जल-संसाधन विभाग की इन उपलब्धियों को बिहार के लोग भी कभी खुशगवार नहीं कहेंगे। नेपाल का आम आदमी अगर यह समझता है कि इन योजनाओं का सारा लाभ भारत को मिला है तो कहीं न कहीं कुछ गलतफहमी जरूर है। इस तरह अगर इन योजनाओं से भारत और नेपाल दोनों देशों के ही लोग नाखुश रहते हैं और एक दूसरे पर सन्देह करते हैं तो उनकी समस्या की कोई तीसरी और साझा वजह हो सकती है जिसकी तलाश और निराकरण का प्रयास दोनों देशों के प्रबुद्ध लोगों को मिल कर करना चाहिये।
सच यह भी है कि एकतरफा कार्यवाही में नेपाल भी पीछे नहीं है। बागमती नदी पर करमहिया बराज और कमला नदी पर बंदीग्राम के पास गोडार बराज का निर्माण इसका उदाहरण है। करमहिया बराज के कारण भारत की बागमती से सिंचाई वाला सपना टूट गया। कमला बराज के कारण जयनगर के निचले हिस्सों में सूखे के समय पानी की कमी देखी गयी है। अंग्रेजों के शासनकाल में जब भी बागमती या कमला नदी से सिंचाई प्रकल्पों की बात उठती थी तो वह हमेशा नेपाली क्षेत्रों में आवश्यकता के समय पानी रोक लिए जाने के प्रति आशंकित रहते थे और शायद इसीलिए उन्होंने कभी इन योजनाओं को गंभीरता से नहीं लिया। बागमती परियोजना में रमनगरा-गम्हरिया के पास बराज के निर्माण न होने के पीछे बिहार के लोग केन्द्र या राज्य सरकार की चाहे जितनी भर्तसना कर लें, यह गलत नहीं है कि नेपाल में करमहिया बराज के निर्माण की वजह से गम्हरिया बराज का निर्माण न कर पाना एक महत्वपूर्ण कारण है।कई बार सांसद रहे भोगेन्द्र झा यह जरूर मानते थे कि नेपाल द्वारा इन बराजों के निर्माण के पीछे भारत सरकार की अकर्मण्यता थी जो उसने नेपाल सरकार के साथ बातचीत करके नुनथर और शीसापानी बांधों की उपयोगिता को ठीक से नहीं समझाया और नेपाल ने इस बराजों का निर्माण दूसरे स्रोतों की मदद से पूरा कर लिया। 1996 वाली भारत-नेपाल महाकाली संधि भी इसी तरह के अविश्वास का शिकार हुई। इस संधि के छः महीने के अन्दर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट बना लेने का प्रस्ताव था, दो वर्षों के अन्दर निर्माण के लिए आवश्यक आर्थिक संसाधन जुटा लेने की बात थी और आठ वर्ष के अन्दर इसे पूरा कर लिया जाना था। इन सारे प्रस्तावों का नेपाली संसद ने दो-तिहाई बहुमत से अनुमोदन भी कर दिया था मगर इनमें से कोई भी काम आज तक (जून 2010) नहीं हुआ। इस मसले को लेकर नेपाल की मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी का विभाजन जरूर हो गया।
नेपाली जन-मानस में यह बात बैठी हुई है कि यह संधि उनके हक में नहीं है और इसका अधिकांश फायदा भारत को मिलने वाला है। कुछ इसी तरह की बातें कोसी और गंडक परियोजनाओं के बारे में भी प्रचलन में हैं जिनके बारे में नेपाली प्रबुद्ध वर्ग और क्रियाशील समूहों को यह लगता है कि इन दोनों योजनाओं का लाभ मुख्यतः भारत को हुआ है और नेपाल के हिस्से केवल बर्बादी आयी है। यहाँ हम जरूर कहना चाहेंगे कि कोसी परियोजना में भारतीय भाग में 7.12 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई होनी थी जिसके बदले में 2005, 2006 और 2007 के सिंचाई वर्ष में क्रमशः 1.4917 लाख हेक्टेयर 1.2413 लाख हेक्टेयर और 1.3618 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर ही सिंचाई हुई। इस नहर से अधिकतम सिंचाई 2.13 लाख हेक्टेयर 1983-84 में हुई थी। 2008 में कुसहा में तटबन्ध टूटने के बाद पूर्वी कोसी मुख्य नहर से सिंचाई प्रायः बन्द है।
