तालाब तो कई थे पर


विदिशा में जहाँ ज्यादातर नलकूप सूखे निकलते हैं वहीं इन पौधों को पानी देने के लिये सूखे तालाब में खोदे गए नलकूपों से भरपूर पानी निकल रहा है।नीमताल के दिन फिर रहे हैं। शायद यह प्रशासन का प्रायश्चित है कि इस योजना को ऊपर से मदद में छदाम भी नहीं आई है, फिर भी दस महीने बाद बुलडोजर चल रहे हैं।

बम्बई से दिल्ली जाते समय विदिशा से एक किमी आगे निकल कर सागर पुलिया पर रेलयात्रियों को हर साल बरसात में दूर तलक जो पानी की झिलमिलाती चादर नजर आती थी, 1995 में नजर नहीं आई। नैनाताल का यह विस्तार सूरज की चमकीली धूप में पिघलती हुई चाँद की तरह महीनों लहराता था। नैनाताल का छरछरा 1994 में तोड़ दिया गया। अब नैनाताल में पानी नहीं रुकता।

उस साल, जब जानी झूमकर बरसा, तो नैनाताल बरसों बाद पूरा भरकर रेलवे की सागर पुलिया पार करता हुआ उस बस्ती तक जा पहुँचा था, जो लोगों ने जल-भराव क्षेत्र में अतिक्रमण करके बसा ली थी। पानी जब झुग्गियों तक पहुँच गया, तो बस्ती के कुछ लोगों ने इस डूबी तालाब के उस छरछरे का कुछ हिस्सा तोड़ दिया, जो इस तालाब का अतिरिक्त पानी निकाल देता था। पानी के दबाव ने बाकी का काम खुद कर लिया। तब से नैनाताल में पानी ही नहीं रुक रहा है। एक और तालाब नैनाताल खत्म हो गया, लेकिन यह कोई नई कहानी नहीं है।

एक-एक करके इलाके के पाचास से भी ज्यादा बड़े और दो सौ से भी ज्यादा छोटे तालाब गुम हो गए हैं। इस सदी के आरम्भ तक ये सभी अच्छे-खासे थे। लापता हुए कई बड़े तालाबों से तो आज़ादी के पहले तक सिंचाई की जाती रही है, जबकि छोटे तालाब निस्तारी थे, जो गाँव-खेड़ों की जरूरत के मुताबिक पिछले कई सौ सालों में बनाए गए थे। पिछले पचास सालों में तालाबों के लुप्त होने की प्रक्रिया इस तरीके से चली है कि उसका जरा भी शोर तक नहीं हुआ है। यह खामोश प्रक्रिया आज भी जारी है।

लापता हुए ज्यादातर तालाब ज़मीन के लिये आदमी की भूख का शिकार हुए हैं। जिस तालाबों और पोखरों का निर्माण सबका हित सामने रखकर बरसों-बरस में हुआ था, वे सब अपना हित सोचने वालों द्वारा चन्द सालों में ही खत्म कर दिये गए।

इन तालाबों के विनाश का यह सिलसिला आजादी के पहले रियासती दौर में उसी दिन से शुरू हो गया था, जब ग्वालियर रियासत ने उनके निस्तारी स्वरूप को मिटाकर तालाबों से सिंचाई के इस्तेमाल की सोची थी। उस समय सरकारी कारिन्दों को यह ध्यान नहीं रहा कि ये निस्तारी तालाब न केवल जनता और पशुओं की पानी सम्बन्धी ऊपरी जरूरतें ही पूरी करते हैं, बल्कि उनसे ज़मीन भी तृप्त होती है। शायद उस समय उन्हें इसकी जरूरत भी महसूस नहीं हुई हो।

