सतलुज के पेट में सुरंगे

हिमाचल प्रदेश अपने ठंडे मौसम और कुदरती खूबसूरती के लिए जाना जाता है, लेकिन कुछ समय से इसके कई क्षेत्रों में पनबिजली परियोजनाओं का जाल सा बिछता गया है। इससे वन संपदा और पर्यावरण काफी नुकसान हुआ है। इन परियोजनाओं से संभावित खतरों का आंकलन कर रहे हैं अश्वनी वर्मा।

पर्यावरणविद और परियोजना विशेषज्ञों का मानना है कि सतलुज नदी पर बिजली परियोजनाओं के कारण गंभीर संकट पैदा हो गया है। सतलुज की तीन सौ बीस किलोमीटर की लंबाई में डेढ़ सौ किलोमीटर को बिजली परियोजनाओं की सुरंगे घेर लेंगी। ऐसे में इस बात की पूरी आशंका है कि कहीं केदारनाथ जैसी तबाही हिमाचल में भी न घटित हो जाए। किन्नौर जिले में यह आभास होने लगा है। किन्नौर को बचाने के लिए जरूरी है कि उत्तराखंड में उत्तरकाशी से गंगोत्री तक को जिस तरह पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जा रहा है, वैसे इस क्षेत्र को भी किया जाए।

यों तो हिमाचल अपने ठंडे मौसम, ठंडे मिजाज, प्राकृतिक सुंदरता और संपदा के लिए जाना जाता है। लेकिन हाल के कुछ सालों से स्थितियाँ बदल रही हैं। इसका प्राकृतिक वैभव नष्ट हो रहा है, नदियों की लूट मची है। अपने भविष्य को लेकर आशंकित सीधे-सादे लोगों का मिजाज गरम हो रहा है। इस सबके पीछे अगर सबसे बड़ी कोई वजह है तो चारों तरफ फैल गई पनबिजली कंपनियां।

पिछले जुलाई में हुई बारिश के वक्त प्रदेश में सौ से अधिक लोगों की मौत हुई, जिसमें अकेले किन्नौर जिले में उनतीस लोग काल के गाल में समा गए। इसके अलावा फसलों और दूसरी तमाम चीजों को भारी क्षति पहुंची। इसकी तुलना उत्तराखंड में हुई तबाही से की गई और माना गया कि इसके पीछे कहीं न कहीं प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन और वनों की कटाई है।

किन्नौर में पनबिजली कंपनियों का जाल फैल गया है। यह स्थिति विस्फोटक है और नागरिकों में इनके खिलाफ गुस्सा भर रहा है। इससे पर्यावरणविदों की नींद उड़ी हुई है।

इस जिले में बरसात ने जो जख्म दिए हैं, उन्हें भरने में समय लगेगा। माना जा रहा है कि जिस तरह सतलुज पर निर्माण कार्यों की बाढ़ आ गई है, उससे पर्यावरण को गंभीर खतरा है। इसीलिए नई-नई आपदाएं जन्म ले रही हैं। किन्नौर में पर्यटन अभी तक पटरी पर नहीं आया है।

बर्फबारी का मौसम भी शुरू हो चुका है, लेकिन पर्यटन उद्योग की कमर टूट गई है। बिजली परियोजनाएं हिमाचल, खासकर इन इलाकों में पर्यावरण के साथ भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा दे रही हैं। ताजा मामले में बिजली परियोजना साई कोठी को लेकर मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह निशाने पर हैं। आरोप है कि सरकारें चलाने वाले लोग बिजली परियोजनाओं के आबंटन में बड़ी राशि लेते हैं। बिजली परियोजनाओं के मामले में तो कई बार उच्च न्यायालय ने संज्ञान लेकर परियोजनाओं पर जुर्माने तक लगाए हैं।

तूफान से किन्नौर में क्षतिपर्यावरणविद ऐसे मामलों को लेकर आंदोलन चलाते रहे हैं। स्थिति यह है कि निजी बिजली कंपनियां न सिर्फ पर्यावरण को नष्ट कर रही हैं, नेताओं और नौकरशाही को भी भ्रष्टाचार में डुबा रही है।

प्रदेश में सतलुज नदी का दम किन्नौर जिले में घुट रहा है। बिजली का खरीददार कोई है नहीं और हिमाचल सरकार बिजली परियोजनाओं को अंधाधुंध स्वीकृति दिए जा रही है।

