स्वयं सेवी संस्थाओं की भूमिका

साधारण वर्षा और साधारण बाढ़ वाले वर्ष में इस घटना पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता मगर वर्ष की इकलौती घटना होने की वजह से तिलक ताजपुर रातों-रात इन्टरनेट के जरिये सारी दुनिया के रिलीफ मैप पर आ गया। खूब वीडियो रिकॉर्डिंग हुई, फोटोग्राफी हुई, सहायतार्थ प्रस्ताव तैयार हुए और पूरे प्रान्त तथा बाहर और दाता समूहों की करीब 25 संस्थाओं की मीटिंग पास की एक संस्था में हुई और वहाँ संसाधन जुटाने और राहत कार्य चलाने की रणनीति तैयार हुई। इनमें से अधिकांश संस्थाएं वे थीं जिन्होंने 2008 में कोसी तटबन्ध में कुसहा में पड़ी दरार के बाद राहत कार्य चलाने का ‘अम्बुज रस’ चखा हुआ था।

यह वह मुकाम है जहाँ स्वयं सेवी संस्थाएं बहुत कुछ कर सकती थीं। दुर्भाग्यवश अब अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाओं का जो स्वरूप उभर कर सामने आ रहा है वह आर्थिक विकास और सेवा क्षेत्र की दिशा में काम कर रहा है। संघर्ष उनके लिए धीरे-धीरे गौण होता जा रहा है। ऐसी स्वयं-सेवी संस्थाएँ देश के अन्दर से या विदेशों से भी संसाधनों की व्यवस्था करके विकास कार्यक्रम चलाती हैं और अब इनके लिए विचारधारा के बदले कार्यक्रम ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं। संस्थाओं की कार्य प्रणाली में यह परिवर्तन निश्चित रूप से उनकी दाता संस्थाओं की पहल पर हुआ है क्योंकि वैचारिक परिपक्वता, चेतना स्तर में वृद्धि और लगातार चलते रहने वाले संघर्ष एक तो बहुत लम्बे खिंचते हैं और दूसरे उनके फलाफल को नापना बहुत मुश्किल होता है। बाजार व्यवस्था, प्रबन्धन तथा संस्थाओं पर हर तरह के आर्थिक नियंत्रण के इस दौर में देशी और विदेशी दाता संस्थाओं को अब सीमित समय में दिखायी पड़ने वाले परिणाम चाहिये। संघर्ष से सीमित समय में परिणाम प्रायः नहीं के बराबर मिलता है मगर आर्थिक कार्यक्रमों में यह स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। आखिर खोमचे लगाने वाला आदमी भी रात में परिवार के लिए चार पैसा कमा कर ही घर लौटता है। वह अगर वैचारिकता में फंसेगा तो उसके परिवार का क्या होगा? वैसे भी विदेशी सहायता से चलने वाला वैचारिक संघर्ष टिकाऊ नहीं हो सकता।

उधर सरकार कभी भी इस तरह की संस्थाओं को अपनी माया समेट लेने के लिए कह सकती है। इन सारे आयामों का ही परिणाम था कि आपातकाल के बाद अस्तित्व में आये सोशल ऐक्शन ग्रुप के आर्थिक स्रोत सूखते गए और इन्हें मजबूर होकर निश्चित और समयबद्ध आर्थिक कार्यक्रमों को हाथ में लेना पड़ा। इस परिवर्तन में 10-12 वर्ष का समय लगा। अब विचारधारा और संघर्ष पीछे छूट गया और आर्थिक कार्यक्रम ही महत्वपूर्ण हो गया। जिन संस्थाओं को अपने कार्यक्रम चलाने के लिए सरकार से पैसा मिलता था वह भी इसी गिरफ्त में आ गईं क्योंकि सरकार नहीं चाहती है कि उसी से संसाधन लेकर कुछ लोग हक की लड़ाई लड़ें और सरकार को परेशान करें। इस तरह से वह ‘दीवाने लोग’ जो कभी ‘दुनियाँ को बदलने के लिए’ ‘सिर में कफन बांध कर’ निकले थे, उनमें से अधिकांश संस्था को जिन्दा रखने के लिए मार्केट सर्वे में लग गए। अब जब संघर्ष मुद्दा ही नहीं रहा तो आज से 25-30 वर्ष पहले अपने आप को स्वयंसेवी संस्था कहने वाले लोगों ने अपने नये नामकरण ‘गैर सरकारी संस्था’ (एन.जी.ओ.) को बिना किसी ना-नुकुर के स्वीकार कर लिया।

