तबाही के निशान

बिहार हर साल बाढ़ का दंश झेलता है लेकिन स्थिति फिर भी जस की तस बनी हुई है। आबादी बेहाल है। बाढ़ की प्रलंयकारी लीला में हर साल एक लाख घर बह जाते हैं। बिहार में बाढ़ ने पिछले 31 सालों में 69 लाख घरों को क्षति पहुंचाया है। हाल में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने बाढ़ का आकलन करने के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई थी लेकिन उसमें बिहार को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया जबकि देश के कुल बाढ़ग्रस्त इलाकों का 17 फीसदी हिस्सा बिहार में पड़ता है।बिहार ने बाढ़ की एक और विभीषिका झेल ली। बाढ़ का पानी लौट चुका है और तबाही के निशान शेष रह गए हैं। ठेकेदारों और अफसरों की कमाऊ जमात ने एक बार फिर बाढ़ राहत के नाम करोड़ों के वारे-न्यारे किए और अगली बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर तैयारियां शुरू हो गई हैं। यह हर साल का किस्सा है जो एक बार फिर दोहराया जा रहा है। बाढ़ की मार झेल चुके लोग ध्वस्त हो चुके मकानों को किसी तरह खड़ा करने में जुटे हैं और सरकार तबाही के लिए नेपाल को कोस रही है। इस राष्ट्रीय आपदा का स्थायी समाधान सिर्फ चर्चाओं तक सीमित रहा है। नदियों किनारे बसे लोगों के लिए तबाही उनकी नियति बन चुकी है। चार साल पहले कोसी ने कहर ढाया था तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी उसे राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था लेकिन राहत और पुनर्वास के प्रयास नहीं के बराबर हुए। कोसी क्षेत्र के हजारों एकड़ उपजाऊ खेतों में अभी तक बालू के ढेर पड़े हैं। इन खेतों में अब फसल नहीं होती। आपदा में क्षतिग्रस्त लाखों घर पुनर्निर्माण की राह देख रहे हैं।

पुनर्वास की लचर नीति के कारण लोगों को राहत नहीं मिल सकी है। दर्जनों पुल-पुलिया और सड़क चार साल बाद तक क्षतिग्रस्त हैं। अकेले सुपौल जिले के वसंतपुर अंचल में 14,130 एकड़ खेतों में बालू भरा है। सुपौल, मधेपुरा और सहरसा जिले में लगभग एक लाख एकड़ खेतों में बालू पटा है। कोसी त्रासदी में 2,36,632 घर ध्वस्त हुए थे। इस साल बाढ़ का मौसम समाप्त होने के बाद जल संसाधन विभाग ने राहत की सांस ली। विभाग ने बाढ़ सुरक्षात्मक कार्य के तहत कुल 371 योजनाओं को स्वीकृति दी थी। इन योजनाओं को पूरा करने में सरकार ने कुल 658.24 करोड़ रुपए खर्च किए। बाढ़ से सुरक्षा के लिए जिन 371 योजनाओं को पूरा किया गया था उनमें गंगा नदी पर 44, गंडक नदी पर 30, बूढ़ी गंडक नदी पर 54, बागमती व करेह नदी पर 26, महानंदा पर 20, कोसी पर 84, पुनपुन पर 11 तथा अन्य नदियों में कुल 102 सुरक्षात्मक कार्य कराए गए। विभाग का दावा है कि इस बार सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त के कारण कम तबाही हुई। वैसे लगभग एक हजार करोड़ रुपए मूल्य की संपत्ति के नुकसान का आकलन है। बाढ़ ने डेढ़ दर्जन लोगों की जानें लीं। सिर्फ सड़क क्षेत्र में तीन सौ करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ।

यह मंजर हर साल ऐसा ही होता हैयह मंजर हर साल ऐसा ही होता हैबिहार सरकार केंद्र पर भेदभाव का आरोप लगाती रही है। विशेष राज्य के दर्जे की मांग में भी बाढ़ मुख्य आधार है। बिहार सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय समस्या बताते हुए केंद्र से विशेष राज्य का दर्जा मांगा है। हाल में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने बाढ़ का आकलन करने के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई थी लेकिन उसमें बिहार को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया जबकि देश के कुल बाढ़ग्रस्त इलाकों का 17 फीसदी हिस्सा बिहार में पड़ता है। इसके विरोध में राज्य के जल संसाधन विभाग ने केंद्र को पत्र लिखा है। केंद्रीय जल आयोग की अध्यक्षता मे बनी इस समिति में 16 सदस्य हैं। इस समिति में आईआईटी दिल्ली के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. सुभाष चंद्रा, केंद्रीय जल आयोग के सदस्य (सेवानिवृत्त) एस.के. अग्रवाल, एम. गोपालकृष्ण, एम.के. शर्मा, सुरेश चंद्रा, ए.डी. मोहिले, आईआईटी रुड़की के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉ. आर.जी. गारडे तथा के.जी. रंगाराजू और जल संसाधन मंत्रालय के पूर्व आयुक्त ए.सी. त्यागी शामिल हैं।

