मध्यप्रदेश में अलीराजपुर जिले की ऊँची–नीची पहाड़ियों से होते हुए हम पहुँचे आदिवासियों के फलिए (गाँव) में। सुबह के निकले शाम हो गई यहाँ तक पहुँचने में। यहाँ एक परिवार से हमारी मुलाकात हुई, जिसका जवान बेटा अब मौत की घड़ियाँ गिनने को मजबूर है। महज 30 साल का इडला बहादुर पिछले तीन साल से हर पल मंडराती मौत के खौफ में जी रहा है। उसके हाथ में सरकार से मिला सिलिकोसिस पीड़ित होने का कार्ड जो है। इडला के तीन छोटे-छोटे बच्चे और पत्नी है। ढाई बीघा सूखी जमीन है और घर में फाके के हालात। रुंआसा कर देने वाली ये कहानी सिर्फ इडला की ही नहीं बल्कि धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले के कमोबेश 12 सौ परिवारों की है।
ये तमाम वो आदिवासी मजदूर परिवार हैं जो अपना पेट पालने के लिये पत्थर की पिसाई करने यहाँ से पलायन कर गुजरात गये थे, लेकिन इसी काम के बदले उन्हें सिलिकोसिस नाम की लाइलाज बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि वह अब अपने साथ सब कुछ तबाह करने पर आमादा हैं। इस बीमारी की गम्भीरता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है, कि इससे पीड़ित मरीजों को बचने की कोई उम्मीद नहीं बचती। यहाँ तक कि मौत के बाद जब शवों को जलाया जाता है तो फेफड़े जीवाश्म की तरह साबूत बच जाते हैं। उन्हें तोड़ने या काटने पर उसके भीतर से पत्थर का वो चूरा निकलता है जिससे काँच बनाया जाता है। वर्ष 2012-13 के लिये जारी धार जिले के शिल्पी केन्द्र की रिपोर्ट 'डिस्टाइंड टू डाई’ के मुताबिक धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले के सौ से ज़्यादा गाँवों में सिलिकोसिस नाम की इस जानलेवा बीमारी से हाहाकार मचा हुआ है। इन गाँवों के 743 परिवारों में 17 सौ लोग सिलिकोसिस से पीड़ित थे। इनमें से साढ़े 5 सौ लोगों की मौत हो चुकी है और बाकी लोग हर एक दिन अपनी मौत के पल-पल इंतजार में दिन गुजार रहे हैं।
अलीराजपुर जिले के मालाबाई, रोडधा और रामपुरा गाँव में हालात बेहद खराब हैं। सिलिकोसिस की वजह से यहाँ परिवार के मुखिया और औरतों की असमय मौत हो गई। घरों में अनाथ बच्चे ही बचे हैं। अलीराजपुर जिले की ही ध्याना पंचायत के 80 लोग अपनों को छोड़ इस दुनिया से विदा हो गए। झाबुआ जिले के मुण्डेत, बरखेडा और रेदता गाँव के 150 से ज्यादा लोगों ने दम तोड़ दिया। आदिवासियों के कुछ फालियों में अनाथ बच्चे तो कुछ में विधवाओं का रुदन ही बचा है या फिर कहीं परिवार का मुखिया बरसों से खटिया पर पड़ा-पड़ा आसमान के तारे गिन रहा है। उसकी आँखें भी पथरा गई हैं और धड़कन इस तरह अटक-अटक कर चल रही हैं मानो किसी भी वक्त शरीर का साथ छोड़ देंगी।
दरअसल झाबुआ, अलीराजपुर और धार जिले की 80 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। ये तीनों जिले मध्यप्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में से हैं। यहाँ रोजी-रोटी का भारी टोटा है। सरकारें इनके रोजगारमूलक कामों के लिये करोड़ों रुपए खर्च करती हैं लेकिन नाकारा तंत्र और भ्रष्टाचार की वजह से इन तक धेला भी नहीं पहुँच पाता। रोजगार मिल भी जाता है, तो मजदूरी पूरी नहीं मिलती। सतत आजीविका परियोजना के अनुसार इलाके के 80 प्रतिशत गाँवों से लोग मजदूरी के लिये पलायन कर जाते हैं। ज्यादातर लोग इन तीनों जिलों की सीमा से सटे गुजरात के गोधरा और बालासिन्नौर जाकर मजदूरी करते हैं। हालात ये हैं, कि बारिश को छोड़ 8 महिनों तक इनके फालियों में या तो बूढ़े होते हैं या फिर हिफाजत के लिये घर के बाहर कांटों की बागड़ लगा जाते हैं। गोधरा और बालासिन्नौर में पत्थरों की पिसाई के कई कारखानें हैं। पत्थरों की धूल से काँच बनता है। यहाँ बड़ी संख्या में आदिवासी काम करते हैं। पत्थरों की पिसाई के दौरान लापरवाही की वजह से अत्यन्त जहरीली और घातक पारदर्शक सिलिका धूल श्वास के जरिये इनके फेफड़ों में जमा हो जाती है। तीन महीनों में यह धूल फेफड़ों में सीमेंट की तरह जम जाती है। जिससे सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। इस बीमारी को सिलिकोसिस कहा जाता है।
