प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2 अक्तूबर को गांधी जयंती के मौके पर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर रहे हैं। इस मौके पर वह देशवासियों को स्वच्छता की शपथ भी दिलाएंगे। शपथ की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं, महात्मा गांधी ने एक ऐसे भारत का सपना देखा था, जो न केवल स्वतंत्र बल्कि साफ सुथरा और विकसित हो, अब यह हमारा कर्तव्य है कि हम देश को साफ सुथरा रखकर भारत माता की सेवा करें.....मैं स्वच्छता के प्रति समर्पित रहूंगा और इसकी खातिर समय दूंगा.......न मैं गंदगी फैलाऊंगा और न किसी को फैलाने दूंगा।
गांधी जी का सफाई पर बहुत जोर था वह इसके लिए किसी का इंतजार नहीं करते थे बल्कि खुद साफ-सफाई के काम में जुट जाते थे। अपने आश्रम में शौचालय भी वह स्वयं ही साफ करते थे। उनका यह वाक्य बहुत मशहूर हुआ था कि ‘‘अगर उन्हें भारत का लाट साहब बना दिया जाए तो वह सबसे पहले वाल्मीकि समुदाय की गंदी बस्तियों को साफ करना पसंद करेंगे।’’ सफाई से उनका यह मतलब बिल्कुल नहीं था कि कचरा एक जगह से दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया जाए। बल्कि उनके लिए सफाई का अर्थ कचरे का निपटान और उसका सही उपयोग था।
लेकिन इसके विपरीत हमारा व्यवहार जुदा है, हमारे समाज में सफाई के काम को कमतर समझा जाता है और हम सफाई करने वालों को नीची नजरों से देखते हैं। हमारे यहां मैला ही नहीं मल भी दूसरे हाथों से उठवाने की प्रथा चल रही है। हम में से ज्यादातर अभी भी इसे जातिगत पेशा मानते हैं, एक ऐसा पेशा जो सिर्फ तथाकथित निचली जातियां ही कर सकती हैं। वैसे तो हमारा संविधान छुआछूत के नाम से जाने जाने वाले जाति आधारित भेदभाव पर रोक लगाता है और पिछले साल भारत की संसद ने भी हाथ से मल उठाने की प्रथा को गैरकानूनी घोषित करते हुए ‘‘हाथ से मल उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम (2013 अधिनियम)’’ को लागू किया है।
लेकिन पिछले महीने ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जारी की गई रिपोर्ट- ‘‘मानव बल की सफाई, हाथ से मल उठाने की प्रथा जाति और भारत में भेदभाव “(Cleaning Human Waste “Manual Scavenging,” Caste, and Discrimination in India) कुछ अलग ही कहानी बयान करती है। 96 पृष्ठों की रिपोर्ट में बताया गया है कि आज भी पूरे भारत में कुछ जातियां” हाथ से मल उठाने वाले कर्मचारियों के रूप में काम करने को मजबूर हैं, हाथ से मल उठाने का काम करने वालों को इस काम को छोड़ने पर उनके साथ हिंसाए उनका सामाजिक, आर्थिक बहिष्कार किया जाता है और अपने स्थान से बेदखली की धमकी दी जाती है।
रिपोर्ट के अनुसार भेद-भाव के इस अपराध में अक्सर अधिकारी और विभाग भी शामिल होते हैं, जैसे ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा खुले मलोत्सर्ग क्षेत्रों की साफ-सफाई के लिए जाति के आधार पर कर्मचारियों की भर्ती की जाती है। स्पष्ट है कि इस काम को करने वाले लोगों को अपने जीवन के अन्य पहलुओं में भेदभाव का सामना भी करना पड़ता है, जिनमें शिक्षाएं सामुदायिक जल स्रोत तथा रोजगार के लाभ तक पहुँच शामिल है।
दूसरी तरफ हम बिना किसी झिझक के अपना कचरा सड़क पर फेंक देते हैं, हम अपनी खिड़कियों से कचरा इस भाव से फेंकते हैं जैसे कि हमें अपने घर के अलावा किसी भी सावर्जनिक स्थान कि साफ-सफाई से कोई मतलब ही न हो। हमारे स्कूलों में भी बच्चों को सेनीटेशन को लेकर ज्यादा कुछ नहीं सिखाया जाता है।
साफ सफाई के साथ कचरा निस्तारण का मसला भी जड़ा हुआ है। आज बढ़ते शहरीकरण की वजह से भारत जैसे विकासशील देशों में कचरा प्रबंधन एक बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है। हमने अपने शहरों के पास कचरों के पहाड़ कर दिए हैं, इन खतरनाक पहाड़ों की ऊंचाई और चौड़ाई में दिनों दिन इजाफा ही हो रहा है क्योंकि देश में प्रतिदिन 1 लाख 60 हजार मिट्रिक टन कचरे की पैदावार होती है। राजधानी दिल्ली में 1950 से लेकर आज तक 12 बड़े कचरे के ढेर बनाये जा चुके हैं जो कि सात मंजिल तक ऊँचे हैं, मुंबई का सबसे बड़ा कचरा संग्रह 110 हेक्टेयर में फैला देवनार कचरा स्थल है। यहाँ पर 92 लाख टन कचरे का ढेर लग चूका है। यही हाल अन्य महानगरों और शहरों का भी है।
