भूजल प्रबंधन संबंधी उ.प्र. के इन चुनिंदा शासकीय निर्देशों पर निगाह डालें, तो ये वाकई कितने अच्छे हैं! किंतु ये कागज पर से कब उतरेंगे, इसकी अभी भी प्रतीक्षा है। छोटी नदियों के पुनर्जीवन के नाम उन्हें जेसीबी से खोदकर नदी से नाला बनाया जा रहा है। जरूरत यह है कि उत्तर प्रदेश पहले खुद को पानीदार बनाए, तब दूसरों का रास्ता रोकने की धमकी दे। अपने दायित्व की पूर्ति किए बगैर, दूसरे को दायित्व पूर्ति की सीख देना वाजिब नहीं। एक कहावत है- “गरीब की जोरू, सकल गांव कै भौजाई।’’ जब देश के महामहिम से लेकर भाजपा-कांग्रेस के महामहिम तक नई नवेली पार्टी की दिल्ली सरकार को धमकाने में लगे थे, तो भला उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई मंत्री श्री शिवपाल यादव कैसे चूकते! उन्होंने भी लगे हाथ गंगा में हाथ धो डाला। उन्होंने दिल्ली सरकार को हिदायत दी कि वह यमुना में प्रदूषण रोके नहीं, वरना वह गंगनहर के जरिए दिल्ली को मिल रहे गंगाजल की आपूर्ति रोक देंगे।
यमुना दिल्ली से होकर उत्तर प्रदेश में जाती है। अतः उनका कहना निःसंदेह वाजिब माना जाता, गर उन्होंने उत्तर प्रदेश के हिस्से की यमुना को साफ रखने के लिए कुछ सटीक प्रयास किए होते।
यह सही है कि यमुना में सबसे ज्यादा सीवेज प्रदूषण दिल्ली ही डालती है। यह भी सही है कि दिल्ली को इस पर गंभीरता से कार्य करने की जरूरत है। लेकिन क्या इस सत्य को झूठलाया जा सकता है कि यमुना को प्रदूषित करने और सुखाने में खुद उत्तर प्रदेश का दोष कम नहीं है। दिल्ली से नोएडा पहुंचते ही सबसे पहले हिंडन यमुना को जहर से भर देती है।
हिंडन उत्तर प्रदेश की सबसे प्रदूषित नदी है। इसकी नीलिमा को किसी और ने नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उद्योगों और सीवेज ने ही कालिमा में बदला है। क्या श्री शिवपाल यादव ने हिंडन के प्रदूषकों को धमकी देने की हिम्मत की। मथुरा, आगरा, इटावा, इलाहाबाद.. यमुना किनारे के यूपी का कोई तो शहर बताइये, जो यमुना को प्रदूषित न कर रहा हो। यह तो धन्यवाद कहिए मध्य प्रदेश की चंबल और उसमें मिलने वाली अलवर-भरतपुर-करौली की नदियों का; भला कहिए बुंदेलखण्ड की केन-बेतवा का, जो यमुना में आगे कुछ पानी दिखता है। काली, कृष्णी, गोमती, मंदाकिनी, सई, सरयू.. कोई तो नदी बताइये, जिसका पानी पीने योग्य घोषित किया जा सके।
हकीकत यह है कि अन्य प्रदेशों की तरह उत्तर प्रदेश की सरकार भी यह दावा करने में असमर्थ है कि उसने किसी एक नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त कर दिया है। तस्वीर यह है कि कृष्णी नदी किनारे के गांव का भूजल जहर बन चुका है। काली नदी के किनारे क्रोमियम-लैड से प्रदूषित है। हिंडन किनारे की कितनी फैक्टरियों में ताले मारने पड़े हैं। और तो और गोरखपुर की आमी नदी के प्रदूषण से संतकबीर के मगहर से लेकर सोहगौरा, कटका और भड़सार जैसे कई गांव बेचैन हो उठे हैं।
बलिया, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ से लेकर चित्रकूट, झांसी तक तमाम इलाकों की छोटी नदियां सूख गई हैं। सहारनपुर, बिजनौर, बागपत, मेरठ, मुफ्फरनगर, अलीगढ, कन्नौज, कानपुर, उन्नाव, लखनऊ, जौनपुर... गिनती गिनते जाइए कि उत्तर प्रदेश बीमार है।
