सभी पूर्वाभिमुख बहने वाली नदियां भारी (गुरु) होती हैं और पश्चिमाभिमुख बहने वाली नदियां निश्चय ही हल्की होती हैं। प्रत्येक देश में अपने गुण विशेष से नदियां गौरव (भारीपन) तथा लाघव (हल्कापन) को घारण करती हैं।
विन्ध्य पर्वत से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर की ओर जो नदियां हैं वे क्रमशः निम्नलिखित गुण को धारण करती हैं। विन्ध्य से पूरब की नदियां वातरोग तथा पेट की गुड़गुडाहट को दूर करती हैं, दक्षिण की नदियां, कफविकार एवं पित्त-विकार को नष्ट करती हैं। पश्चिम की नदियां पित्त को बढ़ाती हैं तथा उत्तर की नदियां पथ्यपाक करने वाली हैं। हिमालय, मलयाचल, विन्ध्याचल तथा सत्य पहाड़ पर जो नदियाँ स्रवति (उत्पन्न होत्ती) हैं वे शिरोरोग आदि दोषों को उत्पन्न करती हैं और वहां उत्पन्न न होकर बहने वाली नदियां शिरोरोग आदि दोषों को दूर करती हैं।
विभिन्न ऋतुओं के अनुसार जल के गुण
वर्षा ऋतु की नदियों का जल पीनस रोग (दुर्गन्धयुक्त नासा साव) कफजन्य विकार, श्वासवृद्धि तथा कास को उत्पन्न करता है। शरद-काल में उत्पन्न नदियों का जल पथ्य है तथा वातविकार एवं कफविकार को दूर करता है। हेमन्तकाल में नदियों का जल- बुद्धिवर्धक होता है। शिशिर तथा वसन्त काल में नदियों का जल संताप को दूर करता है तथा कल्याणकारक होता है और ग्रीष्म ऋतु में प्यास, दाह, वमन तथा थकावट को दूर करता है और अच्छे गुणों को देने वाला है।
आनूप देश के जल का गुण
आनूप देश का जल स्वादिष्ट, स्निग्ध, पित्तशामक तथा गुरु होता है। पामा, कण्डूति (खुजली), कफ विकार, वातविकार तथा ज्वर रोग को बढ़ाता है। जांगल प्रदेश के जल का गुण जांगल प्रदेश का जल स्वादिष्ट त्रिदोषनाशक तथा रुचिकारक होता है। यह पथ्य है, आयु, बल, वीर्य एवं पुष्टि को देता है तथा अच्छी तरह कान्तिवर्धक है।
साधारण प्रदेश के जल का गुण
साधारण प्रदेश का जल रुचिकारक, जाठराग्निदीपक, पाचक तथा हल्का होता है। यह थकावट तथा प्यास को दूर करने वाला, बातज, कफज तथा मेदोरोग को नष्ट करने वाला एवं पुष्टिकारक होता है।
देश तया मिट्टी के भेद से जल के गुण
देश विशेष के अनुसार ताम्रवर्ण की मिट्टी में उत्पन्न जल वातादि दोषों की उत्पन्न करने वाला है, धूसर मिट्टी में उत्पन्न जल जड़ताकारक, दुष्पच तथा अनेक दोषों को उत्पन्न करता है। पहाड़ के ऊपर से उत्पन्न जल वातनाशक स्वच्छ, पथ्य, हल्का तथा स्वादिष्ट है और श्याम (काली) वर्ण की मिट्टी से उत्पन्न जल श्रेष्ठ है तथा त्रिदोष शामक एवं सभी प्रकार के रोगों को नाश करने वाला है।
उद्भिद (भूधरा) जल का गुण
उद्भिद (भूधरा) से उत्पन्न जल पित्तशामक तथा हल्का होता है।
केदार (पानी भरे खेत) के जल का गुण
केदार का जल विपाक में स्वादिष्ट, दोषकारक तथा भारी होता है। वहीं केदार जल चारों तरफ से बंधे होने पर विशेष दोष को उत्पन्न करने वाला है।
हंसोदक जल तथा उसके गुण
नदी का जल नवीन मिट्टी के घड़े में रखकर दिन में सूर्य की किरणों से तपाया हुआ, रात्रि में चन्द्रमा की किरणों से शीतल किया हुआ, मन्दाग्नि से पकाया हुआ इलायची, खश आदि से सुगन्धित किया हुआ जल, हंसोदक जल कहलाता है। यह हंसोदक जल थकावट को दूर करने वाला है और पित्तजन्य उष्णता, दाह, विषजन्य उपद्रव, मूर्च्छा, रक्त विकार तथा मदात्यय (अधिक मद्य सेवनजन्य उपद्रव) में हितकर कहा गया है।
नासा द्वारा पान किया गया जल (ब्राण पीतोदक) के गुण