तब की ग्वालियर रियासत ने सन् 1900 के करीब इलाके-भर के तालाबों का सिंचाई के लिहाज से सर्वे कराया था। सर्वे के बाद रियासत ने विदिशा और बासौदा के चालीस से भी ज्यादा पुराने और बड़े-बड़े निस्तारी तालाबों को सिंचाई के तालाबों में बदलवा दिया। इससे कृषि उत्पादन तो बेशक बढ़ा, लेकिन तालाबों की बर्बादी का सिलसिला शुरू हो गया, लेकिन तब निस्तारी तालाबों को सिंचाई तालाबों में बदलने के बाद भी उन तालाबों में इतना पानी तो बचा ही रहता था कि ढोर-डंगर प्यासे नहीं फिरते थे और जनता को नहाने-धोने का सुविधा बना रहता था।

तीन दशक पहले ज़मीन की जरूरत और कीमतें बेतहाशा बढ़ने के साथ ही, सिंचाई और निस्तारी तालाबों की शामत आ गई। ताकतवर लोगों ने न केवल तालाबों पर अतिक्रमण शुरू कर दिये, बल्कि तालाबों की उपजाऊ ज़मीन अपने कब्जे में करने के उनकी पालें फोड़ना भी शुरू कर दीं। सिंचाई तालाब पहले डूबी तालाबों में बदले और फिर वे भी नहीं रहे। तालाब सामूहिक सम्पत्ति से निजी सम्पत्ति में बदल गए।

उस दौर में भी जो तालाब किसी तरह बच गए थे, उन पर भी नई मुसीबत आई है। पिछले कुछ सालों से उन तालाबों पर सिंचाई पम्प रखकर उनकी आख़िरी बूँद भी चूसी जाने लगी है। यह सोचे बगैर कि इसका असर गरीब ग्रामीण, कुओं-बावड़ियों, मूक जानवरों और भूजल स्तर पर क्या पड़ेगा?

तरक्की के ताजा दौर में विदिशा, सिरोंज, ग्यारसपुर, उदयपुर, पठारी, लटेरी जैसी बड़ी पुरानी और मशहूर बस्तियों के साथ-साथ दूरस्थ गाँवों में बने पुराने तालाब अब या तो नहीं हैं, या बस खत्म होने ही वाले हैं। जिला मुख्यालय विदिशा में ही आज जिसे तलैया मुहल्ला कहा जाता है, वह एक छोटा सा तालाब ही था, जिसे नष्ट करके बस्ती बसाई गई है। ‘किले अन्दर’ का चौपड़ा मुहल्ला भी एक पक्के छोटे चौकोर चौपड़ा तालाब के किनारे ही बसा है। यह पक्का चौपड़ा तो आज भी है, लेकिन उसके घाट पर अब मकान बन गए हैं, जिनके सेप्टिक टैंक चौपड़ा में ही खुलते हैं। इस चौपड़ा में अब पानी नहीं, गन्दी काई और घास पसरी हुई है। हाजी बली के तालाब के किनारे अब बस दरगाह और चन्द कब्रें ही बचीं हैं, तालाब में प्लाट निकाल दिये गए हैं। फिर नैनाताल, मोहनगिरि तालाब भी थे। नैनाताल खेत में बदल गया है और मोहनगिरि के तालाब में बस्ती के परनाले खुलते हैं।

ये तालाब तो जनता के बीच के नासमझ लोगों ने खत्म किये हैं, लेकिन जिस बेदर्दी से नीमताल को शासन ने खुद नष्ट कराया, उसकी मिसाल वह आप है। दो नालों को रोककर बनाया गया यह निस्तारी तालाब पता नहीं कब से विदिशा के लोगों और जानवरों के काम आ रहा था। इसकी पाल पर सैकड़ों की संख्या में नीम के पेड़ थे जिनकी वजह से इस तालाब का नाम ही नीमताल पड़ गया था।