भूजल का प्रदूषण और उससे जन्मी घातक बीमारियों के लाखों शिकार है। उ.प्र. में उन्नाव के बाद रायबरेली और प्रतापगढ़ पानी में फ्लोराइड की अधिकता से होने वाले फ्लोरोसिस रोग के नए शिकार हैं। उ.प्र. के ही जौनपुर के बाद अब बलिया और गाजीपुर में आर्सेनिक की उपलब्धता डराने लगी है। जैसे-जैसे पानी नीचे उतरता है, नीचे स्तर पर मौजूद रसायन ऊपर आ जाते हैं... आ रहे हैं। भूजल भरने से नदियों में पानी बढ़ता है।
उत्तर प्रदेश की सरकारों ने पिछले डेढ़ दशक में भूजल संरक्षण के क्षेत्र कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की; कई महत्वपूर्ण आदेश जारी किए। यदि आज उन घोषणाओं व आदेशों के क्रियान्वयन की जांच करें, तो उठाये गये कदमों में औपचारिकता और प्रचार अधिक, नजारा बदलने की इच्छाशक्ति कम दिखाई देती है। यह हालत तब है, जब एक नौजवान पर्यावरण इंजीनियर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री है। इस तस्वीर को सामने रखें तो सिंचाईमंत्री के बयान पर पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दूसरी कहावत पूरी तरह मुफीद बैठती है- “सूप बोलय तो बोलय चलनी, जेह मा बहत्तर छेद!
सच पूछें, तो उत्तर प्रदेश में जल संरक्षण के सरकारी प्रयासों के नाम पर गौरव करने लायक बहुत कुछ होता, बशर्ते आदेश सिर्फ कागजी साबित न होते। याद करने की बात है कि इसी सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के पिछले शासनकाल में राजस्व परिषद ने एक ऐतिहासिक अधिसूचना जारी की थी। यह अधिसूचना चारागाह, चकरोड, पहाड़, पठार व जल संरचनाओं की भूमि को किसी भी अन्य उपयोग हेतु प्रस्तावित करने पर रोक लगाती है।
अन्य उपयोग हेतु पूर्व में किए गए पट्टे-अधिग्रहण रदद् करना, निर्माण ध्वस्त करना तथा संरचना को मूल स्वरूप में लाने का प्रशासन की जिम्मेदारी बनाती है। (शासनादेश संख्या- 3135/1-2-2001-ग-2, दिनांक 08 अक्तूबर, 2001)। यह अधिसूचना सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंचलाल तिवारी बनाम कमला देवी मामले (सिविल अपील संख्या - 4787/2001) में दिए गये शानदार आदेश (दिनांक - 25 जुलाई, 2001) की परिणतिथी। परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष आदित्य कुमार रस्तोगी ने 24 जनवरी, 2002 को पत्र लिखकर सभी मण्डलायुक्त और जिलाधीशों से अपेक्षा की थी कि वे स्वयंमेव इस शासनादेश की पालना की निगरानी करेंगे।
कालांतर में इसकी पालना को लेकर उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने भी कई बार शासन-प्रशासन को तलब किया। किंतु चुनौतियों से दूर ही रहने की प्रवृति और इच्छाशक्ति के अभाव ने शासन द्वारा उठाए एक ऐतिहासिक कदम को कारगर नहीं होने दिया। महज गलत डिजाइन व जगह के चुनाव में गलती के कारण मनरेगा के तहत व्यापक स्तर पर हो रहे पानी के व्यापक काम खाली लोटे साबित हो रहे हैं।
भूजल प्रबंधन संबंधी उ.प्र. के इन चुनिंदा शासकीय निर्देशों पर निगाह डालें, तो ये वाकई कितने अच्छे हैं! किंतु ये कागज पर से कब उतरेंगे, इसकी अभी भी प्रतीक्षा है। छोटी नदियों के पुनर्जीवन के नाम उन्हें जेसीबी से खोदकर नदी से नाला बनाया जा रहा है। जरूरत यह है कि उत्तर प्रदेश पहले खुद को पानीदार बनाए, तब दूसरों का रास्ता रोकने की धमकी दे। अपने दायित्व की पूर्ति किए बगैर, दूसरे को दायित्व पूर्ति की सीख देना वाजिब नहीं।