जो व्यक्ति प्रतिदिन रात्रि में स्वादिष्ट ठंडा जल का पान करता है या जो बुद्धिमान व्यक्ति प्रातःकाल नासारन्ध्र (नाक) के द्वारा जल पान करता है वह शीघ्र ही गरूड़ की नेत्रशक्ति से स्पर्धा करने लगता है अर्थात गरूड़ की नेत्रशक्ति के समान गुणवाला हो जाता है, और बुद्धि में सवर्गाचार्य गुरु को हंसता है तथा शरीर से दोनों अश्विनी कुमारों को निन्दित कर देता है। अर्थात् रात्रि में शीतल जल पीने से तथा प्रातः नासिका द्वारा जल पीने से नेत्रशक्ति, बुद्धि तथा शरीर की वृद्धि होती है।
दूषित जल का लक्षण
विष्ठा, मूल, अरुण विष एवं नीलिका विप से युक्त, गरम, गाढ़ा, फेनयुक्त, दांतों से ग्रहण करने योग्य, विना ऋतु का (ऋतु विपरीत), नमक मिला हुआ, सेवार से ढका हुआ, जन्तु समूह (क्रिमि झुण्ड) से मिला हुआ, अत्यन्त भारी, सड़े पत्तों के ढेर से गंदला और चन्द्रमा तथा सूर्य की किरणों से तिरोहित अर्थात जिसमें सूर्य तथा चन्द्रमा की किरण न जाती हो ऐसा जल जड़ तथा दोषकारक होता है। इस प्रकार के प्रदूषित जल को नहीं पीना चाहिए।
रोगविशेष में शीतल जल का निषेध
पार्श्वशूल (पसली का दर्द), प्रतिश्याय, वातविकार, नवीनज्वर, हिचकी, आध्यमान (पेट में वायु का भरना) आदि रोग में शीतल जल नहीं
पिलाना चाहिए।
रोग विशेष में शृतशीत जलपान का विधान
धातुक्षय, रक्त विकारजन्य रोग, वमन, रक्तप्रमेह, विषजन्य भ्रम, जीर्ण तथा शिथिलता (दीर्वल्य), सन्निपात में शृतशीत (पकाकर शीतल किया हुआ) जलपान कराना प्रशस्त है।
पादादिहीन तप्त जल के गुण
चौथाई भाग जलाकर पकाया हुआ जल वातादि रोगों को नाश करने वाला पथ्य कहा गया है। अद्धविशिष्ट तप्तजल वात-पित्त को नष्ट करता है तथा चतुर्थाशावशिष्ट संतप्त जल तो तीनों दोषों को नष्ट करता है।
ऋतुविशेष में पादादिहीन तप्त जल के गुण
हेमन्त ऋतु में चतुर्थाशरहित तप्तजल, शरदऋतु में अष्ठमांशावशिष्ट तप्त जल, वर्षा, वसन्त, शिशिर तथा ग्रीष्म ऋतु में जर्जाशावशिष्ट तप्त जल प्रशस्त होता है।
ऋतुविशेष में कोपादि जल ग्रहण का विधान
कुओं तथा झरनों का जल शिशिर तथा वसन्त ऋतु में सेवन करना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु में चीड़ का जल सेवन करना चाहिए। इसके विपरीत जल का सेवन करना दोषकारक होता है।
उष्ण जल सेवन करने का नियम
दिन का गरम हुआ जल रात को जड़ (जड़ता युक्त) हो जाता है तथा रात गरम किया हुआ जल दिन में भारी हो जाता है अतः दिन का गरम किया हुआ जल दिन में तथा रात का गरम किया हुआ जल रात में ही सेवन करना चाहिए।
अवस्वा विशेष में शीत तया उष्म जल की हितकारिता
काल (समय), अवस्था तथा देह की स्थिति के अनुसार कहीं-कहीं पर शीतल जल तथा कहीं-कहीं पर थोड़ा गरम जल और कहीं-कहीं पर ठंड़ा किया हुआ जल का प्रयोग मनुष्यों के लिए पथ्य होता है।
रात्रि में गरम जलपान का गुण
रात्रि में पान किया हुआ गरम जल वातरोग को दूर करता है, कफ को शीघ्र ही निकालता है, अरुचि (भोजन में अरुचि) को नाश करता है, मुक्तान्न को पचाता है तथा जाठराग्नि को प्रदीप्त करता है।
समय विशेष में जलपान का गुण
रात्रि में पिया हुआ जल अजीर्ण दोष को शान्त करता है, ऐसा सामान्यतः विद्वान लोग कहते हैं। रात्रि के अन्त में पिया हुआ जल सभी प्रकार के रोगों को दूर करता है। भोजन के बाद पिया हुआ जल पुष्टिकारक होता है जबकि भोजन के पहले पिया हुआ जल अपौष्टिक होता है और भोजन के बीच-बीच में सीमित मात्रा में पिया हुआ जल रुचिकारक, जाठराग्निवर्द्धक तथा पथ्य होता है।
मात्रा विशेष में जलपान का नियम