हिमधरा पर्यावरण समूह कांगड़ा, हिमलोक जागृति मंच, हिमालय बचाओ समिति, सतलुज बचाओ जन संघर्ष समिति और जन जागरण और विकास संस्था मंडी ने तो मिल कर कहा है कि ‘बस, अब और नहीं।’ जनांदोलन में जुटे संगठनों का कहना है कि बिजली परियोजनाओं की स्थापना का नाटक अब बंद हना चाहिए। एक संस्था ने यहां तक कहा कि अब किन्नौर में और परियोजनाएं नहीं लगनी दी जाएंगी।

पर्यावरणविद और परियोजना विशेषज्ञों का मानना है कि सतलुज नदी पर बिजली परियोजनाओं के कारण गंभीर संकट पैदा हो गया है। सतलुज की तीन सौ बीस किलोमीटर की लंबाई में डेढ़ सौ किलोमीटर को बिजली परियोजनाओं की सुरंगे घेर लेंगी। ऐसे में इस बात की पूरी आशंका है कि कहीं केदारनाथ जैसी तबाही हिमाचल में भी न घटित हो जाए।

किन्नौर जिले में यह आभास होने लगा है। किन्नौर को बचाने के लिए जरूरी है कि उत्तराखंड में उत्तरकाशी से गंगोत्री तक को जिस तरह पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जा रहा है, वैसे इस क्षेत्र को भी किया जाए। अगर सतलुज से बिजली का दोहन अंधाधुंध होता रहेगा तो न यह नदी बचेगी और न हिमाचल का किन्नौर क्षेत्र।

किन्नौर में सतलुज में 4498 मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजनाएं लगाने का खाका तैयार किया जा चुका है। इस जिले में 636 मेगावाट की खाब बिजली परियोजना प्रस्तावित है। इसी तरह जंगी क्षोपन पवारी पर 960 मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजना लगाने के लिए सरकार प्रक्रिया को विज्ञापित करने जा रही है।

शोंगटोंग कड़छम में 402 मेगावाट परियोजना का काम चल रहा है। इसी जिले में 1000 मेगावाट की कड़छम वांगतू परियोजना बन कर तैयार है। 1500 मेगावाट की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना नाथपा झाकड़ी किन्नौर जिले में बहुत पहले अस्तित्व में आ गई थी।

इतनी सारी परियोजनाएं इस क्षेत्र के पर्यावरण को तबाह करने के लिए काफी है। सतलुज का दर्द समाप्त नहीं होता। किन्नौर में सतलुज की सहायक नदियों पर 1620 मेगावाट क्षमता की तेरह परियोजनाएं लगाने की तैयारी है। इनमें दो लग चुकी हैं।

इनमें चांगो यंगथांग 140 मेगावाट, यंगथांग खाब 261 मेगावाट, रोपा एक पर साठ मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजनाओं को निर्माण के लिए आबंटित कर दिया गया है। रोपा-दो पर बारह मेगावाट और नेसंग पर दस मेगावाट की बिजली परियोजनाएं बनाना प्रस्तावित है। 195 मेगावाट की काशंग-एक और दो निर्माणाधीन हैं।

किरंग में काशंग तीन अड़तालीस मेगावाट की बिजली परियोजना प्रस्तावित है। एक सौ मेगावाट की टिढंग-एक निर्माणाधीन है। साठ मेगावाट की टिढंग दो भी कंपनी को बनाने के लिए आबंटित कर दी गई है। 300 मेगावाट की बासपा-दो और 124 मेगावाट की एसवीपी भाभा में बिजली बननी शुरू हो गई है। एक सौ मेगावाट की सोरंग निर्माणाधीन है और 210 मेगावाट की बासपा-एक पर अभी विवाद है, क्योंकि यह वन्य जीवन अभ्यारण्य में आती है। सभी परियोजनाएं लग गईं तो किन्नौर जिले में सतलुज और खुल जिले का सीना छलनी हो जाएगा।

काबिलेगौर है कि यह जगह भूकंप की दृष्टि से अतिसंवेदनशील जोन पांच में आता है। सतलुज नदी की ऐतिहासिकता किसी से छिपी नहीं है। यह नदी जीवनदायी के रूप में जानी जाती है।

