स्वच्छता अभियान और मानव जीवन

गंगा की सफाई को लेकर प्रधानमंत्री अभिभूत हैं, इसके लिए उन्होंने एक पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यमंत्री, अब मंत्री पद पर आसीन सदस्य को जिम्मेदारी सौंप दी है लेकिन अभी वे अपनी आवश्यकताभर भी गंगा को पवित्र नहीं कर पाये हैं।

मोदी के स्वच्छता अभियान का सर्मथन अल्पसंख्यकों की बड़ी संस्था और धार्मिक विश्वविद्यालय देवबंद ने भी इस सफाई के साथ किया है कि हम मोदी का तो नहीं, लेकिन इस अभियान का समर्थन करते हैं क्योंकि यह संकुचित मानसिकता और उद्देश्यों पर आधारित नहीं बल्कि बिना किसी भेदभाव के सारे देश की सफाई के लिए संकल्पबद्धता दोहराता है। मोदी ने गंगा के स्वच्छता अभियान के बाद सारे देश की सफाई का बीड़ा उठाया है। यही कारण है कि जब बनारस में गंगा के किनारे अस्सी घाट पर गये तो 7 मिनट तक फावड़ा उनके साथ था। वे वहां पुराने जमा कूड़े को काटकर उठाने में सन्नद्ध होकर पसीने-पसीने हो गये। उन्होंने देश के अधिकारियों से जो अपने को काम से लदे होने का एहसास दिलाते हैं, उनसे भी दो घंटे सफाई की अपेक्षा की है लेकिन वे इस अपेक्षा का निर्वाह यदि करने लगेंगे तो उनके निर्धारित कार्यों के निष्पादन का क्या होगा, जिनकी गति पहले से ही धीमी है।

पिछले कुछ दिनों पूर्व जब केन्द्रीय सचिवालय के अधिकारियों के कार्यों का मूल्यांकन सर्वे किया गया था तो परिणाम यही बता रहे थे कि हर मेज जिस पर उच्च अधिकारों वाला व्यक्ति बैठता है, उसके कार्यों का निष्पादन प्रतिदिन डेढ़ चिट्ठी का है। केवल सचिवालय में ही नहीं बल्कि सारे दफ्तरों का यही आलम है कि पत्रावलियों का अम्बार तो बढ़ता जा रहा है लेकिन उन्हें कम करने के उपाय नहीं हो रहे हैं। अदालतों की हालत भी जो न्याय की परिकल्पना के मूल बिन्दु हैं, वहां भी यह मालूम हुआ कि 40 वर्ष पहले जिस रेलमंत्री ललित मोहन मिश्र की बिहार में दुर्घटना में मृत्यु हुई थी, उसे षडयंत्र की संज्ञा दी गयी, 40 साल बाद उसके निर्णय की बारी आयी है। अयोध्या मामला तो 65 वर्षों बाद भी सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है, फैसले की संभावित तिथि का अनुमान ही नहीं है। उत्तराधिकारी और दीवानी के मामले में विश्वास है कि इनका किसी एक पीढ़ी में फैसला होना संभव ही नहीं होता। इस प्रकार सरकारी कार्यों एवं निर्णयों की पत्रावलियों का अम्बार कैसे स्वच्छ होगा, इसके लिए अब तक जितने भी अभियान चलाये गये हैं, उनका वांछित लाभ नहीं मिल पाया है।

जब लोगों से यह अपेक्षा की गयी कि अब अस्थियां गंगा में शुद्धि और उद्धार के लिए नहीं डाली जायेंगी तब उसका विरोध भाजपा के गोरखपुर के सांसद ने यह कहकर किया कि यह तो हमारी धार्मिक आस्थाओं और संस्कारों में दखलंदाजी है जिसे हम स्वीकार नहीं करेंगे। लोगों का यह मानना है कि गंगा तो हमारी पवित्रता का पर्याय है। जीवन से लेकर मृत्यु तक यह हमारे पवित्र होने की कल्पनाओं से जुड़ी हुई है। यानी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और भौतिक गंदगियों को हम यहीं धोना चाहते हैं लेकिन सरकार राजकोष से इसकी सफाई कराना चाहती है। वास्तविक मूल दोषी तो वही हैं जिन्होंने जगह-जगह बांध बनाकर इसके प्रवाह को रोककर इसका पानी नहरों के माध्यम से सिंचाई के लिए प्रयुक्त करना आरम्भ किया।