यह कचरा जन स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। कचरे से रिस कर जहरीला रसायन भूमि, हवा और पानी को दूषित कर रहा है और इनके पास रहने वाली आबादी अनेक गंभीर बीमारियों जैसे मलेरिया, टीबी, दमा और चर्म रोगों से ग्रसित हैं, मुम्बई की ही बात करें तो देवनार इलाके के पास बसी बस्तियों में प्रत्येक 1000 बच्चो में से 60 बच्चे जन्म लेते ही मर जाते है, जबकि बाकी मुंबई में यह औसत 30 बच्चे प्रति हजार है।
हमें साफ-सफाई और इस काम में लगे लोगों के प्रति अपने नज़रिए में बदलाव की जरूरत है, सबसे पहले तो सरकार को चाहिए कि हाथ से मल उठाने की प्रथा पर रोक लगाए और इसके लिए बने कानून को कड़ाई से लागू करे। समाज के स्तर पर भी हमें सफाई का काम जाति नहीं बल्कि पेशा के आधार पर स्थापित करने पर जोर देना होगा।दूसरी तरफ कचरे को ठिकाना लगाने की हमारी तकनीक बहुत पुरानी है इससे गंदगी और प्रदूषण दोनों को गंभीर खतरा है। ऐसा लगता है, इन सबसे हमारी सरकारें और नगर-प्रशासन इन सब चुनौतियों से अनजान बने हुए हैं। कचरा एक संसाधन है, 90 प्रतिशत कचरे को कीमती खाद में तब्दील किया जा सकता है। कचरा डालने के लिए इस्तेमाल की जा रही भूमि को भी उपजाऊ बनाया जा सकता है।
इसको लेकर सरकारों और नगर निगमों की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता को इस बारे में शिक्षित और प्रेरित करें ताकि गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग रख कर इसे पुनः प्रयोग करने और रिसाईकिल करने में उपयोग किया जा सके लेकिन इसका उल्टा हो रहा है। हमारे नगर निगम अक्सर हर प्रकार का कूड़ा एक साथ इकट्ठा करते हैं जिसे शहर के बाहरी इलाकों में खाली जमीन पर अथवा सड़कों के किनारे खुले में डंप कर देते है। यही हमारे शहरों में गंदगी, प्रदूषण एक प्रमुख कारण है।
विकसित देशों में कचरा निस्तारण बड़े मुनाफे के व्यवसाय के रूप में स्थापित हो चूका है, वहां पर शहर के कचरे गंदगी का ढेर बनकर दुर्गन्ध और बीमारियाँ नहीं फैलाते हैं बल्कि इसका उपयोग रिसाइकल करके नयी वस्तुएं बनाने और बायो गैस, बिजली आदि उत्पादित करने में किया जाता है लेकिन हमारे यहाँ हालत यह है कि कचरा बीनने का जो काम प्रशासन को करना चाहिए वह बच्चे कर रहे है, एक अनुमान के मुताबिक राजधानी दिल्ली में करीब 3 लाख बच्चे कचरा बीनने का काम करते हैं, मुम्बई मैं लगभग इतने ही बच्चे इस काम में संलग्न हैं। अपनी आजीविका के लिए काम कर रहे यह बच्चे हर दिन भयावह जीवन जीने को मजबूर हैं और कैंसर, दमा, टीबी और चर्म रोग जैसे जानलेवा बीमारियों के शिकार हो रहे है।
हमारे शहरों के बढ़ते फैलाव को देखते हुए सफाई अभियान के साथ-साथ ठोस कचरा प्रबंधन की भी बहुत जरूरत है, इसके अलावा कचरा उठाने के लिए जिम्मेदार एजेंसियां कचरों के अलगाव, उनके समय पर उठाव एवं ढुलाई करने में अक्षम साबित हो रही हैं, उनके पास इसके लिए जरूरी उपकरणों, जमीन, निष्पादन से जुड़ी मशीनों का अभाव है, इन जरूरतों को पूरा करने की जरूरत है साथ ही साथ नगरीय निकायों को अपने तौर तरीकों में सुधार लाना होगा।
इस मुहिम को प्राइवेट से ज्यादा पब्लिक बनाने की जरूरत है, विशाल देशी-विदेशी फर्मो को तरजीह देने की जगह कचरा चुनने वालों, कबाड़ के काम में लगे लोगों तथा इसको व्यवसाय के रूप में अपनाने को इच्छुक व्यक्तियों को चिन्हित किया जाए इससे संबंधित जरूरी प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे खुद या समूह बना कर इस प्रक्रिया में सहयोग कर सकें। इससे स्वच्छ भारत अभियान में लोगों की भागीदारी तो होगी ही साथ में उन्हें प्रोफेशनल तरीके से आमदनी का नया जरिया भी मिलेगा।
लेकिन इन सबसे ज्यादा हमें साफ-सफाई और इस काम में लगे लोगों के प्रति अपने नज़रिए में बदलाव की जरूरत है, सबसे पहले तो सरकार को चाहिए कि हाथ से मल उठाने की प्रथा पर रोक लगाए और इसके लिए बने कानून को कड़ाई से लागू करे। समाज के स्तर पर भी हमें सफाई का काम जाति नहीं बल्कि पेशा के आधार पर स्थापित करने पर जोर देना होगा।
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