इस सदी की शुरुआत में जब तत्कालीन ग्वालियर रियासत को पुराने निस्तारी तालाबों को सिंचाई तालाबों में बदलने की सूझी थी, तो दूसरे कई पुराने तालाबों की तरह इस पुराने तालाब पर भी सिंचाई की एक योजना बनाई गई थी और नीमताल में तब के ग्वालियर रियासत के शासक माधवराव सिंधिया की खुद बड़ी दिलचस्पी थी। लेकिन यह योजना वापस ले ली गई और तालाब पर एक हजार रुपए से ज्यादा रकम खर्च करके उसका निस्तारी स्वरूप बनाए रखा गया। तब विदिशा का नीमताल ऐसा अकेला तालाब था, जिसके निस्तारी स्वरूप पर के शासन ने विशेष रुचि ली थी। तब एक हजार रुपया बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी और ये इसलिये खर्च किये गए थे कि विदिशा के लोगों को नहाने, कपड़े धोने और जानवरों को पानी पिलाने की सुविधा निरन्तर बनी रहे।

नीमताल के निस्तारी स्वरूप को बहाल करने का काम 1908 तक चला। तब नीमताल में पचहत्तर लाख घनफीट पानी समाता था और तेरासी बीघा क्षेत्रफल के इस विशालकाय तालाब में बारहों महीने पानी भरा रहता था।

गर्मियों में सैंकड़ों पशु नीमों के नीचे डेरा डाले रहते थे और जाड़ों में हजारों विदेशी पक्षी नीमताल में बसेरा करते थे। तालाब में कमल के फूलों और मछलियों की कमी नहीं थीं।

लेकिन नीमताल की जगह अब घूरे के ढेर हैं, सड़ते हुए डबरे हैं, सीलन में डूबी बस्ती इंदिरा कॉम्प्लेक्स है, बस स्टैण्ड है, सब्जी मण्डी है और है सुलभ कॉम्प्लेक्स, जिससे निकले गन्दे पानी ने नीमताल को एक बदबूदार जोहड़ में बदल दिया है। जिस तालाब में कभी हाथी डुबा पानी था, उसकी बदबूदार दलदल में अब तो सूअर भी नहीं डूबते।

आज का नीमताल हमारी नई सोच का नमूना है। जिस पुराने तालाब का निस्तारी स्वरूप बदलने में राजा के हाथ ठिठक गए थे, उसे निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों ने बेरहमी से पुरवा दिया। सोचा गया कि इस तालाब को पूर देने से निकली ज़मीन से बेहिसाब फायदे होंगे, तालाब में घूरे डलवाये जाने लगे। लोग बताते हैं कि उन्हीं दिनों गिग्गिक नाम का एक पागल भी तालाब की पाल पर मँडराया करता था। उसे बस एक ही खब्त था- किसी भी नुकीली चीज से वह दिन भर नीम के पेड़ों की छाल उतारता रहता था। गिग्गिक की इस हरकत से एक-एक करके सभी नीम सूख गए।

एक पागल ने नीम खत्म कर दिये और कुछ पागलों ने तालाब खत्म कर दिया, नीमताल खत्म हो गया। अब न नीम हैं, न तालाब में पानी। और हाँ, नीमताल के आसपास के कुओं में अब पहले जैसा जलस्तर भी नहीं रहता है। बीच में एक साल ऐसा गुजारा, जब पानी कम बरसने से नीमताल में वो थोड़ा-सा पानी भी नहीं आया, जो बरसात में आ जाता था। तब नगरपालिका ने घूरों के बीच बने गड्ढे में एक टैंकर पानी डाला था, तब जाकर कहीं मंगल-गीत गाती महिलाएँ भुजरियाँ सिरा पाई थीं।

सिर्फ नीमताल या विदिशा के दूसरे तालाबों का ही ऐसा दुखद अन्त नहीं हुआ, इलाके भर के तालाबों की अब यही हालत है और नतीजे में इलाके भर में साल-दर-साल जल संकट बढ़ता ही जा रहा है।

कहाँ गए ये कुएँ-बावड़ी?


