील (112 किलोमीटर) की दूरी तक दोनों किनारों पर तटबन्धों के बीच घिरी हुई है। बरसात में जब यह नदी भरी हुई रहती है तब इसे नाव से पार करने वाले यात्री तटबन्धों के बाहर की जमीन को इस तरह से देखते हैं मानों आसमान से झांक रहे हों।”बिहार में गंडक नदी पर बने तटबन्धों ने अंग्रेज कम्पनी बहादुरों की नाक में दम कर रखा था यद्यपि अपने राज पाट संभालने के शुरुआती दौर में वह इन तटबन्धों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाये थे। सन 1797 में संभवतः पहली बार उन्होंने इन तटबन्धों के रख-रखाव पर कोई 36,000 रुपये खर्च किये थे और यह सारी की सारी रकम उन्होंने स्थानीय जमींदारों से वसूल कर ली थी। अंग्रेजों ने तब इस तरह के कामों को कभी भी सार्वजनिक निर्माण की कोटि में नहीं रखा और वह मानते रहे कि यह काम जमीन्दारों का है। अगर किसी जमींदार ने तटबन्धों की मरम्मत के इस काम में रुचि नहीं दिखाई तो कलक्टर का यह हक बनता था कि वह इसकी मरम्मत खुद करवाये और लागत खर्च की वसूली सम्बन्धित जमींदार से कर ले।
मरम्मत का इंतजाम हो जाने पर प्रशासन आमतौर पर उस समय गंडक पर बने इन तटबन्धों से खुश रहने लगा और उसका मानना था कि इन तटबन्धों की वजह से ‘‘यह मुमकिन हो सका है कि वह जमीन जो कि परती पड़ी रहा करती थी, उस पर फसलें लहलहाती हैं।” तटबन्धों के इस निर्माण की वजह से रैयत और जमींदार भी उस समय कम खुश नहीं थे मगर सन 1815 में जब गंडक ने अपनी धारा बदल ली और जब कम्पनी के सिंघिया के साल्टपीटर गोदाम पर खतरा मंडराने लगा तब तिरहुत में गंडक तटबन्धों की मरम्मत और रख-रखाव की देखभाल करने के लिए एक अधीक्षक की बहाली की गई। जमींदारों और अधीक्षक के बीच जिम्मेवारी बंट जाने के कारण 1820 से 1825 ई. के बीच में मरम्मत का यह काम ढीला पड़ने लगा। तब जमीन्दारों ने सरकार के पास यह फरियाद की कि या तो सरकार गंभीरतापूर्वक यह काम खुद करे या फिर जमीन्दारों को ही यह काम करने की इज़ाजत दे। सरकार ने तब तकनीकी देख-भाल के साथ इन तटबन्धों की मरम्मत 1830 में करवाई और जमीन्दार इस तरह की मरम्मत के खर्चे उठाते रहे।
उधर उड़ीसा में गाँवों में रहने वाले लोग गाँवों के आस-पास नदी के पानी से बचने के लिए टीलानुमा जगहें बना लिया करते थे जहाँ वह किसी भी विपत्ति के समय शरण ले सकें। इन टीलों का एक उपयोग और था कि यह नदी के पानी के वेग को कम करते थे। अगर गाँव बहुत करीब हुये तो यह टीलानुमा ढूहे भी पास-पास रहते थे। बाढ़ के पानी से निबटने का बुनियादी सिद्धांत यह था कि बाढ़ का पानी ज्यादा से ज्यादा इलाके पर फैल कर खेती को तरो-ताजा कर दे और उन्हें उनका सलाना पोषण मिल जाये। इसके अलावा बाढ़ के पानी का ज्यादा क्षेत्र पर फैलने का मतलब था कि बाढ़ का लेवल अपने आप घट जाता था। किसानों की अपनी देसी धान की किस्में थीं जो कि बाढ़ के पानी के साथ बढ़ती थीं और ऐसा बिरले ही कभी होता था कि फसल पूरी तरह बर्बाद हो जाये। बड़े इलाके पर पानी और ताजी मिट्टी फैलने से रबी की जबरदस्त फसल की संभावना बनती थी। सही फसलों के चुनाव से अन्न की कभी कमी नहीं होती थी।