यह समिति केंद्रीय जल आयोग, ब्रह्मपुत्र बोर्ड, गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग, एनआरएससी, एसडीएमए आदि संगठनों की सहायता से क्षेत्रीय समिति का गठन करेगी। केंद्रीय जल संसाधन मंत्री पवन कुमार बंसल की सहमति पर बनी यह कमेटी बाढ़ग्रस्त इलाके के निदान के लिए रिपोर्ट तैयार करेगी। केंद्रीय कमेटी बाढ़ ग्रस्त इलाकों का अध्ययन करेगी। इन इलाकों के डाटा का आकलन के लिए सेटेलाइट व अन्य उपकरणों की सहायता ली जाएगी। कमेटी हर छह माह पर अपनी रिपोर्ट पुस्तक के रूप में प्रकाशित करेगी। इससे पहले 2006 में केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय ने पटना स्थित गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग के अध्यक्ष की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी। उस समय समिति ने देश के 39 जिलों को बाढ़ग्रस्त माना था। इस बार बिहार का प्रतिनिधित्व नहीं होने के कारण राज्य सरकार को संदेह है कि बिहार की बातें ठीक तरीके से शामिल नहीं हो सकेंगी।

हर साल कुछ और कट जाता है गांवहर साल कुछ और कट जाता है गांवबिहार की बड़ी आबादी हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलने को अभिशप्त रही है। बाढ़ की प्रलंयकारी लीला में हर साल एक लाख घर बह जाते हैं। बिहार में बाढ़ ने पिछले 31 सालों में 69 लाख घरों को क्षति पहुंचाया है। इनमें 35 लाख मकान पानी में बह गए। वहीं, 34 लाख घरों को पानी की तेज धारा ने क्षतिग्रस्त कर दिया। सूबे का 76 प्रतिशत भू-भाग बाढ़ के दृष्टिकोण से संवेदनशील है। कुल 94,160 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में से 68,800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र बाढ़ के लिहाज से संवेदनशील हैं। कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक, बागमती, कमला बलान, महानंदा और अघवारा नदी समूह की अधिकांश नदियां नेपाल से निकलती हैं। इन नदियों को 65 प्रतिशत जलग्रहण क्षेत्र नेपाल और तिब्बत में है। नतीजतन नेपाल से अधिक पानी डिस्चार्ज होने पर बिहार के गांवों में तबाही मच जाती है। आंकड़ों पर गौर करें तो 2007 की बाढ़ में बिहार के 22 जिले बाढ़ से प्रभावित हुए थे।

इसके बाद 2008 में कोसी नदी पर कुसहा बांध टूटा तो जलप्रलय की स्थिति पैदा हुई। बिहार सरकार ने 2007 में केंद्र से बाढ़ राहत के लिए 2156 करोड़ मांगे लेकिन मदद नहीं मिली। फिर 2008 के राष्ट्रीय आपदा के वक्त भी बिहार के 14808 करोड़ की मांग के बदले सिर्फ एक हजार करोड़ मिले थे। अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर विश्व बैंक की मदद से बाढ़ प्रबंधन का कार्य शुरू हुआ है। कोसी के बाढ़ प्रबंधन के लिए विश्व बैंक ने 800 करोड़ की सहायता की पेशकश की है। सबसे ज्यादा 1987 में बाढ़ ने तबाही मचाई थी। तब से साढ़े दस लाख से ज्यादा मकान ध्वस्त हो गए थे। आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार, बाढ़ में बहने वाले घरों की संख्या 1989 में सबसे कम 7746 थी। 1984 में तीन लाख घर तो 2008 की कोसी त्रासदी में, 2 लाख 36 हजार से ज्यादा मकान तबाह हो गए थे। कोसी की बाढ़ के दौरान मधेपुरा जिले में 272 लोगों की मृत्यु हुई। परिजनों को प्रधानमंत्री राहत कोष से एक लाख आपदा राहत कोष से एक लाख और मुख्यमंत्री राहत कोष से एक लाख पचास हजार रुपए दिये जाने तय हुए थे। मधेपुरा में आपदा प्रबंधन विभाग से सिर्फ 181 लोगों को मदद मिली। 91 मामले विचाराधीन हैं। मुख्यमंत्री सहायता कोष की मदद से भी 232 परिवार अब तक वंचित हैं। लेकिन सभी 526 मृतकों के परिजन अब तक प्रधानमंत्री की मदद से वंचित हैं।

बाढ़ से हर साल छिनता है आशियानाबाढ़ से हर साल छिनता है आशियाना
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