यमुना दिल्ली से होकर उत्तर प्रदेश में जाती है। अतः उनका कहना निःसंदेह वाजिब माना जाता, गर उन्होंने उत्तर प्रदेश के हिस्से की यमुना को साफ रखने के लिए कुछ सटीक प्रयास किए होते।
यह सही है कि यमुना में सबसे ज्यादा सीवेज प्रदूषण दिल्ली ही डालती है। यह भी सही है कि दिल्ली को इस पर गंभीरता से कार्य करने की जरूरत है। लेकिन क्या इस सत्य को झूठलाया जा सकता है कि यमुना को प्रदूषित करने और सुखाने में खुद उत्तर प्रदेश का दोष कम नहीं है। दिल्ली से नोएडा पहुंचते ही सबसे पहले हिंडन यमुना को जहर से भर देती है।
हिंडन उत्तर प्रदेश की सबसे प्रदूषित नदी है। इसकी नीलिमा को किसी और ने नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उद्योगों और सीवेज ने ही कालिमा में बदला है। क्या श्री शिवपाल यादव ने हिंडन के प्रदूषकों को धमकी देने की हिम्मत की। मथुरा, आगरा, इटावा, इलाहाबाद.. यमुना किनारे के यूपी का कोई तो शहर बताइये, जो यमुना को प्रदूषित न कर रहा हो। यह तो धन्यवाद कहिए मध्य प्रदेश की चंबल और उसमें मिलने वाली अलवर-भरतपुर-करौली की नदियों का; भला कहिए बुंदेलखण्ड की केन-बेतवा का, जो यमुना में आगे कुछ पानी दिखता है। काली, कृष्णी, गोमती, मंदाकिनी, सई, सरयू.. कोई तो नदी बताइये, जिसका पानी पीने योग्य घोषित किया जा सके।
हकीकत यह है कि अन्य प्रदेशों की तरह उत्तर प्रदेश की सरकार भी यह दावा करने में असमर्थ है कि उसने किसी एक नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त कर दिया है। तस्वीर यह है कि कृष्णी नदी किनारे के गांव का भूजल जहर बन चुका है। काली नदी के किनारे क्रोमियम-लैड से प्रदूषित है। हिंडन किनारे की कितनी फैक्टरियों में ताले मारने पड़े हैं। और तो और गोरखपुर की आमी नदी के प्रदूषण से संतकबीर के मगहर से लेकर सोहगौरा, कटका और भड़सार जैसे कई गांव बेचैन हो उठे हैं।
बलिया, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ से लेकर चित्रकूट, झांसी तक तमाम इलाकों की छोटी नदियां सूख गई हैं। सहारनपुर, बिजनौर, बागपत, मेरठ, मुफ्फरनगर, अलीगढ, कन्नौज, कानपुर, उन्नाव, लखनऊ, जौनपुर... गिनती गिनते जाइए कि उत्तर प्रदेश बीमार है।
भूजल का प्रदूषण और उससे जन्मी घातक बीमारियों के लाखों शिकार है। उ.प्र. में उन्नाव के बाद रायबरेली और प्रतापगढ़ पानी में फ्लोराइड की अधिकता से होने वाले फ्लोरोसिस रोग के नए शिकार हैं। उ.प्र. के ही जौनपुर के बाद अब बलिया और गाजीपुर में आर्सेनिक की उपलब्धता डराने लगी है। जैसे-जैसे पानी नीचे उतरता है, नीचे स्तर पर मौजूद रसायन ऊपर आ जाते हैं... आ रहे हैं। भूजल भरने से नदियों में पानी बढ़ता है।
उत्तर प्रदेश की सरकारों ने पिछले डेढ़ दशक में भूजल संरक्षण के क्षेत्र कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की; कई महत्वपूर्ण आदेश जारी किए। यदि आज उन घोषणाओं व आदेशों के क्रियान्वयन की जांच करें, तो उठाये गये कदमों में औपचारिकता और प्रचार अधिक, नजारा बदलने की इच्छाशक्ति कम दिखाई देती है। यह हालत तब है, जब एक नौजवान पर्यावरण इंजीनियर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री है। इस तस्वीर को सामने रखें तो सिंचाईमंत्री के बयान पर पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक दूसरी कहावत पूरी तरह मुफीद बैठती है- “सूप बोलय तो बोलय चलनी, जेह मा बहत्तर छेद!