बाढ़ देश में मुद्दा बनी ब्रिटिश हुकूमत का देश पर कब्जा होने के बाद क्योंकि बाढ़ों के स्वरूप ने अंग्रेजों को डरा दिया था, उन्होंने शायद न तो इतनी बड़ी नदियाँ कभी देखी थीं और न ही इतना पानी कभी देखा था। उन लोगों को बाढ़ समझने और उससे निबटने के तरीके खोजने में भी काफी समय लगा। पहले तो उन्होंने बाढ़ सुरक्षा के लिए बनाये गये टीलों को नदी के किनारे के टूटे हुये तटबन्धों के रूप में देखा और उन्होंने इनके बीच की जगह को भरना शुरू किया और इन्हें तटबन्धों की शक्ल दे दी। बाद में उन्होंने इन तटबन्धों की मरम्मत की और उन्हें मजबूत करने का काम किया। उन्होंने नए तटबन्ध भी बनाये। मगर धीरे-धीरे उन्हें इन तटबन्धों के रख-रखाव और मरम्मत में दिक्कतें आने लगीं तथा बाद में तो यह तटबन्ध टूटने भी लगे। एक समय ऐसा आया जबकि अंग्रेज हुकमरान यह सोचने को मजबूर हो गये कि समाज को तटबन्धों से फायदा होता है या नुकसान होता है? उनके राजस्व अधिकारियों और उनके मिलिट्री इंजीनियरों के बीच भी तटबन्धों को लेकर जबर्दस्त मतभेद था।
राजस्व अधिकारियों की मांग रहा करती थी कि तटबन्ध हमेशा चुस्त दुरुस्त रखे जायें जबकि इंजीनियर तटबन्धों की सुरक्षा की गांरटी देने की स्थिति में कभी थे ही नहीं और खासकर तब जब यह काम बहुत ही कम खर्च पर किया जाना हो। उड़ीसा में कटक में 1820 तक जिले की तटबन्ध समितियाँ बन चुकी थीं जिनका काम मरम्मत और रख-रखाव का सालाना बजट तैयार करने के साथ-साथ उसके भुगतान की मंजूरी देना भी था। तटबन्धों के निर्माण और रख-रखाव के लिए नियम-कानून बनाये गये और जल्दी ही सर्वेक्षकों, अधीक्षकों और तटबन्ध दरोगा आदि के पदों के साथ एक तकनीकी अमला तंत्र तैयार हो गया जिसमें हरेक के कर्तव्य स्पष्ट रूप से नियत थे।
नियमों के अनुसार अगर कहीं कोई तटबन्ध टूटता है तो, “कमिश्नर या कलक्टर के आदेश की अपेक्षा किये बिना अधीक्षक तुरन्त खुद उस स्थान पर जायेगा जहाँ पर तटबन्ध टूटा है और दरार की मरम्मत तथा सुरक्षित क्षेत्रों में और अधिक नुकसान को रोकने के लिए वह सारे व्यावहारिक कदम उठायेगा जिनकी जरूरत पड़ेगी। अधीक्षक से यह भी आशा की जाती है कि वह फसलों को पहुँचे नुकसान, सुरक्षित क्षेत्रों में हुई क्षति तथा तटबन्ध के टूटने के कारणों की समीक्षा करेगा कि यह पानी या मिट्टी के अत्यधिक दबाव के कारण टूटा या फिर स्थानीय रैयतों ने उसे काट दिया है। अगर इस स्थान पर स्लुइस गेट की जरूरत है तो अधीक्षक उसके निर्माण की सिफारिश करेगा। अगर कोई तटबंध दरोगा तटबंध टूटने के 24 घंटे के अंदर अधीक्षक को दुर्घटना की खबर देने में कोताही बरतता है तो वह अधीक्षक की सिफारिश पर नौकरी से हटाये जाने का कसूरवार होगा।”
इस तरह से ब्रिटिश हुकूमत के शुरुआती दौर में नदियों के किनारे बने तटबन्धों को एक तरह से मान्यता थी मगर बाद में धीरे-धीरे समस्याओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया। बिहार में सन् 1872 की बाढ़ में गंडक तटबन्धों की धज्जियाँ उड़ गईं और 30 गाँवों में नदी का पानी फैल गया। इन तटबन्धों की वजह से बहुत से नदी-नालों का पानी गंडक तक नहीं पहुँच पाता था और तटबन्धों के बाहर अटक जाता था जिससे जल-जमाव बढ़ता था, पूरा क्षेत्र अस्वास्थ्यकर हो जाता था और मलेरिया फैलता था। तटबन्धों ने नदी की बहुत सी धाराओं का स्रोत ही समाप्त कर दिया था जिसकी वजह से पानी में और भी अधिक ठहराव आता था और एक तरह से तटबन्ध के किनारे-किनारे झील का निर्माण हो जाता था। इसके अलावा तटबन्धों के कारण नदी का पानी सुरक्षित क्षेत्रों में फैलने से तो जरूर रुक गया मगर इसके साथ ही इस सुरक्षित क्षेत्र को हर साल बाढ़ के ताजे पानी और नई उर्वरक सिल्ट की आपूर्ति भी बन्द हो गई। गंडक पर तटबन्धों के निर्माण के कारण आई इस विकृति पर ही सारण नहर प्रणाली की बुनियाद रखी गई थी क्योंकि अब बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में नदी का ताजा पानी फैलना बन्द हो गया था और वहाँ सिंचाई की जरूरत महसूस की जाने लगी थी।
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