सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का एक विशेष अध्ययन

सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का एक विशेष अध्ययन
सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का एक विशेष अध्ययन

प्रस्तावना

जल आपूर्ति की उपलब्धता, किसी भी क्षेत्र विशेष की प्रमुख आवश्यकताओं में एक है जिस हेतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जल संरक्षण अत्यावश्यक हो जाता है भूमिगत जल संरक्षण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें जल अनेक प्रक्रियाओं द्वारा भूमि के नीचे पहुंचता है। जल निकासी व प्राकृतिक पुनर्भरण के मध्य असंतुलन की स्थिति में कृत्रिम रूप से जल का संरक्षण किया जाता है। इस प्रकार कृत्रिम रूप से भूमिगत जल के पुनर्भरण को भूमिगत जल संरक्षण भी कहा जाता है। सीकर जिले में सतही जल की स्थानीय उपलब्धता कम होने के कारण भूमिगत जल का पुनर्भरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाता है इसलिए जल संरक्षण आवश्यक हो जाता है। क्षेत्र में जल संरक्षण की परंपरागत विधियां प्राचीन समय से ही अस्तित्व में रही हैं जैसे बावड़ी, झालरा तालाब, नाड़ी, टांका, कुण्ड इत्यादि। ये सतही जल के एकत्रण व पुनर्भरण में भी बहुत उपयोगी विधियां हैं। आधुनिक विधियों में क्यारी विधि, एनिकट रिसाव तालाब, उपसतह बाधा, वाटर हार्वेस्टिंग आर्द्रता संरक्षण आदि को शामिल किया जाता है।

अध्ययन क्षेत्र

किसी स्थान विशेष की अवस्थिति से वहाँ की जलवायु मृदा, वनस्पति, कृषि, जीव-जन्तु मानव आदि प्रभावित होते हैं। भौगोलिक अवस्थिति के अनुसार ही उस स्थान पर विभिन्न वनस्पतियाँ एवं जीव, पर्यावरण के साथ सम्बन्ध स्थापित कर अपना विकास करते हैं। राजस्थान के जयपुर संभाग में स्थित सीकर जिला प्रायः समतल मैदानी भाग में स्थित है जो राजस्थान के उत्तर पूर्वी भाग में 27-21 से 28°12' उत्तरी अक्षांशों तथा 74°44' से 75°25 पूर्वी देशान्तरों के मध्य स्थित है। जिले की समुद्रतल से औसत ऊँचाई 427 मीटर है। इसके उत्तर में झुन्झुनूं जिला, उत्तर पूर्व में कुछ भाग हरियाणा राज्य पूर्व में जयपुर जिला, दक्षिण में जयपुर व नागौर जिले, पश्चिम में नागौर व चूरू जिले से सीमा लगी हुई है। अर्द्धचन्द्राकार / प्यालेनुमा आकृति में फैले इस जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 7742.44 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ की जलवायु अर्द्धशुष्क प्रकार की है, जहाँ 459.8 मि.मी. वार्षिक वर्षा होती है। जनगणना 2011 के अनुसार जिले की कुल जनसंख्या 2677333 है। यहाँ का जनसंख्या घनत्व 346 वर्ग कि.मी. है।

उद्देश्य

  1.  सीकर जिले में जल संसाधनों की उपलब्धता संबंधी जानकारी एकत्रित करना । अध्ययन क्षेत्र में जल संरक्षण की विभिन्न विधियों का अध्ययन करना। परिकल्पना
  2. अध्ययन क्षेत्र में जल संरक्षण की परंपरागत विधियों के साथ-साथ आधुनिक विधियों का प्रयोग भी बढ़ा है।

शोध विधि

उक्त अध्ययन में उद्देश्यों एवं परिकल्पनाओं को ध्यान में रखते हुए विषय पर उपलब्ध साहित्य से सम्बन्धित पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, प्रतिवेदनों का अध्ययन किया गया है। अध्ययन क्षेत्र की सूचनाएँ सरकारी कार्यालयों से एकत्रित करके विश्लेषित की गयी हैं। प्रस्तुत शोध अध्ययन हेतु सामग्री तथा आंकड़ों का एकत्रीकरण निम्नलिखित स्रोतों से किया गया है।

  1.  प्राथमिक स्रोत इस सम्बन्ध में अनुसूची प्रश्नावली कार्यकरण तथा परिचर्चा के बारे में व्यक्तिगत साक्षात्कार के माध्यम से उपयोग किया गया है।
  2.  द्वितीय स्रोत इस सम्बन्ध में प्रकाशित व अप्रकाशित सामग्री, पत्र-पत्रिकाओं, लेखों, कार्यालयों की सूचनाओं का उपयोग किया गया है।

सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत विधियां 

1. झालरा

सीकर जिले में जल संरक्षण की यह प्राचीनतम तकनीकों में से एक है। झालरा, अपने से ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका अपना कोई आगोर ( पायतान) नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने हेतु प्रयुक्त नहीं किया जाता अपितु धार्मिक रीति-रिवाजों, सामूहिक स्नान आदि कार्यों के उपयोग में आता था। इनका आकार आयताकार एवं कभी-कभी वर्गाकार होता है। इनके तीन ओर सीढियां बनी होती हैं। वर्तमान में अधिकांश झालराओं का प्रयोग बन्द हो गया है। जल संरक्षण की दृष्टि से इनका विशेष महत्व रहा है।

2. बावड़ी  

 अध्ययन क्षेत्र में शहरी क्षेत्रों एवं अधिक जनसंख्या वाले ग्रामीण क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए बावड़ी एक महत्वपूर्ण साधन रहा है। क्षेत्र में बावड़ी निर्माण की परम्परा प्राचीन है। सामान्यतः बावडियाँ एक विशेष वास्तुशास्त्र से बनाई जाती है। अधिकाशं बावडियाँ मन्दिरों किलों एवं मठों के नजदीक बनाई जाती थी । बावडियां पीने के पानी सिंचाई  एवं स्नान के लिए महत्वपूर्ण जल स्त्रोत रही हैं। अध्ययन क्षेत्र की  बावडियाँ वर्षा जल संचय के काम आती है। कहीं कहीं इनमें आवासीय व्यवस्था भी रहती थी । बावडियों की दशा ठीक नहीं है इनका जीर्णोद्धार किया जाना आवश्यक है।

3. झील

अध्ययन क्षेत्र में प्राचीन काल में परम्परागत जल संरक्षण सर्वाधिक झीलों से होता था यहाँ के राजा, सेठों व बनजारों और जनता ने झीलों का निर्माण करवाया। मुख्य रूप से झीलों का सिंचाई में प्रयोग होता है और कहीं-कहीं पेयजल स्त्रोत के रूप में भी प्रयोग होता है। अध्ययन क्षेत्र में कृत्रिम व प्राकृतिक दोनों प्रकार की झीलें पाई जाती हैं जिनमें प्रीतमपुरी झील कोछोर झील एवं रेवासा झील प्रमुख हैं।

4. तालाब

तालाब में मुख्यतः वर्षा के पानी को एकत्रित किया जाता है। प्राचीन काल से ही तालाबों का अस्तित्व रहा है जिनके समीपवर्ती क्षेत्र में कुआँ भी होता था। इनकी देख-रेख की जिम्मेदारी व्यक्ति विशेष या समाज की होती है अध्ययन क्षेत्र में धार्मिक तालाबों की सुरक्षा व संरक्षण अच्छा हुआ है। वर्तमान समय में तालाबों की स्थिति अच्छी नहीं रही है। हमें क्षेत्र के तालाबों का ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि इनसे अनेक कुओं एवं बावडियों को पानी मिलता है। सीकर जिले में माधव सागर तालाब, बडा तालाब, छोटा तालाब, नेछवा तालाब, नेहरू पार्क तालाब आदि हैं।

5. नाडी

यह एक प्रकार का तालाब ही होता है जिसमें वर्षा का जल एकत्रित किया जाता है। नाडी में जल निकासी की व्यवस्था भी होती है। जलोढ मृदा (मिट्टी) वाले क्षेत्रों की नाडी आकार में बड़ी होती है तथा इनमें पानी वर्षभर एकत्रित रह सकता है। नाडी वस्तुतः भूसतह पर बना एक गड्ढा होता है जिसमें वर्षा जल आकर एकत्रित होता रहता है। समय समय पर इसकी खुदाई एवं सफाई भी की जाती है, क्योंकि पानी के साथ गाद भी आ जाती है।

6. टांका

अध्ययन क्षेत्र में वर्षा जल को संग्रहित करने की यह भी एक महत्वपूर्ण परम्परागत तकनीक है, जिसे कुण्ड भी कहा है। इनका जल विशेष तौर से पेयजल के रूप में प्रयुक्त होता है। यह सक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढक दिया जाता है इसका निर्माण मिट्टी और सीमेंट से होता है। वर्षा के निर्मल जल को टांके में इकट्टा कर पीने के काम में लिया जाता है। टांका किलों में तलहटी में, घर की छत पर आंगन में और खेत आदि में बनाया जाता है। इसका निर्माण सार्वजनिक रूप से लोगों द्वारा, सरकार द्वारा तथा निजी निर्माण स्वयं व्यक्ति द्वारा करवाया जाता है। टांके के मुहाने पर सुराख होता है जिसके ऊपर जाली लगी रहती है, ताकि कचरा अन्दर नहीं जा सके। सामान्यतः टांका 30-40 फिट तक गहरा होता है। पानी निकालने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग किया जाता है।

