स्वच्छता की यह आदत जरूरी है


स्वस्थ बचपन के लिये साफ-सफाई बहुत जरूरी है। स्वच्छता की बुनियादी आदतें ही अगर जीवन में उतार ली जाएँ, तब भी हमारे नौनिहाल कई बीमारियों से बच सकते हैं। ऐसा करना तब और जरूरी हो जाता है, जब डायरिया भारत में असमय मौत का तीसरा बड़ा कारण बन गया हो। साफ-सफाई की आदतें हमारे बच्चों को किस तरह निरोग रख सकती हैं, बता रही हैं संचिता शर्मा।

हाथ की सफाई कई बीमारियों से बचाता हैहाथ की सफाई कई बीमारियों से बचाता हैदक्षिणी-पूर्वी कोलकाता के छह म्यूनिसिपल वार्डों के अस्पतालों में 18 फरवरी को 650 से ज्यादा लोग डायरिया यानी दस्त की शिकायत के साथ पहुँचे, जिनमें से 43 को भर्ती करना पड़ा था। मगर एक हफ्ता बीतने के बाद भी देश के इस तीसरे सबसे बड़े शहर को यह पता नहीं चल सका कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में लोग डायरिया की चपेट में आये कैसे?

मरीजों के मल के नमूने जाँच के लिये कोलकाता के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कॉलरा एंड ऐंटेरिक डिजीज (एनआईसीईडी) में भेजे गए थे, लेकिन नतीजा सिफर रहा। इंस्टीट्यूट की निदेशक डॉ. शांता दत्ता कहती हैं, “जिस बाघाजतिन स्टेट जनरल हॉस्पिटल में मरीजों का इलाज चल रहा था, वहाँ न तो मल के नमूने सही ढंग से लिये गए और न ही उनका रख-रखाव दिशा-निर्देश के अनुरूप किया गया था। नतीजतन, उन नमूनों के आधार पर कोई निष्कर्ष निकाल पाना सम्भव ही नहीं था।”

कोलकाता की यह घटना बताती है कि भारत में डायरिया सम्बन्धी रोगों की क्या स्थिति है? डायरिया गन्दे पानी और भोजन से होने वाला संक्रमण है। लाखों लोग हर वर्ष इससे प्रभावित होते हैं और हजारों की अकाल मौतें होती हैं। फिर भी दूषित माहौल में लोगों का जीवन अपनी गति चल रहा है। इससे जाहिर तौर पर खतरा बढ़ रहा है।

इंटीग्रेटेड डिजीज सर्विलेंस प्रोग्राम यानी आईडीएसपी के अनुसार, पिछले साल रोगों के प्रकोप के जिन 1,714 मामलों की प्रयोगशाला से पुष्टि हुई, उनमें से एक-तिहाई मामले गम्भीर डायरिया व फूड प्वाइजनिंग के थे। बाकी डेंगू, एंसेफलाइटिस, हैजा और चिकनगुनिया जैसे रोगों के थे।

वास्तविक तस्वीर


मगर आईडीएसपी का यह आँकड़ा सच्चाई का एक अंश मात्र है। देश की 55 फीसदी आबादी सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं कराती। इनमें से 51.4 फीसदी निजी अस्पतालों का रुख करती है, तो शेष 3.4 फीसदी घरों में इलाज करना पसन्द करती है। इस तरह निजी डॉक्टरों से इलाज कराने वाले ये लोग सरकार के सर्विलेंस रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं होते।

सच यह है कि साल 2016 में भारत में डायरिया अकाल मृत्यु का तीसरा सबड़े बड़ा कारण बनकर उभरा था। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज के इस निष्कर्ष के मुताबिक, असमय मौत की पहली और दूसरी वजह क्रमशः हृदयाघात यानी दिल का दौरा और फेफड़े की बीमारी थी। डायरिया का संक्रमण असुरक्षित पेयजल, मल-दूषित भोजन, खुले में शौच, शौचालयों का इस्तेमाल न करने, गन्दे नालों और हाथ धोने में साबुन का इस्तेमाल न करने से फैलता है। देश में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की असमय मौत के 9,62,830 मामलों में से लगभग 10 फीसदी की वजह डायरिया ही है।

तमाम तरह की वजहें


यह सही है कि डायरिया से होने वाली ज्यादातर मौतें शरीर में पानी की अत्यधिक कमी हो जाने से होती हैं, लेकिन गम्भीर कुपोषण व शरीर के प्रतिरोधक तंत्र का कमजोर होना भी मौत का कारण बनता है, क्योंकि ऐसे मामलों में जानलेवा इंफेक्शन होने का खतरा काफी बढ़ जाता है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इण्डिया में वरिष्ठ स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. संगीता भट्टाचार्य बताती हैं, “कुपोषित व जरूरत से कम वजन वाले बच्चों में इंफेक्शन का खतरा अधिक रहता है। इतना ही नहीं, निमोनिया और टीबी जैसे संक्रमण से उनकी मौत की आशंका भी कहीं ज्यादा होती है।”