भोजन के समय अत्यधिक जलपान करने से जाठराग्नि अन्न को नहीं पचाली, बिल्कुल जल न पीने से भी जाठराग्नि द्वारा अन्न का परिपाक नहीं होता। अतः मनुष्य जाठराग्नि को प्रदीप्त करने के लिए भोजन के बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा तथा वार-वार जल पीये।
अन्तरिक्ष जल के भेद
विद्वान लोग अन्तरिक्ष जल के चार भेद बताते हैं। धार, कारक, तौषार तथा हैम। ये चार प्रकार का अन्तरिक्ष (आकाशीय) जल होता है।
धार-आदिक चतुर्विध अन्तरिक्ष जल के स्वरूप
वर्षा के जल को धार जल, वर्षा तथा उपल (ओले) के जल को कारका जल, नीहार (ओस) के जल को तौषार जल तथा प्रातःकालीन हिम (वर्फ) के जल को हैम जल कहते हैं।
धारा जल के भेद
गंगा-धार तथा समुद्र-धार के भेद से धार-जल दो प्रकार का होता है। यहां पर गंग (गंगा का) धार जल अधिक गुणवाला, दोषरहित तथा उत्तम पाचक होता है।
गाड्गधार जल का लक्षण
जब आश्विन मास में स्वाति तथा विशाखा नक्षत्र के सूर्य होते हैं उस समय के मेघ का जल गाडूगधार जल होता है ऐसा विद्वान लोग कहते हैं।
गांडूगधार जल स्वादिष्ट, शीतल, रुचिकारक, कफ तथा पित्त को नष्ट करने वाला निर्दोष, स्वच्छ तथा हल्का होता है। प्रतिदिन आकाश से ग्रहण किया हुआ गाडूगधार जल अधिक गुणवान होता है। चोंदी के पात्र में दही युक्त जड़हन धान का भात में थोड़े देर के लिए बरसा हुआ मेघ का जल विकार रहित होता है इसको भी गांडूगधार जल कहते हैं। इसके विपरीत विकार युक्त होता है।
समुद्र धार जल के लक्षण
अन्य मास में जब मृगशिरा आदि नक्षत्रों में सूर्य के होने पर मेघ से जल बरसता है, उस जल को समुद्र धार जल कहा जाता है।
चन्द्रकान्तमणि से श्रुत जल का गुण
चन्द्रकान्तमणि से श्रुत जल पित्तनाशक, स्वच्छ तथा हल्का होता है। यह मूच्छा, रक्तपित्त (या रक्त पित्त विकार), दाह तथा कास (खाँसी) एवं मदात्यय में हितकर होता है।
समुद्रधार जल का गुण
समुद्र धार जल शीतल, कफ तथा वातवर्द्धक एवं भारी होता है। आश्विन माह में चित्रा नक्षत्र के सूर्य होने पर वही समुद्रधार जल गंगाधार जल के सदृश अधिक गुण वाला होता है। भूमि विशेष में गिरे जल का गुण पृथ्वी पर गिरा हुआ गंगाधार जल या समुद्रधार जल अपने-अपने आश्रय के अनुसार अन्य-जन्य रसादिक से युक्त हो जाता है। पार्थिव स्थल में गिरा हुजा उपरोक्त जल अम्लरस तथा लवण रस वाला होता है। जलीय स्थल में गिरा हुआ जल मधुर होता है। तैजस स्थल में गिरा हुआ जल कटु तथा रिक्त रसवाला होता है। वायवीय स्थल में गिरा हुआ जल कपाय रस वाला होता है तथा आकाशीय स्थल में गिरा हुआ जल अव्यक्त रस वाला होता है। यहां पर नाभस (आकाशीय) स्थल में गिरा हुआ जल दोष रहित तथा उत्तम जल कहा गया है।
आश्विन मास में वृष्टयभाव का दोष
जहां पर आश्विन मास में मेघ नहीं बरसता है वहां पर गांडूगजल के न होने पर उस समय अधिक रोग उत्पन्न होते हैं।
सभी अवस्था में जल देने के निर्देश
किसी समय उष्ण जल, किसी समय शीतजल, किसी समय गरमकर शीतल किया जल तथा कहीं-कहीं पर औषधी से युक्त जल देना चाहिए। कहीं पर भी जल देने का निषेध नहीं किया गया है। अर्थात् किसी न किसी रूप में प्राणी को जल देना आवश्यक है। जल के बारे में एक प्रसिद्ध कहावत
अरब देश मोरे बचवा गइने, सीख आये कौनो बानी।
आब-आब कर बचवा मर गये, खटिया नीचे घरा रह गया पानी ।।
सपंर्क करेंः डॉ. दया शंकर त्रिपाठी, बी 2/63 सी-1के, भदैनी, वाराणसी-221001 मो. 9415992203 ईमेलः
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