7. टोबा

टोबा भी एक महत्वपूर्ण पारम्परिक जल संरक्षण विधि है, यह नाडी के जैसी ही आकृतिवाला होता है। इनकी गहराई नाडी से अधिक होती है। सघन संरचना वाली भूमि, जिसमें पानी का रिसाव कम होता है. टोबा निर्माण के लिए यह उपयुक्त स्थान मानी जाती है। इसका ढलान नीचे की ओर होता है साथ ही टोबा के आस-पास नमी होने के कारण प्राकृतिक घास उग आती है। टोबा में वर्ष के 12 माह पानी उपलब्ध रहता है।

8. कुई या बेरी

कुई या बेरी सामान्यतः तालाब के पास बनाई जाती है जिसमें तालाब का पानी रिसता हुआ जमा होता है। कुई मोटे तौर पर 10 से 12 मीटर गहरी होती हैं। परम्परागत जल संरक्षण के अन्तर्गत स्थानीय ज्ञान की आपात व्यवस्था कुई या बेरी में देखी जा सकती है। खेत के चारों तरफ मेड ऊँची कर दी जाती है जिससे वर्षा का पानी जमीन में समाता रहता है। खेत के बीच में एक छिछला कुआँ खोद देते हैं जहां इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा होता रहता है।

सीकर जिले में जल संरक्षण की आधुनिक विधियाँ

 1. एनिकट

जल संरक्षण की इस आधुनिक विधि में बांध से छोटी संरचना बनाई जाती है जो कि नदी के समानान्तर होती है जिसके जल को पेयजल एवं सिंचाई कार्यों में काम में लिए जाता है। एनिकटों को कुओं से जोड़  कर उनका जल पुर्नभरण किया जाता है एवं इससे जलोत्थान परियोजना भी सम्पादित की जाती है। अध्ययन क्षेत्र में व्यर्थ बहते जल को रोकने के लिए कई ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे बाँधनुमा एनिकटों का निर्माण किया गया है जिनमें अल्प वर्षा के समय क्यारियों द्वारा सिंचाई की जाती है जिससे किसानों की फसलों को लाभ मिलता है।

2. रिसाव तालाब  

रिसाव तालाबों का निर्माण वर्षा जल को तीव्रगति से भूगर्भ में भेजने के उद्देश्यों से किया जाता है। अध्ययन क्षेत्र में रिसाव तालाबों का निर्माण ऐसे स्थान पर किया है जहां की मिट्टी रेतीली होती है साथ ही जिसमें वर्षा जल का रिसाव तेजी से होता है क्योंकि यह क्षेत्र जल स्तर की गिरावट की समस्या से ग्रसित है। रिसाव तालाबों की गहराई कम तथा फैलाव अधिक होता है जिससे वर्षा जल रिसाव के लिए ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र मिल सके। रिसाव तालाब सामान्य अपवाह क्षेत्र से प्राप्त अपवाह को ग्रहण करने के लिए बनाया जाता है इसलिए इस प्रकार के तालाबों में सामान्यतया अतिरिक्त जल निकास द्वार की व्यवस्था नहीं की जाती परन्तु निकास द्वार की व्यवस्था कर असामान्य वर्षा की स्थिति में होने वाले नुकसान को रोका जा सकता है।

3. जल संरक्षण बांध

मुख्यतः जिन क्षेत्रों में वर्षा के दौरान सतही जल व्यर्थ में बह जाता है वहाँ उसे रोकने के लिए छोटे बांधो का निर्माण किया जाता है उन्हें जल संरक्षण बांध कहते हैं। जिससे बहते हुए व्यर्थ जल को सतह पर ही लम्बे समय तक संरक्षित किया जाता है । उपर्युक्त बांधों के द्वारा छोटे-छोटे कृत्रिम तालाबों का निर्माण होता है। छोटे बांध होने के कारण कृत्रिम बांधों पर दबाव कम पड़ता है एवं इसके अतिरिक्त यह जल सिंचाई, भूमिगत जल पुर्नभरण एवं जीवोम के विकास में उपयोगी हैं। ऐसे बांधों का निर्माण व देखरेख अध्ययन क्षेत्र में जलसंभर प्रबंधन कार्यक्रम के अन्तर्गत हो रहा है।

