मध्य प्रदेश में एक तालाब को लोक अंचल में डॉक्टर की तरह का मान मिला हुआ है। लोग अपनी बीमारी का इलाज कराने यहाँ पहुँचते हैं। इस पर उनकी खासा विश्वास है और कई लोगों की बीमारियाँ ठीक होने का दावा भी किया जाता है।
स्थानीय रहवासियों के मुताबिक इसके पानी में औषधीय गुण है तथा इसमें स्नान करने से कई तरह की बीमारियों का उपचार होता है। बीमार व्यक्तियों को स्नान कराने के लिये आसपास के कई गाँवों से भी लोग यहाँ पहुँचते हैं। कई अवसरों पर तो यहाँ लोगों की इतनी भीड़ हो जाती है कि मेला-सा भर जाता है।
इलाके में रहने वाले डॉक्टर भी कहते हैं कि इसके पानी में कुछ ऐसे औषधीय गुण हैं, जो बीमारियों को ठीक कर सकते हैं। उन्होंने खुद कुछ ऐसे रोगियों को देखा है जो यहाँ स्नान करने के बाद ठीक हो गए। मेडिकल ऑफिसर डॉ. आरसी चौहान बताते हैं कि कई बार जलस्रोत के आसपास कोई औषधीय पेड़-पौधे या जमीन में कोई ऐसा तत्व मौजूद हो सकता है।
यहाँ के पानी में ऐसा कौन-सा औषधीय गुण है, यह तो शोध का विषय है लेकिन इतना तय है कि यहाँ हर दिन दर्जनों रोगियों को इस पानी से स्नान कराने के लिये लाया जाता है। ग्रामीणों का दावा है कि इस पानी से चर्मरोग सहित कई बीमारियों का इलाज सम्भव है। वे ऐसे कई उदाहरण भी बताते हैं और उन लोगों से भी मिलवाते हैं, जिन्हें यहाँ आने के बाद स्वास्थ्य लाभ मिला है।
इसी तालाब से नर्मदा की सहायक मान नदी का उद्गम भी है। मान नदी आगे चलकर विस्तृत होती जाती है। धार जिले में मान नदी लम्बे भूभाग से होकर बहती है और आगे चलकर नर्मदा में मिल जाती है। प्रदेश सरकार ने 5 अक्टूबर 2006 को धार के जीराबाद के पास मान नदी पर बनी मान परियोजना को लोकार्पित किया। अब इसकी नहरों से इलाके के करीब 15 हजार हेक्टेयर आदिवासी क्षेत्र में सिंचाई होती है।
मध्य प्रदेश के जिला मुख्यालय धार से करीब 40 किमी दूर मांडव रोड पर नालछा के पास जीरापुर में प्राचीन भग्नावशेष के रूप में बचे चौंसठ योगिनी मन्दिर से लगा यह स्थान बड़ा ही मनोरम है तथा तालाब में विशाल जलराशि के कारण यहाँ की छटा बड़ी ही सुन्दर लगती है।
शाम और सुबह के समय यहाँ आसपास के पेड़ों पर पक्षियों का कलरव और माता मन्दिर की घंटियों का स्वर कर्णप्रिय लगता है। धार-मांडव रोड पर नालछा से पहले लुन्हेरा फाटा से भीतर यह स्थान लोगों के लिये आस्था का केन्द्र है तो बीमारियों के उपचार का केन्द्र भी है। लोक विश्वास है कि यहाँ के जल में स्नान करने से चर्म रोग सहित कई बीमारियों का उपचार होता है।
स्थानीय रहवासी राधेश्याम मंडावदिया बड़े विश्वास से कहते हैं कि इस पानी के प्रभाव से हजारों लोग स्वस्थ होकर घर लौटते हैं। वे आगे कहते हैं- “लोगों की इस स्थान के प्रति गहरी आस्था है और बीमारियों में लाभ मिलने के जन विश्वास के चलते यह स्थान काफी दूर तक पहचाना जाता है। यहाँ दूर-दूर से ग्रामीण आते हैं। लोगों का विश्वास है कि यहाँ आने से रोग ठीक हो जाते हैं। यहाँ हर बीमारी के लिये अलग-अलग प्रतिमाएँ हैं, जिनकी पूजा अर्चना और उनके उतरे हुए पानी से स्नान करने से रोग ठीक हो जाते हैं। लकवे या शारीरिक अक्षमता वाले बीमारों को यहाँ लाकर प्रतिमा के स्नान कराने पर इकट्ठा हुए पानी से लगातार महीने भर स्नान कराने पर बीमारी ठीक हो जाती है। इसी प्रकार एक खंडित प्रतिमा के बारे में बताया जाता है कि यह मोतीझरा माता है और मोतीझरा (टायफाइड) में इनके स्नान के पानी का उपयोग करने पर लाभ मिलता है। मोतीझरा ठीक होने पर यहाँ मोतीचूर के लड्डू भी चढ़ाए जाने का भी रिवाज है। इसके अलावा मानसिक रोगियों को भी बड़ी संख्या में यहाँ सरोवर के जल में स्नान कराने मात्र से कई मानसिक रोगियों को लाभ मिलने की जनश्रुति है। ऐसे कई किस्से उदाहरणों के साथ ग्रामीण श्रद्धालु बताते भी हैं।"
चौंसठ योगिनी के शक्ति पीठ भारत में जबलपुर सहित कई स्थानों पर मिलते हैं। इसी क्रम में धार जिले में भी चौंसठ योगिनी का एक मन्दिर खंडित रूप में स्थित है। कभी यहाँ भव्य शक्तिपीठ रहा होगा लेकिन अब यह स्थान बहुत ही सांकेतिक रह गया है। यहाँ मुख्य मन्दिर में सिन्दूरलेपित पाषाण प्रतिमा है, जिसका शिल्प बहुत पुराना है। इसमें चौंसठ छोटी-छोटी प्रतिमाएँ होने की बात कही जाती है।