इस योजना से 2.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा मिलने वाली थी लेकिन 3.68 लाख हेक्टेयर क्षेत्र कुसहा वाली दरार की चपेट में अकेले भारत में आ गया। लगभग 1.20 हेक्टेयर जमीन तटबन्धों के बीच हमेशा के लिए बर्बाद हो गयी। पूर्वी तटबन्ध के पूर्व के भारतीय भाग में 1.82 लाख हेक्टेयर जमीन पर तथा पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में 1.24 लाख हेक्टेयर जमीन पर जल-जमाव है। यानी 2.14 हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा देने के नाम पर कोसी क्षेत्र में 4.28 लाख हेक्टेयर जमीन को हमेशा के लिए तबाही के कगार पर ला खड़ा किया गया। इसी तरह से गंडक परियोजना क्षेत्र में सिंचाई के 11.53 लाख हेक्टेयर के लक्ष्य के विरुद्ध 2003-04, 2004-05, 2005-06 के सिंचाई वर्ष में मात्र 3.95 लाख हेक्टेयर, 3.88 लाख हेक्टेयर और 3.88 लाख हेक्टेयर कृषि क्षेत्र पर सिंचाई हुई।
जल-संसाधन विभाग की इन उपलब्धियों को बिहार के लोग भी कभी खुशगवार नहीं कहेंगे। नेपाल का आम आदमी अगर यह समझता है कि इन योजनाओं का सारा लाभ भारत को मिला है तो कहीं न कहीं कुछ गलतफहमी जरूर है। इस तरह अगर इन योजनाओं से भारत और नेपाल दोनों देशों के ही लोग नाखुश रहते हैं और एक दूसरे पर सन्देह करते हैं तो उनकी समस्या की कोई तीसरी और साझा वजह हो सकती है जिसकी तलाश और निराकरण का प्रयास दोनों देशों के प्रबुद्ध लोगों को मिल कर करना चाहिये। इसमें आवश्यकताओं का सही मूल्यांकन, उपलब्ध सारे विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन, योजना का सभी स्तर पर होने वाले लाभ का न्याय संगत वितरण, निर्णय प्रक्रिया में सभी संबद्ध पक्षों की भागीदारी तथा जिम्मेदार व्यक्तियों या संस्थाओं का कर्तव्य निर्धारण आदि बहुत सी चीजों का विश्लेषण कर के ही योजना का सही, सर्वमान्य और तर्कसंगत मूल्यांकन संभव है।
नेपाल में विश्व बैंक की सहायता से 1990 के पूर्वाद्ध में अरुण-3 नाम के 201 मेगावाट क्षमता वाले एक जल-विद्युत प्रकल्प पर काम शुरू हुआ जिसके प्रति किलोवाट उत्पादित बिजली की लागत 5400 अमरीकी डॉलर आती थी और यह लागत निजी क्षेत्र के छोटे विद्युत केन्द्रों के मुकाबले चौगुना बैठती थी। नेपाल के क्रियाशील समूहों ने इसका विश्लेषण किया और उस आधार पर योजना का विरोध शुरू हुआ। प्रबुद्ध वर्ग के इस तथ्यात्मक विरोध ने स्थानीय स्तर पर चल रहे पुनर्वास और पर्यावरण की लड़ाई लड़ रहे समूहों के तर्क को मजबूत किया और अन्ततः विश्व बैंक को परियोजना से हट जाना पड़ा।
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