गुजरात की इन फ़ैक्टरियों में गैरकानूनी तरीकों से मजदूरों से काम कराया जाता है। आदिवासी अज्ञानता की वजह से पेट के लिये यह काम करते हैं और अपनी जिंदगी दाँव पर लगा देते हैं। साल 2004 में तेजी से होने वाली मौतों के बाद इलाके में सिलिकोसिस का पता चला। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश में गुजरात सरकार को पीड़ित परिवारों को मुआवजा और मध्यप्रदेश सरकार को इनके और परिवार के पुनर्वास के लिये कहा था लेकिन अभी तक दोनों ही राज्यों ने इस आदेश का पालन नहीं किया।
सिलिकोसिस पीड़ितों के अधिकारों के लिये काम करने वाले संगठन 'नई शुरूआत’ के अमूल्य निधि ने बताया कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है। इलाके में सिलिकोसिस पीड़ित संघ के दिनेश रायसिंह, केमत गवले और खेम सिंह बीमार लोगों के साथ मिलकर उन्हें उनके अधिकारों के बारे में सजग कर रहे हैं। इसी प्रकार संगठन 'नई शुरुआत’ के अमूल्य निधि, मोहन सिंह सुल्या और राकेश सस्तिया 102 पीड़ित गाँवों में लोगों के साथ मिलकर सरकार के खिलाफ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। अमूल्य बताते हैं, कि गुजरात सरकार को सिलिकोसिस पीड़ित 238 परिवारों को प्रति परिवार 3 लाख रुपये के हिसाब से करीब 7 करोड़ रुपये की मुआवजा राशि दिये जाने के आदेश दिये थे लेकिन आज तक उन परिवारों को एक रुपया भी नसीब नहीं हो पाया है। वहीं मध्यप्रदेश सरकार को पुनर्वास आदेश में भी अब तक कोई प्रगति नहीं है।
नई शुरुआत के अमूल्य निधि बताते हैं कि सन 2004 से उनका समूह इस आदिवासी बेल्ट में उनके स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए काम कर रहा है। इस दौरान देखा कि कई गाँवों में मौतों का आँकड़ा बढ़ रहा है वहीं कई जवान और हट्टे –कट्टे लोग भी धीरे–धीरे हड्डियों के कंकाल में बदलते जा रहे हैं। ग्रामीणों से बातचीत की पर कोई कुछ नहीं बता पाया। इलाके के डॉक्टरों से भी मिले पर कहीं से कोई बीमारी के बारे में पता नहीं चल सका। इसी बीच एक बात ने सबका ध्यान खिंचा कि मरने वालों का शव जब जलाया जाता तो उनके फेफड़े नहीं जलते थे बल्कि ऐसे ही रह जाते थे। इस बात की पड़ताल की तो पता चला कि जो लोग सुखकर काँटा हो जाते हैं उन्हीं रोगियों के मरने पर ऐसा होता है बाकी में नहीं।
कुछ ग्रामीणों ने बचे हुए फेफड़े को काटने–चीरने की कोशिश की तो पता लगा कि उसमें कोई सफ़ेद रंग का चूर्ण जैसा पदार्थ है। तभी किसी ने कहा कि यह तो गोधरा वाला पाउडर है। तहकीकात में बात सामने आई कि पास में बसे गुजरात के गोधरा में पत्थर घिसाई और काँच घिसने के दौरान उससे उड़ने वाला पदार्थ ही इनके फेफड़ों में सीमेंट की तरह जम जाता है। इलाके में लोग इसे गोधरा वाली बीमारी के नाम से ही जानते हैं। 2006 में केन्द्रीय श्रम संस्थान की टीम जब इलाके में आई तो उसने पुष्टि की कि ये लोग सिलिकोसिस नामक बीमारी से ग्रसित हैं। उन्होंने बताया कि किस तरह लोग अपनी रोजी–रोटी के लिए गुजरात के कुछ शहरों में मजदूरी करने जाते हैं और वहाँ इन्हें मौत के मुँह में जाने वाली इस बीमारी का शिकार होना पड़ता है।
डॉक्टर बताते हैं कि सिलिकोसिस फेफड़ों की बीमारी है और धूलभरे स्थान पर लगातार काम करते रहने से नाक के जरिये धूल, सीमेंट या काँच के महीन कण सिलिका के रूप में फेफड़ों तक पहुँच जाते हैं। यह बीमारी बहुत तकलीफदेह होने के साथ–साथ जानलेवा होती है। इसमें धीरे–धीरे व्यक्ति की शारीरिक क्षमता कम होती जाती है और वह अपने आप को कमजोर महसूस करने लगता है फिर दिन ब दिन सूखकर काँटा होता जाता है और इस तरह वह तिल–तिल मरने को मजबूर हो जाता है।
/articles/taila-taila-kara-maranae-kao-majabauura-haain-saaikadaon-adaivaasai