लोग सरोवर में स्नान करने के बाद यहाँ दर्शन करते हुए पूजा अर्चना करते हैं। इसके अतिरिक्त करीब अस्सी फीट लम्बी दीवारों पर भी कई सिन्दूर लेपित देवी प्रतिमाएँ भी रखी गई हैं। लोग इसे ही चौंसठ योगिनी तथा बावन भेरू का स्थान मानते हैं तथा बड़ी संख्या में यहाँ आते हैं। अब मन्दिर के नाम पर तालाब किनारे एक लम्बी दीवार भर है, जो कभी यहाँ भव्य शक्ति पीठ रहे बड़े मन्दिर के पत्थरों से चुनी हुई है और नक्काशीदार पत्थरों और प्राचीन प्रतिमाओं को इस दीवार पर रख दिया गया है।
सेवादार सुनील डाबी बताते हैं- "इसमें अधिकांश प्रतिमाएँ दसवीं-ग्याहरवीं शताब्दी की परमारकालीन प्रतीत होती है। यहाँ की व्यवस्था देखने के लिये गाँव के लोगों ने प्रति घर से एक युवक की सेवादार के रूप में ड्यूटी लगाई जाती है। यहाँ किसी पुजारी या पण्डे की जगह सारी व्यवस्थाएँ ग्रामीण ही देखते हैं। केवल पूजा अर्चना के लिये पंडित को बुलाया जाता है। अब यहाँ मध्य प्रदेश शासन के धर्मस्व विभाग की ओर से यात्रियों की सुविधा के लिये शेड तथा पेवर ब्लाक लगाए गए हैं। बाहर पूजन सामग्री की कुछ दुकानें भी हैं।"
स्थानीय पत्रकार अशोक मेडतवाल बताते हैं- "इस तालाब के तल में प्राचीन समय का अथाह धन गड़ा होने की भी कई किंवदंतियाँ जुड़ी हुई हैं। बताया जाता है कि आज तक कई बार लोगों ने इसे निकालने की कोशिश की लेकिन कभी किसी को कोई सफलता नहीं मिली है। इसके बारे में कहावत भी है- 'मानसरोवर तालाब, नौ सौ गेंडा माल, कौन जाने इस पार कि उस पार' मतलब इस तालाब के तल में नौ सौ गैंडों पर लादकर लाया गया अथाह धनराशि और सोने-चाँदी के गहने जमीन में कहीं गड़े हुए हैं, ये इस पार हैं या उस पार, इसे कोई नहीं जानता। ग्रामीण बताते हैं कि करीब सवा सौ साल पहले कुछ तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों ने इस खजाने को ढूँढने के लिये मजदूर लगाकर काम शुरू भी किया था, उन्हें धरती में तालाब के तल में एक गुप्त दरवाजा भी मिला था लेकिन इस दरवाजे से जो भी भीतर गया, वह आज तक लौटकर बाहर नहीं आया। इस वजह से खुदाई के काम को वहीं रोक दिया गया।"
यहाँ के इतिहास के बारे में कहीं कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती लेकिन ग्रामीणों से हुई बातचीत और स्थानीय साक्ष्यों को देखते हुए कुछ बातें स्पष्ट हैं। बताया जाता है कि इसका पुराना नाम नलकछपुर हुआ करता था और इसकी जनसंख्या सात लाख हुआ करती थी।
बाद के सालों में मांडू में हुई किसी लड़ाई के दौरान दुश्मनों ने इसे उजाड़ दिया और यहाँ का माल असबाब लूट लिया। यहाँ आज भी प्राचीन नगर होने के भग्नावशेष तथा प्रतिमाएँ और नक्काशीदार पत्थर मिलते रहते हैं। इसके कुछ दूरी पर ही जैन धर्म की सैकड़ों साल प्राचीन प्रतिमाएँ भी महिलाओं को पीली मिट्टी खोदते समय मिली हैं।
तालाबों के प्रति हमारे लोक संसार में खासी श्रद्धा और सम्मान भाव रहा है। जलाशयों के प्रति सम्मान भाव से ही वे सैकड़ों सालों से हमारे समाज को पानी को रोकने तथा उसका समुचित उपयोग करने के लिये उपलब्ध रहे हैं। इनके सम्मान भाव में कमी आने के बाद से ही हमारा समाज बेपानी होने लगा है।
कई तालाबों और नदियों के तटों के बारे में लोक में यह मिथक रहा है कि वहाँ स्नान करने से लोगों की शारीरिक और मानसिक व्याधियों का इलाज होता है। नर्मदा को तो अंचल में माई यानी माँ का स्थान दिया गया है और लोग नर्मदा से अपनी मनोकामनाएँ माँगते हैं। इन स्थानों का औषधीय महत्त्व इसलिये भी होता है कि इनमें आसपास की वनस्पतियों या जमीन में किसी खास खनिज-लवण आदि की मात्रा भी हो सकती है।
यह हमारे प्राचीन समाज की दूरदर्शिता ही थी कि उन्होंने पानी के महत्त्व को समझा और इसके लिये ऐसे जलाशयों का निर्माण किया और उन्हें हमारी पीढ़ियों तक के लिये सहेजा। इसीलिये लम्बे समय से अब तक हमारा समाज पानीदार बना रहा। जरूरत है, जलाशयों के प्रति सम्मान भाव बनाए रखने की सोच को फिर से पुनर्जीवित करने की, ताकि समाज हमेशा पानीदार बना रह सके।
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