अब संस्थाएं अपने दाता संस्थाओं के कार्यक्रमों को चलाती हैं और इनकी सारी चिन्तन प्रक्रिया इन्हीं दाता संस्थाओं के पास गिरवी रखी हुई है। चिन्तन अब इनका काम नहीं रहा, यह काम अब दाता संस्थाएं करती हैं और अधिकांश गैर-सरकारी संस्थाएं अब अपने दाता संस्थाओं की फरमाबरदारी भर करती हैं। बहुत सी दाता संस्थाएँ और विभाग अब अपने विकास कार्यक्रमों का बाकायदा टेण्डर निकालते हैं और यह संस्थाएं अब टेण्डर भर कर और बैंक गारण्टी देकर विकासमूलक कामों की ठेकेदारी करने लगी हैं। अगर यही क्रम चालू रहा तो वह दिन दूर नहीं जब समाज सेवा के लिए टेण्डर भरते समय सिक्यूरिटी डिपॉजिट की मांग की जायेगी और वे जमा भी की जायेगी। अब संस्था को संसाधन चाहिये तो ‘तख्त के सामने अदब से’ जाना ही पड़ेगा। आज बहुत ही कम स्वयंसेवी संस्थाओं में यह दम बचा है कि वह अपनी दाता संस्थाओं को रौब के साथ कहे कि उन्हें अमुक काम के लिए अपने तरीके से काम करने के लिए अनुदान चाहिये और अगर ऐसा नहीं होता है तो वह “यह लै अपनी लकुटि कमरिया” कह कर वह शान से बाहर आ जायें।

यही वजह है कि बाढ़ के प्रश्न पर अक्सर बहुत सी गैर-सरकारी संस्थाएँ साल-दर-साल राहत कार्यों में लगी रहती हैं और वह कभी अपने आप से यह सवाल नहीं पूछतीं कि आखिर इस तरह के कार्यक्रम का अन्त क्या है और इस तरह का काम करके क्या कभी भी समस्या का समाधान किया जा सकेगा? यह भी सच है कि कोई भी पीड़ित परिवार किसी सरकार या किसी एन.जी.ओ. के भरोसे विपत्ति का सामना नहीं करता है। राहत कार्यों में एन.जी.ओ. की संलिप्तता और आग्रह का एक उदाहरण बिहार में 2009 में देखने में आया। इस साल बिहार में बाढ़ नहीं आयी और राज्य में आमतौर पर सूखे की स्थिति बनी हुई थी। उत्तर बिहार के राहत का बाजार बाढ़ वाला है उसमें सूखे की रसाई मुश्किल से होती है। राज्य में बाढ़ नहीं आने के कारण यह संस्थाएं अकुलाहट भरी कसमसाहट के दौर से गुजर रही थीं और तभी बिल्ली के भाग से छींका टूटा और 1 अगस्त 2009 को बागमती का दायां तटबन्ध तिलक ताजपुर गांव के पास रुन्नी सैदपुर प्रखंड (सीतामढ़ी) में टूट गया।

साधारण वर्षा और साधारण बाढ़ वाले वर्ष में इस घटना पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता मगर वर्ष की इकलौती घटना होने की वजह से तिलक ताजपुर रातों-रात इन्टरनेट के जरिये सारी दुनिया के रिलीफ मैप पर आ गया। खूब वीडियो रिकॉर्डिंग हुई, फोटोग्राफी हुई, सहायतार्थ प्रस्ताव तैयार हुए और पूरे प्रान्त तथा बाहर और दाता समूहों की करीब 25 संस्थाओं की मीटिंग पास की एक संस्था में हुई और वहाँ संसाधन जुटाने और राहत कार्य चलाने की रणनीति तैयार हुई। इनमें से अधिकांश संस्थाएं वे थीं जिन्होंने 2008 में कोसी तटबन्ध में कुसहा में पड़ी दरार के बाद राहत कार्य चलाने का ‘अम्बुज रस’ चखा हुआ था। देश-विदेश के स्तर पर तिलक ताजपुर त्रासदी का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। इसके पहले कि बाहरी मदद वहाँ पहुँच पाती, सरकार ने प्रयास कर के दरार को पाट दिया और खुद राहत कार्यों की जिम्मेवारी संभाल ली। तब इन सारे एन.जी.ओ. का पूंजी निवेश व्यर्थ चला गया और वह मन मसोस कर रह गयीं कि उन्हें न तो पीड़ित मानवता की सेवा करने का अवसर मिला और न ही इस आपदा में उन्हें ‘विकास के अवसर’ के दर्शन हुए। इसका यह मतलब कतई नहीं होता कि जल-संसाधन विभाग पाक-साफ है। स्थानीय लोग बताते हैं कि जिस जगह तटबन्ध टूटा वहाँ उसके टूटने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी और यह दरार प्रायोजित थी जिसके बारे में हम अलग से अध्याय-11 में चर्चा करेंगे।

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Post By: tridmin
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