सूखी नदी का दुःख

जलकांक्षिणी
Sयह नदी की दुःख रेखा
अभी भी सागरप्रिया।

सब बह गया कल
जो भी बना था जल
नदी के देह में।
रेत की ही साक्षियाँ
अब तप रही है
सूर्यS
एकांत में।

नदी वाग्दता है सिंधु की।
पहुंचना ही है-इसे
कल
इसी का तो दुःख है
नदी का दुःख-
जल नहीं
यात्रा है।

शतमुखी होS
कल जन्म लेगा जल
जो तप रहा है
गर्भ में!

जन्म लो ओ नदी के पुत्र!
जन्म लो!

जलजल! तुम कब बनोगे नदी?
इन कांतारी काँठों के पत्थरों पर
जो लिखी पड़ी है
क्या वह नदी है?
नहीं, वह तो नदी-पथ है
नदी की देह है
नदी कहाँ?

भ्रम है नदी का-
कगारों को ही नहीं
टिटहरियों को भी
तभी तो
नदी-पथ में नदी को ढूँढ़ते
पुकारों के वृत्त में वे उड़ रही है।

कगारों से उतरता
वह मार्ग
घुटनों तक उठाए वस्त्र
पार करता नदी जैसा लग रहा है।
धूप भी तो
नदी पथ में उगी इन झरबेरियों में
अनमनी-सी, रोज कैसे खोजती है, नदी।
हवाएँ, चील जैसी मारकर लंबे झपट्टे
हार-थक तब बैठ जाती है
किसी पीपल तले।

पर यह विवश आकाश
जाए तो कहाँ जाए?
कैसा निष्पलक
है प्रतीक्षारत
क्षितिज से क्षितिज तक दिन-रात-
ओ जल! तुम कब बनोगे नदी?

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