4. क्यारी विधि

सड़कों के किनारे व्यर्थ बहने वाले जल को संग्रहण करने के लिए सड़कों के दोनों किनारों पर एक क्यारीनुमा संरचना बना दी जाती है, जिससे व्यर्थ जल बहकर एक तालाबनुमा संरचना में संग्रहित हो जाता है यह विधि मुख्यतः असमतल स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में अधिक लाभकारी है। जिले में पहाडीयुक्त भूमि पर यह एक कारगर जल संरक्षण की तकनीक है जिसमें अध्ययन क्षेत्र की मालखेत की पहाडियाँ, हर्ष की  पहाड़ियाँ , रघुनाथगढ की पहाड़ियाँ वाले क्षेत्रों में इस विधि द्वारा जल संरक्षण को अपनाया है।

5. उप सतह बाघा

उपसतह बाधा कृत्रिम जल संरक्षण के लिए एक महत्त्वपूर्ण संरचना है यह नदी तल के नीचे अन्यत्र बनाया जाता है जिसमें जल पुनर्भरण के लिए मुख्य स्त्रोत नदी स्वयं है पूर्ण भराव की स्थिति में इसमें नदी से जल प्राप्त होना बन्द हो जाता है जिससे यह बाढ़  में सहयोगी नही होता। यह विधि सीकर जिले में अधिक विकसित नहीं हो पाई है क्योंकि अध्ययन क्षेत्र एक पहाड़ी उच्चावचीय गुणों वाला क्षेत्र है।

6. जल संरक्षण द्वारा त्वरित बाढ़ का प्रबंधन

सीकर जिले में अत्यधिक मूसलाधार वर्षा या बादल के फटने से कुछ समय के लिए आने वाली त्वरित बाढ़ों का जलभृतों के माध्यम से रोका जाता है जिससे भूमिगत जल पुनर्भरण में भी सहयोग मिलता है इस जल को शुद्धिकरण की प्रक्रिया के बाद मानवोपयोगी बनाया जा सकता है जिससे अध्ययन क्षेत्र में पेयजल की कमी को दूर किया जा सकता है।

7. स्वस्थानिक जल एवं आर्द्रता संरक्षण

स्वस्थानिक जल एवं आर्द्रता संरक्षण सूखे की स्थिति से लड़ने में अत्यधिक लाभदायक है इससे भूमि की उत्पादकता में वृद्धि होती है। यह विधि स्थान विशेष मृदा संरक्षण व जल संरक्षण के लिए निम्नतम मूल्य पर एक उपयोगी विधि है। जिले में इसका निर्माण न्यून ढाल वाले स्थान पर किया जाता है इन न्यून ढालों के आस-पास छोटे जल संग्रहण केन्द्र बनाये जाते है जो कि सूखे की भयानक समस्या से लड़ने में सहायक है।

निष्कर्ष

प्रस्तुत शोध पत्र में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधिओं का वर्णन किया गया है जिसके अन्तर्गत जल संरक्षण की परम्परागत विधियाँ जैसे तालाब, झील, नाडी, बावडी, टांका. टोबा, झालरा एवं कुई का विस्तृत अध्ययन है, साथ ही आधुनिक विधियों जैसे जल संरक्षण बांध, क्यारी विधि, एनिकट रिसाव तालाब, उप सतह बाधा आदि को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत शोध से स्पष्ट होता है कि सीकर जिले में जल संरक्षण की परंपरागत विधियों के साथ-साथ आधुनिक विधियों का प्रयोग भी बढ़ा है। क्षेत्र में जल प्रबंधन अत्यधिक आवश्यक ताकि भविष्य में जल संसाधन की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में रहे. साथ ही वर्तमान में भी सभी आवश्यक कार्यों में जल का उपयोग सीमित एवं संयमित हो।

सन्दर्भ सूची

  1.  शर्मा, आर. एन. ( 2022 ) वाटर कन्जर्वेशन स्ट्रैटजी एण्ड सोलुशन रावत प्रकाशन ।
  2. शर्मा. एच. एस. एवं शर्मा, एम.एल. (2020 ) राजस्थान का भूगोल, पंचशील प्रकाशन ।
  3.  सिन्हा अनिल कुमार (2020 ) भारत में जल संसाधन विकास एवं नियोजन, रेप्रो प्रकाशन।
  4. शुक्ला राजेश एवं शुक्ला रश्मि (2017) कृषि भूगोल, अर्जुन प्रकाशन।
  5.  जिला सांख्यिकी रूपरेखा 2015, सीकर जिला ।

स्रोत:- इंटरनेशनल जर्नल ऑफ जियोग्राफी एंड एनवायरनमेंट

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Post By: Shivendra
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