बच्चों में कुपोषण से सम्बन्धित अधिकतर मौतें नौ महीने और तीन साल के दरम्यान होती हैं। इनमें से ज्यादातर मौतें इंफेक्शन और भूख से ही होती हैं, जिसे डॉक्टरी शब्दावली में ‘सीवियर एक्यूट मालन्यूट्रिशन’ यानी गम्भीर तीव्र कुपोषण कहते हैं। अपने यहाँ गम्भीर कुपोषण किसी की सोच से भी कहीं ज्यादा आम है। यहाँ करीब 38.4 फीसदी बच्चे बौनेपन (उम्र के हिसाब से कम लम्बाई) का शिकार हैं और 35.7 फीसदी बच्चे जरूरत से कम कद-काठी के हैं। इसकी पुष्टि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 4 (2015-16) से होती है, जिसके निष्कर्ष पिछले साल जारी किये गए हैं।

बीते एक दशक में बौनेपन और बच्चों के अपेक्षाकृत अधिक दुबले होने के मामलों तो मामूली गिरावट आई, लेकिन ‘वेस्टिंग’ यानी लम्बाई के हिसाब से कम वजन के मामले बढ़े हैं। 2006 में जहाँ वेस्टिंग के 19.8 फीसदी मामले सामने आये थे, 2016 में बढ़कर 21 फीसदी हो गए डॉ. भट्टाचार्य कहती हैं, “इंफेक्शन से बचाव की राह में बड़ी बाधा गरीबी और सामाजिक विलगाव (समाज के मान्य ढाँचे से बाहर रहना) हैं। इस कारण लोग उन बुनियादी जानकारियों से भी वंचित रह जाते हैं, जो बच्चों की जान बचाने के लिये जरूरी हैं। मसलन, लगातार हाथ धोते रहना, अधिकाधिक स्तनपान कराना, नमक व चीन के घोल से बना ओरल रिहाइड्रेशन देना आदि। सच है कि माएँ तो अपनी तरफ से बच्चों की हरसम्भव देखभाल करती हैं और उन्हें अच्छा खिलाती-पिलाती भी हैं, पर दुर्भाग्य से उनका यह ‘सर्वश्रेष्ठ’ आमतौर पर जरूरत से बहुत कम साबित होता है।”

विश्लेषकों की मानें, तो साधारण उपाय अपनाकर भी तस्वीर काफी हद तक बदली जा सकती है। भारत में यूनीसेफ की प्रतिनिधि डॉ. यास्मीन अली हक की मानें, तो “महज साबुन से हाथ धोने की आदत ही डाल ली जाये तो नवजातों की मौत में कमी आ सकती है और जच्चे व बच्चे की जान पर बन आने वाले खतरे भी कम किये जा सकते हैं। चूँकि माता-पिता ही बच्चे की शुरुआती देखभाल करते हैं, इसलिये उनके लिये साबुन से हाथ धोना अनिवार्य होना चाहिए। साफ-सफाई के प्रति जागरुकता के काम में आँगनबाड़ी सेविकाओं, स्कूल शिक्षक जैसे समूहों की मदद ली जानी चाहिए। बच्चों के लिये पोषकपूर्ण शुरुआत जरूरी है, क्योंकि यदि तीन वर्ष तक आते-आते ऐसा नहीं हुआ, तो उनमें कुपोषण कायम हो जाता है और तब तक बच्चा स्वस्थ जीवन के लिये जरूरी शारीरिक व मानसिक विकास से महरूम हो चुका होता है।”

साफ-सफाई का महत्त्व


डायरिया का फैलाव बैक्टीरिया से होता है, जो आसानी से संक्रमित व्यक्ति के मल से दूसरे में फैलती है। मिट्टी, पानी या खाद्य पदार्थ इसमें माध्यम बन जाते हैं। इसके अलावा मरीजों के मल से निकले वायरस, प्रोटोजोआ और हेल्मिन्थ (पेट का कीड़ा) भी स्वस्थ लोगों को बीमार बनाते हैं। स्वच्छ पानी, शौचालय और नाले की साफ-सफाई की उचित व्यवस्था का न होना या इसकी कमी रोग का दायरा बढ़ाता है।

कई अध्ययन बताते हैं कि साबुन से हाथ साफ करने और स्वच्छ पानी का इस्तेमाल करने की आदत डाल लेने मात्र से बैक्टीरिया का प्रसार काफी हद तक रोका जा सकता है। इसके अलावा, दस्त होने पर ओरल रिहाइड्रेशन से भी अस्पताल में भर्ती होने की नौबत से बचा जा सकता है।