इस सदी के शुरू होने तक विदिशा में और इर्द-गिर्द करीब 100 कुएँ और बावड़ियाँ अस्तित्व में थे, जिनमें से चौदह कुएँ, तो कुछ अन्तर से पेढ़ीशाला के पीछे ही थे। जो कुएँ मौजूद हैं, उनमें से 30 तो आज भी इस्तेमाल लायक हैं। बचे-खुचे कुओं में से इमामबाड़े के कुएँ, आमवाले कुएँ, कोकाजी के कुएँ, चौबेजी के कुएँ, काजीजी के कुएँ, ढोली बुआ के कुएँ, बालकदास की बगिया के कुएँ और मोहनगिरि के कुएँ का पानी तो दूरस्थ मुहल्लों में भी पीने के लिये ले जाया जाता था। मोहनगिरि के कुएँ का पानी दवा की तासीर का माना जाता है। पुराने वैद्य-हकीम पेट के मरीजों को इसका पानी पीने की सलाह देते थे।

इनके अलावा शंकर मन्दिर की बावड़ी, पान बाग की बावड़ी, बीजा मंडल की बावड़ी, रामप्रसाद वकील की बावड़ी और हवेली की बावड़ी भी पेयजल का समृद्ध स्रोत थीं। आकार की दृष्टि से शहर की सबसे बड़ी बावड़ी हवेली की थी। जो अभी भी आधी भरी हुई है।

शहर के प्रमुख जलस्रोतों में से एक सांकल कुआँ है। नीमताल के किनारे यह कुआँ आज भी दो-तिहाई पानी से भरा हुआ है। ये सभी कुएँ और बावड़ी भेलसा की जनसंख्या के मान से (सन् 1951 में आबादी 19,184) पर्याप्त पानी उपलब्ध कराने में सक्षम थे, लेकिन इनकी सफाई अब वर्षों से नहीं हुई है। सन् 1948 में जैसे ही बेतवा नदी से पेयजल योजना शुरू हुई, सरकार तो सरकार, जनता ने भी अपने परम्परागत जलस्रोतों से यूँ मुँह फेर लिया जैसे उनसे न तो कभी वास्ता था और न भविष्य में पड़ेगा।

पेढ़ी स्कूल के आसपास के कुओं पर मकान बना लिये गए। कुएँ पेयजल स्रोत न होकर देवालयों का कचरा फेंकने के स्थान बनकर रह गए हैं। कई घूरा फेंकने के गड्ढों में बदल गए हैं, तो कुछ सेप्टिक टैंक बन गए हैं। लोगों ने कुओं और उनके पाटों पर भी अतिक्रमण करके मकान बना लिये हैं। जिन कुओं के पाट पर जूते पहन कर चढ़ना पाप समझा जाता था, उनमें अब मनचले मौज आने पर कूद-कूद कर नहाते हैं। विजय मन्दिर की बेहद खूबसूरत बावड़ी भी संरक्षित इमारत घोषित होते ही सड़ते पानी के जोहड़ में बदल गई है।

इनका ख्याल किसे है?


विदिशा में जब नल-जल योजना शुरू हुई तो शहर में कुल आबादी के करीब एक चौथाई जानवर थे। यह पशुधन पानी के लिये या तो बेतवा जाता था या फिर शहर के ताल-तलइयों पर। इक्का-दुक्का पशुपालक अपने जानवरों को कुएँ-बावड़ियों पर भी पानी पिलाते थे।

धीरे-धीरे शहर के तालाबों की शामत आई। उसके बाद कुएँ-बावड़ी खत्म हुए। बेचारे जानवर कहाँ जाते! वे सब भी नगरवासियों की तरह टोटी वाले नलों के गुलाम हो गए। चन्द बरस पहले जो नल-जल योजना 67 हजार लोगों के ही लिये ही थी, आज एक लाख आबादी के साथ शहर के हजारों जानवरों को भी पानी मुहैया करा रही है। पशु आदमी से चार गुना ज्यादा पानी पीते हैं। नीमताल समेत शहर के तमाम तालाबों के विनाश के बाद नल-जल योजना पर पड़े इस दबाव की ओर किसी का ध्यान नहीं है।

