श्री पद्रे
कर्नाटक राज्य के गडग में स्थित वरी नारायण मंदिर बहुत प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि कुमार व्यास ने इसी मंदिर में बैठकर महाभारत की रचना की। यह ऐतिहासिक मंदिर आज एक बार फिर से इतिहास रच रहा है। कई वर्षों में इस मंदिर के कुंए का पानी खारा हो गया था। इतना खारा कि यदि उस पानी में ताबें का बरतन धो दिया जाए तो वह काला हो जाता था। तब मंदिर के खारे पानी के निस्तार के लिए वहां एक बोरवैल खोदा गया। उस कुंए में पानी होते हुए भी उसका कोई उपयोग नहीं बचा था। बोरवैल चलता रहा। और फिर उसका पानी भी नीचे खिसकने लगा। कुछ समय बाद ऐतिहासिक कुंए की तरह यह आधुनिक बोरवैल भी काम का नहीं बचा। कुंए में कम से कम खारा पानी तो था। इस नए कुंए में तो एक बूंद पानी नहीं बचा। मंदिर में न जाने कितने कामों के लिए पानी चाहिए। इसलिए फिर एक दूसरा बोरवैल खोदा गया। कुछ ही वर्षों में वह भी सूख गया। उसके बाद तीसरा। वह भी व्यासजी के ऐतिहासिक मंदिर का इतिहास बन गया।
इस तरह दस वर्षों के भीतर मंदिर में चार बोरवैल खोदे गए। बस अब चौथे में ही थोड़ा बहुत पानी बचा था। यही पानी मंदिर में नैवेद्य, प्रसाद व भोजन पकाने के काम में इस्तेमाल किया जाता था। पुराने कुंए को फिर से जीवित करने की ओर किसी का कभी ध्यान ही नहीं गया। गडग जिले में बहुत कम वर्षा होती है। राज्य के इस जिले के अधिकांश हिस्सों में हमेशा गहरा जलसंकट बना रहता है।
वर्ष 2005 की गर्मी में जिला पंचायत ने काम के बदले अनाज योजना से मंदिर के कुंए के बगल में एक बड़ा गङ्ढा भूजल संरक्षण के लिए खोदा था। गङ्ढा मानसून के पहले तक तैयार हो गया। यह गङ्ढा 12 फुट लंबा, 8 फुट चौड़ा और 6 फुट गहरा था। गङ्ढे की तली में दो फुट ऊपर तक मिट्टी भरी गई। इसे यहां जाली कहते हैं। ऐसी जाली का उपयोग सड़क बनाने में किया जाता है। इस जाली में दो तरह के पत्थर थे। गङ्ढे में सबसे नीचे बड़े आकार वाली जाली की तह बिछाई गई और फिर उसके ऊपर छोटे आकार वाली जाली डाली गई। सबसे ऊपर बालू की एक तह और। यह तह बरसाती पानी के साथ बह कर आई गंदगी साफ करती है। जाली की सबसे निचली तह तेजी के साथ पानी को भूमि में प्रवेश के लिए पर्याप्त खुली जगह उपलब्ध कराती है।
मंदिर प्रांगण 9000 वर्ग फुट में फैला हुआ है। दो साल पहले इस पूरे मंदिर क्षेत्र पर कीमती पत्थर का फर्श बिछा दिया गया था। उसके बाद से मंदिर परिसर में गिरने वाला बरसात का पानी पूरी तरह बहकर बाहर निकल जाता था। लेकिन इस गङ्ढे के बन जाने के बाद परिसर के पानी का बहाव गङ्ढे की ओर मोड़ दिया गया।
अब मंदिर परिसर में गिरने वाली वर्षा की एक-एक बूंद उस गङ्ढे में चली जाती है। 2005 की वर्षा के साथ कुंआ पानी से भर गया और फिर बाद में उसका जल स्तर उसी बिंदु पर जाकर स्थिर हो गया जिस बिंदु पर पहले रहता आया था। गर्मी के आखिरी दिनों में भी इसमें छह फुट पानी था। मंदिर के लोग इस बात से चकित हैं कि इस पानी में अब न तो जरा भी खारापन है और न कोई दूसरी तरह का बुरा स्वाद ही। मंदिर में भगवान के अभिषेक से लेकर प्रसाद पकाने जैसे कामों में इसी पानी का उपयोग करने लगा है। मंदिर प्रबंधक प्रहलाद आचार्य कहते हैं कि इस साल से हम कुंए के पानी का भरपूर उपयोग करने लगा है। मंदिर प्रबंधक प्रहलाद आचार्य कहते हैं कि इस साल से हम कुंए के पानी का भरपूर पानी का उपयोग कर रहे हैं। अब हमें पूरा विश्वास है कि गर्मी के आखिरी दिनों में भी इसमें पानी बराबर बना रहेगा।