गंगा के किनारे जो फैक्ट्रियां लगी हैं उनके लाइसेंस आखिर किसने बांटे हैं, संचालक होने का प्रमाणपत्र तो सरकारी अधिकारियों ने ही दिये हैं। अब तो गंगा अपनी सहायक नदियों से भी इतना जल नहीं पाती जिससे उसका अविरल प्रवाह चालू रह सके। यह सीमित होती जा रही है। हम उस युग के गंगाजल की खोज करने निकले हैं जब उस पर पुलों की संख्या भी विरल थी और गंगा या देश की नदियां ही आवागमन की प्रमुख साधन थीं जिसमें नावें चलती थीं और माल से लेकर यात्रियों तक का परिवहन होता था, तब रेलें भी नहीं थीं। सभी प्रमुख नगरों का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। यह विकास यात्रा किसी योजना पर आधारित नहीं बल्कि तत्कालीन सुविधाओं से जुड़ी थी लेकिन अब तो हमने इन नगरों तक पहुंचने के लिए रेल, विमान और यातायात, परिवहन तथा संचार माध्यमों का जाल बिछा रखा है। जब शहरों की जनसंख्या निरंतर बढ़ती जा रही है तो अपनी आवश्यक सुविधाओं के लिए वह नदियों का प्रयोग करेगी ही।

इसलिए यदि वैज्ञानिकों की दृष्टि में गंगा का जल पीने योग्य भी नहीं रह गया है तो क्या इसकी सफाई के लिए कोई उल्टी प्रक्रिया आरम्भ होगी क्योंकि हम विकास जनित दोषों से मुक्ति के लिए न तो पर्यावरण को शुद्ध रख पा रहे हैं और न नदियों एवं जल स्रोतों को। अब तो धरती का छेदन करके जिस पानी का हम शोषण कर रहे हैं वह विभिन्न कार्यों में प्रयुक्त हो रहा है, उससे निरंतर जल स्तर नीचे की ओर जा रहा है। अब हम पानी के मुफ्त प्याऊ केन्द्र के बजाय बोतल बन्द पानी को दूध के भाव बेचने पर उतारू हैं। आखिर हमारे इन लक्ष्यों के परिणाम हमें किस ओर ले जायेंगे। इसलिए गंगा सफाई अभियान भी उस भावना का लाभ उठाने की प्रवृत्ति का द्योतक बनता जा रहा है जिसमें हम गंगा को मां बताकर उसकी पूजा करते थे और जयकारे लगाते थे।

इसलिए गंगा का स्वत: विस्तार तो संभव नहीं है, इसलिए हम उस भावना का जो आज भी जनता में बलवती है, का लाभ उठाने के लिए निरंतर प्रचार कर रहे हैं और सरकारी धन सफाई के नाम पर बहा रहे हैं, अन्तत: जिसका लाभ समाज के उच्च वर्गों को, जो इस अभियान के नायक, संचालक के रूप में लगे हैं उनको पहुंच रहा है इसलिए गंगा माता अब केवल उनकी भलाई कर रही हैं। अब तो गंगा और विभिन्न नदियों से जो सागर बनता है, हम उसके हुदहुद और नीलोफर अभियान से निपटने के लिए प्रयासरत हैं और अरबों, खरबों खर्च करके भी हम जनता की कुशलता के रक्षक नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए गंगा की पवित्रता जनता, समाज उसकी आवश्यकताओं, परम्पराओं और आस्थाओं से काट कर होगी तो वह इसमें कितना सहयोग कर पायेगी।

स्वर्गवाहिनी मानकर जब हम मृत्यु के बाद जिनसे हमें बड़ा प्रेम और लगाव था, उन्हें सैकड़ों मील की यात्रा के बाद जिस गंगा मां की गोद के सुपुर्द करते थे, क्या यह स्वच्छ गंगा अभियान उनसे दूरी बढ़ाने वाला होगा या निकटता? इसलिए वैज्ञानिक रूप से संसारभर में नदियों की स्थिति और उनकी स्वच्छता व पवित्रता का क्या आलम है, हम जीवन को उन देशों और व्यवस्थाओं के सुपुर्द करके इसकी स्वच्छाता कैसे बचा पायेंगे। क्या यह तीन लोक से विरत नगरी बसाने की कल्पना तो नहीं होगा और देश में गंगा एक ही नहीं है, विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की अपनी-अपनी गंगा हैं जिनका वे सम्मान करते हैं और पूजा भी। इसलिए वास्तविक प्रश्न तो यह है कि हम गंगा की पवित्रता के लिए जो स्वच्छता अभियान चलाना चाहते हैं उसे हमने जीवन में कितना अपनाया है। यदि हम अपने जीवन जिससे यह समाज बनता है, उसे पवित्रता का वाहक नहीं बना पाते तो यह प्रयत्न कैसे सफल हो पाएगा।

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