गाँव शहरों के सारे पुराने कुओं पर पाट और घिरानी की तरह एक बेहद जरूरी चीज हुआ करती थी- चुरई, चरई या चाट। पशुओं को पानी पिलाने का पुख्ता इन्तजाम। इलाके भर में पत्थर को फोड़कर बनाई गई ये नाद-होद या चुरई, कुओं के किनारे आज भी पड़ी नजर आती हैं लेकिन खाली, सूखी या टूटी। तालाब पूर दिये गए। चुरई का जमाना नहीं रहा और जानवर! वे न तो नल कूप का बटन दबा पाते हैं, न हैण्डपम्प चला पाते हैं और ना ही अपनी मर्जी से नलों की टोंटी खोल पाते हैं। विकसित समाज ने उनसे तालाब और चुरई की व्यवस्था छीनकर गन्दे, बदबूदार पानी की प्रदूषित नालियाँ दे दी हैं।

लौट के बुद्धू घर को...


पिछले कुछ सालों में विदिशा में पानी की किल्लत जब बहुत हो गई तो प्रशासन को अपने नीमताल की सुध आई। तय किया गया कि उसे पुनर्जीवित किया जाये।

मौके पर जब नष्ट कर दिये गए नीमताल से निकली ज़मीन की नापतोल की गई तो पता चला कि तालाब के पेटे में बस स्टेण्ड, इंदिरा कॉम्पलेक्स, महिला हॉस्टल, सब्जी मण्डी, माईक्रोवेव स्टेशन और सुलभ कॉम्पलेक्स बन चुके हैं। बाकी बची ज़मीन में कन्या महाविद्यालय और स्टेडियम प्रस्तावित हैं। स्टेडियम का शिलान्यास भी किया जा चुका है।

इन सबको दरकिनार करके प्रशासन ने 1996 में अपनी गलती सुधारने की ठानी। जितनी लापरवाही से नीमताल नष्ट किया गया था उतनी ही संजीदगी से पुनरुद्धार की योजना बनाई गई। योजना के मुताबिक चार हेक्टेयर में जलाशय और बाकी में बगीचा, झूलाघर, दौड़पथ, वृक्षारोपण या इसी तरह के दूसरे निर्माण करना तय हुआ। योजना के मुताबिक पाँच साल में सत्ताईस लाख रुपये खर्च किये जाने हैं।

और सचमुच जून 96 में नीमताल में बुलडोजर चलने लगे। बारिश आने तक नीमताल फिर से अंगड़ाई लेने लगा। जून 97 तक नीमताल का 15 हजार क्यूबिक मीटर से भी ज्यादा कचरा किनारे लगा दिया गया। नीमताल का नाम सार्थक करने की मुहिम में वन-विभाग ने स्कूली बच्चों की मदद से ढाई हजार नीम के पौधे न केवल लगा दिये हैं बल्कि उनकी सुरक्षा के लिये वन-विभाग ने बाड़ भी लगा दी है। विदिशा में जहाँ ज्यादातर नलकूप सूखे निकलते हैं वहीं इन पौधों को पानी देने के लिये सूखे तालाब में खोदे गए नलकूपों से भरपूर पानी निकल रहा है।

नीमताल के दिन फिर रहे हैं। शायद यह प्रशासन का प्रायश्चित है कि इस योजना को ऊपर से मदद में छदाम भी नहीं आई है, फिर भी दस महीने बाद बुलडोजर चल रहे हैं।

Path Alias

/articles/taalaaba-tao-kai-thae-para

Post By: Hindi
×