अब इस जल मंदिर के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए मंदिर की तरफ से वहां एक बोर्ड भी लगाया गया है। इसमें बताया गया है कि मंदिर का यह सूखा कुंआ कैसे हरा हो गया है।
गडग जिले के इस हिस्से में अब कुछ ही निजी कुंए बचे हैं। मंदिर के आसपास कुल 12 कुंए हैं। तीन-तार कुंओं को तो उनके मालिकों ने पाट डाला था। सिर्फ श्रीधर आचार्य के कुंए को छोड़ बाकी सभी कुंओं का पानी खारा था। मंदिर के अर्चक निजी उपयोग के लिए और नैवेद्य तैयार करने के लिए इसी कुंए का पानी लाते थे। आज जल मंदिर के कारण 12 अन्य कुंओं में से चार का पानी मीठा हो गया है। उनका जलस्तर भी बढ़ गया है।
वीर नारायण मंदिर के कुंए से कुछ ही दूरी पर नरसिंहा तीर्थ कुंड है। कहा जाता है कि कुमार व्यास इसी कुंड में नहाकर गीले कपड़ों में ही, महाभारत की रचना करते थे। वहां स्थित एक स्तंभ के पास बैठ उन्होंने अपनी रचना पूरी की थी। उस स्तंभ को 'कवि कुमार व्यास स्तंभ' कहते है॥ यह ऐतिहासिक कुंड भी हाल के वर्षों में सूखा पड़ा था, लेकिन आज इसमें भी दस फुट तक पानी भर आया है।
आज देश के अनेक मंदिरों के परिसरों में आधुनिक चमक-दमक के नाम पर ग्रेनाइट पत्थरों का फर्श बिछाया जा रहा है। इस कारण इन मंदिरों की कहानी भी वीर नारायण मंदिर जैसी ही हो चली है। कच्चे फर्श होने के पर परिसर में गिरा वर्षा जल रिसकर जमीन के भीतर चला जाता था, परिसर में बने पुराने कुंओं को हरा रखता था। आज चमक-दमक ने मंदिरों की सादगी मिटाई है और साथ ही उनका पानी भी। उन मंदिरों में स्थित वर्षों पुराने कुंए सूख गए हैं। फिर वहां बोरवैल खोदे जाते हैं और मंदिर के देवता बोरवैल के पानी से स्नान करने लगते हैं।
ऐसे बोरवैलों की खर्चीली और कठिन प्रक्रिया के बदले यदि हमारे मंदिर अपने परिसर में गिरने वाले वर्षा जल को भूमि के भीतर रिसने की सहज व्यवस्था कर दें तो वहां के कुंए अनवरत मीठा जल उपलब्ध कराएंगे। मंदिर का कच्चा और पवित्र परिसर तथा जल संभरण के लिए कुछ गङ्ढे पानी की समस्या का दैनिक समाधान दे देंगे। यदि जगह की समस्या हो तो कोई जरूरी नहीं कि जल रोकने के ये गङ्ढे गडग के व्यास मंदिर जितने बड़े ही खोदे जाएं। कम लंबाई-चौड़ाई वाले गहरे गङ्ढे भी इस काम को पूरा कर देते हैं।
वर्षा जल के बहाव को सीधे कुंओं की ओर मोड़ देना भी ठीक नहीं है। गडक के त्रिकूटेष्वर मंदिर का खुला परिसर वीर नारायण मंदिर से भी बड़ा है। बहुत पहले इस परिसर में गिरने वाले वर्षा जल को पास के दो कुंओं में सीधे उड़ेल दिया जाता था। इस कारण ये दोनों कुंए कभी सूखे तो नहीं लेकिन इनका पानी स्वच्छ नहीं बचा है। आसपास की सारी गंदगी वर्षा के पानी में बहकर इन कुंओं में उतर गई है। इसलिए वर्षा जल के बहाव को सीधे कुंए की ओर नहीं मोड़ना चाहिए। इसे मिट्टी की मोटी तह से छनकर साफ होने देना चाहिए।
गडग के ऐतिहासिक वीर नारायण मंदिर में आने वाले श्रध्दालुओं को आज तीर्थ का एक अनमोल प्रसाद भी अपने साथ घर ले जाने के लिए उपलब्ध है। यह प्रसाद है जल मंदिर का। यदि हम अपने घर के इर्द-गिर्द गिरने वाले वर्षा जल की धरती मां की गोद में डाल देते हैं तो हमें आने वाली गर्मी के मौसम में पानी की कमी से जूझना नही पड़ेगा। मंदिर में प्रसाद में वरुण देवता का प्रसाद भी जुड़ जाएगा।
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