सच पूछें, तो उत्तर प्रदेश में जल संरक्षण के सरकारी प्रयासों के नाम पर गौरव करने लायक बहुत कुछ होता, बशर्ते आदेश सिर्फ कागजी साबित न होते। याद करने की बात है कि इसी सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के पिछले शासनकाल में राजस्व परिषद ने एक ऐतिहासिक अधिसूचना जारी की थी। यह अधिसूचना चारागाह, चकरोड, पहाड़, पठार व जल संरचनाओं की भूमि को किसी भी अन्य उपयोग हेतु प्रस्तावित करने पर रोक लगाती है।
अन्य उपयोग हेतु पूर्व में किए गए पट्टे-अधिग्रहण रदद् करना, निर्माण ध्वस्त करना तथा संरचना को मूल स्वरूप में लाने का प्रशासन की जिम्मेदारी बनाती है। (शासनादेश संख्या- 3135/1-2-2001-ग-2, दिनांक 08 अक्तूबर, 2001)। यह अधिसूचना सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिंचलाल तिवारी बनाम कमला देवी मामले (सिविल अपील संख्या - 4787/2001) में दिए गये शानदार आदेश (दिनांक - 25 जुलाई, 2001) की परिणतिथी। परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष आदित्य कुमार रस्तोगी ने 24 जनवरी, 2002 को पत्र लिखकर सभी मण्डलायुक्त और जिलाधीशों से अपेक्षा की थी कि वे स्वयंमेव इस शासनादेश की पालना की निगरानी करेंगे।
कालांतर में इसकी पालना को लेकर उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट ने भी कई बार शासन-प्रशासन को तलब किया। किंतु चुनौतियों से दूर ही रहने की प्रवृति और इच्छाशक्ति के अभाव ने शासन द्वारा उठाए एक ऐतिहासिक कदम को कारगर नहीं होने दिया। महज गलत डिजाइन व जगह के चुनाव में गलती के कारण मनरेगा के तहत व्यापक स्तर पर हो रहे पानी के व्यापक काम खाली लोटे साबित हो रहे हैं।
भूजल प्रबंधन संबंधी उ.प्र. के इन चुनिंदा शासकीय निर्देशों पर निगाह डालें, तो ये वाकई कितने अच्छे हैं! किंतु ये कागज पर से कब उतरेंगे, इसकी अभी भी प्रतीक्षा है। छोटी नदियों के पुनर्जीवन के नाम उन्हें जेसीबी से खोदकर नदी से नाला बनाया जा रहा है। जरूरत यह है कि उत्तर प्रदेश पहले खुद को पानीदार बनाए, तब दूसरों का रास्ता रोकने की धमकी दे। अपने दायित्व की पूर्ति किए बगैर, दूसरे को दायित्व पूर्ति की सीख देना वाजिब नहीं।
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