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरन्मेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक वैश्विक शोध में बताया गया है कि दरवाजे की हैंडिल और सार्वजनिक जगहों पर लगी सीढ़ियों की रेलिंग पकड़ने के बाद हाथ न धोने से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं? शोध में पानी से हाथ धोने, साबुन से हाथ धोने और हाथ न धोने का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। नतीजे बताते हैं कि 44 फीसदी नमूनों में हाथ न धोने के कारण बैक्टीरिया मौजूद मिले। सिर्फ पानी से हाथ धोने से बैक्टीरिया घटकर 23 फीसदी और साधारण साबुन व पानी से धोने से यह महज आठ फीसदी पर आ गई।

फूड हैंडर्ल्स का एक हालिया अध्ययन बताता है कि रोगाणुरोधी साबुन से हाथ धोना कहीं ज्यादा प्रभावशाली होता है। यह अध्ययन पिछले साल हुआ है, जिसके मुताबिक साधारण साबुन या पानी की तुलना में यदि रोगाणुरोधी साबुन का इस्तेमाल हाथ साफ करने में किया जाये, तो बैक्टीरिया (इस्चेरिचिया कोली और इंटरोकॉकस फीकलिस) खत्म करने के मामले में बेहतर नतीजे मिल सकते हैं। भट्टाचार्य कहती हैं, “आँगनबाड़ियों में शौचालय न सिर्फ गन्दे होते हैं, बल्कि कई में तो पानी भी नहीं होता। स्कूलों में भी अमूमन हाथ धोने के लिये साबुन व पानी नहीं होते, जिस कारण इंफेक्शन का चक्र बना रहता है।”

भट्टाचार्य के ही शब्दों में कहें तो, “बच्चों को संक्रमण से दूर रखना है, तो कुपोषित बच्चों की बेहतरी के लिये पोषण पुनर्वास केन्द्र खोलने व स्कूली बच्चों को मिड डे मील परोसने के अलावा भी कई प्रयासों की जरूरत है। यह जाहिर तौर पर, साफ-सफाई की आदतों पर सख्त निगरानी और स्कूलों व आँगनबाड़ी केन्द्रों में स्वच्छ शौलाचय की उपलब्धता सुनिश्चित करने से ही सम्भव है।”

 

शौचालय की ओर

1.

25 करोड़ लोग गाँवों में अब भी जाते हैं खुले में शौच करने

2.

3,07,349 गाँव हो चुके हैं खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित

3.

50,000 रुपए की सालाना बचत करता है हर परिवार ओडीएफ गाँव में

4.

296 जिले घोषित किये जा चुके हैं ओडीएफ

स्रोत- आर्थिक सर्वेक्षण, 2018

 

 

इन वजहों से हमारे नौनिहालों की होती है मौत

17.31 प्रतिशत

साँस सम्बन्धी रोग

16.68 प्रतिशत

समय पूर्व जन्म

9.05 प्रतिशत

जन्म से समय दम घुटना

7.83 प्रतिशत

जन्मजात विकार

7.64 प्रतिशत

डायरिया

3.19 प्रतिशत

सेप्सिस व अन्य संक्रमण

1.98 प्रतिशत

चेचक

स्रोत- ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज, 2016 (बच्चे पाँच वर्ष से कम उम्र के)

1,00,000

बच्चे हर साल साफ-सफाई के अभाव के कारण असमय दम तोड़ते हैं।

6,00,000

नवजात किसी-न-किसी वजह से अपना पहला महीना भी पूरा नहीं कर पाते।

स्रोत- यूनिसेफ

38.4 प्रतिशत

बच्चे बौनेपन का शिकार

35.7 प्रतिशत

बच्चे जरूरत से कम कद-काठी के

21 प्रतिशत

बच्चों में वेस्टिंग (लम्बाई के हिसाब से कम वजन)

 

कुपोषित व जरूरत से कम वजन वाले बच्चों में इंफेक्शन का खतरा कहीं ज्यादा रहता है। निमोनिया और टीबी जैसे संक्रमण से उनकी मौत की आशंका भी अधिक गहरी होती है... -डॉ. संगीता भट्टाचार्य, वरिष्ठ स्वास्थ्य विशेषज्ञ, पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इण्डिया

साबुन से हाथ धोने की आदत यदि डाल ली जाये, तो नवजातों की मौत कम की जा सकती है। इससे जच्चे व बच्चे की जान पर बन आने वाले खतरे भी कम हो सकते हैं... -डॉ. यास्मीन अली हक, भारत में यूनिसेफ प्रतिनिधि


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