परंपरागत फ़सलों में 3-4 महीनों में तैयार होने वाली ज्वार एक ऐसी फसल है, जिसे यदि एक बारिश भी न मिले तो भी उपज प्रभावित नहीं होती है।
सूखा प्रभावित बुंदेलखंड के जनपद ललितपुर का विकासखंड विरूधा मुख्यतः उबड़-खाबड़ भूमि एवं ऊसर भूमि वाला क्षेत्र है, जहां लोगों की आजीविका का मुख्य साधन खेती होने के बावजूद सिंचाई साधनों की अनुपलबधता एवं सरकारी उदासीनता के कारण खेती से अपना जीवनयापन करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। इसी विकास खंड का एक गांव है – कपासी। जहां सूखा के चलते लोगों को जीवनयापन करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। यह क्षेत्र पिछले 10 वर्षों से लगातार सूखा की परिस्थिति को झेल रहा है। एक तो कम वर्षा हो रही है, दूसरे अनियमित एवं कम समय में अधिक वर्षा भी हो रही है। यही कारण है कि पिछले वर्ष कम पानी की फसलें अधिक बारिश के कारण गल गईं, लोगों को बीज भी वापस नहीं मिला। ऐसी स्थिति में लोगों ने अपनी परंपरागत फ़सलों ज्वार, बाजरा आदि को याद किया और उसे पुनः अभ्यास में लाकर उससे अपनी आजीविका सुनिश्चित करने का प्रयास किया।
जून में ही खेत की एक जुताई कर छोड़ दिया जाता है।
ज्वार की देशी प्रजाति का प्रयोग करते हैं।
एक एकड़ खेत हेतु 10 किग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है।
ज्वार की बुवाई एक बरसात होने के बाद जुलाई प्रथम सप्ताह में छिटकवां विधि से करते हैं।
अगर एक बरसात हो जाती है, तो ज्वार की खेती के लिए अति उत्तम होता है। यदि बारिश न भी हो, तो उपज पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
छुट्टा पशुओं से फसल की सुरक्षा करनी पड़ती है। साथ ही चारा के रूप में फसल चोरी हो जाने का भी भय रहता है। अतः फसल की सुरक्षा अति आवश्यक हो जाती है।
समय-समय पर इसकी निराई-गुड़ाई करते रहना पड़ता है। अन्यथा फसल की बढ़वार एवं उपज पर विपरीत असर पड़ता है।
ज्वार की फसल अवधि 120-130 दिनों की होती है। अक्टूबर अंतिम सप्ताह से लेकर नवंबर प्रथम सप्ताह तक इसकी कटाई की जाती है।
एक एकड़ में लगभग 15 कुन्तल उपज होता है।
संदर्भ
सूखा प्रभावित बुंदेलखंड के जनपद ललितपुर का विकासखंड विरूधा मुख्यतः उबड़-खाबड़ भूमि एवं ऊसर भूमि वाला क्षेत्र है, जहां लोगों की आजीविका का मुख्य साधन खेती होने के बावजूद सिंचाई साधनों की अनुपलबधता एवं सरकारी उदासीनता के कारण खेती से अपना जीवनयापन करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। इसी विकास खंड का एक गांव है – कपासी। जहां सूखा के चलते लोगों को जीवनयापन करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। यह क्षेत्र पिछले 10 वर्षों से लगातार सूखा की परिस्थिति को झेल रहा है। एक तो कम वर्षा हो रही है, दूसरे अनियमित एवं कम समय में अधिक वर्षा भी हो रही है। यही कारण है कि पिछले वर्ष कम पानी की फसलें अधिक बारिश के कारण गल गईं, लोगों को बीज भी वापस नहीं मिला। ऐसी स्थिति में लोगों ने अपनी परंपरागत फ़सलों ज्वार, बाजरा आदि को याद किया और उसे पुनः अभ्यास में लाकर उससे अपनी आजीविका सुनिश्चित करने का प्रयास किया।
प्रक्रिया
खेत की तैयारी
जून में ही खेत की एक जुताई कर छोड़ दिया जाता है।
बीज की प्रजाति
ज्वार की देशी प्रजाति का प्रयोग करते हैं।
बीज की मात्रा
एक एकड़ खेत हेतु 10 किग्रा. बीज की आवश्यकता पड़ती है।
बुवाई का समय व विधि
ज्वार की बुवाई एक बरसात होने के बाद जुलाई प्रथम सप्ताह में छिटकवां विधि से करते हैं।
सिंचाई
अगर एक बरसात हो जाती है, तो ज्वार की खेती के लिए अति उत्तम होता है। यदि बारिश न भी हो, तो उपज पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
फसल की सुरक्षा
छुट्टा पशुओं से फसल की सुरक्षा करनी पड़ती है। साथ ही चारा के रूप में फसल चोरी हो जाने का भी भय रहता है। अतः फसल की सुरक्षा अति आवश्यक हो जाती है।
निराई-गुड़ाई
समय-समय पर इसकी निराई-गुड़ाई करते रहना पड़ता है। अन्यथा फसल की बढ़वार एवं उपज पर विपरीत असर पड़ता है।
कटाई का समय
ज्वार की फसल अवधि 120-130 दिनों की होती है। अक्टूबर अंतिम सप्ताह से लेकर नवंबर प्रथम सप्ताह तक इसकी कटाई की जाती है।
उपज
एक एकड़ में लगभग 15 कुन्तल उपज होता है।
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