.इस नदी का वैदिक नाम शत्ताद्रु बताया जाता है। यानी तेज गति से बहने वाली। हिमाचल प्रदेश में यह सबसे लंबी, सबसे बड़ी और सबसे तेज गति से बहने वाली नदी के नाम से जानी जाती है। इस की तीन चौथाई जलग्रहण क्षेत्र तिब्बत और एक चौथाई हिमाचल में आता है। तिब्बत में यह रकस ताल झील के पास से निकलती है और हिमाचल के किन्नौर में यह शिपकिला की सीमा से प्रवेश करती है।

तिब्बत में यह उत्तर-पश्चिम की तरफ बहती है, जिससे कई सहायक नदियों का जुड़ाव होता है। किन्नौर में प्रवेश करने के बाद यह दक्षिण पश्चिम की तरफ बहती हुई भाखड़ा तक 320 किलोमीटर की दूरी तय करती है। हिमाचल में इसमें स्पीति, रोपा, नेसंग, काशंग, टिढंग, बासपा, भाभा, सोरंग, कूट, घानवी, कुरपन, नोगली, नौटी, भराड़ी, अली और गंभर सहायक नदियां मिलती हैं। हिमाचलवासियों के लिए सहायक नदियां भी किसी जीवनदायी नदी से कम नहीं हैं।

सतलुज नदी को जिस बिजली परियोजनाओं ने घेर रखा है, उससे स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। इन परियोजनाओं पर प्रतिबंध लगा कर ही इस नदी को बचाया जा सकता है। पर्यावरणविद चेतावनी दे चुके हैं कि प्रकृति से खिलवाड़ महंगा पड़ सकता है। इसी नदी पर किन्नौर से बाहर रामपुर में 412 मेगावाट बिजली परियोजना पर काम चल रहा है। 588 मेगावाट की लूहरी परियोजना प्रस्तावित है। कोल बांध पर 800 मेगावाट की परियोजना पर काम हो रहा है। भाखड़ा पर 1325 मेगावाट की परियोजना बन चुकी है।

केदारनाथ में जब नुकसान हुआ तो किन्नौर में भी उन्हीं दिनों बड़ी तबाही हुई। किन्नौर के लोगों ने आवाज़ बुलंद की कि अब यहां कोई बिजली परियोजना नहीं लगने देंगे। लेकिन सरकार की ओर से नागरिकों को कोई आश्वासन नहीं दिया जा रहा है। प्रदेश में इस साल बारिश से 2992 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ, जिसने सबको हिला कर रख दिया है।

यह आंकड़ा सरकारी है, नुकसान इससे भी कहीं अधिक हो सकता है, नुकसान इससे भी कहीं अधिक हो सकता है। प्रदेश में इस बारिश से पचास लोगों की जानें गई हैं, जिसमें अकेले किन्नौर जिले में तेईस जानें गईं। मटर और राजमा की फसल बुरी तरह तबाह हो गई। बागवानी पूरी तरह नष्ट हो गई। पेड़ बुरी तरह टूट गए हैं। कई रास्ते तो किन्नौर जिले में अब तक बंद बताए जा रहे हैं। कई जगह बिजली आपूर्ति सुचारू नहीं हो सकी है।

यही हाल पेयजल परियोजनाओं का है। पर्यावरणविदों का कहना है कि उत्तराखंड के नुकसान से हिमाचल सरकार को भी सबक लेना चाहिए। उनका मानना है कि हिमालय संवेदनशील क्षेत्र है।

किन्नौर भी इससे अछूता नहीं है। यहां बड़ी आपदा की आशंका हमेशा बनी रहती है। यह क्षेत्र शीत मरुस्थल की श्रेणी में आता है और बाढ़ की आशंका यहां हमेशा बनी रहती है। इन परियोजनाओं ने कबाइली जिले की बर्बादी की भूमिका तैयार कर दी है। बारिश असंतुलित है और बर्फबारी बेमौसम होने लगी है। पेड़ विलुप्त होते जा रहे हैं।

डेढ़ सौ किलोमीटर सुरंगों का निर्माण हो रहा है और इनके लिए अंधाधुंध विस्फोटकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो और भी खतरनाक है।

इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट्स की 2011 की रिपोर्ट और चौंकाने वाली है। रिपोर्ट के अनुसार 2001 की तुलना में वन क्षेत्र में 7.5 फीसद की कमी आई है और यह कमी सघन वन क्षेत्रों में ज्यादा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कमी जल विद्युत परियोजनाओं और अन्य विकास परियोजनाओं के लिए वन हस्तांतरण के कारण है।

नाथपा परियोजना से रुका सतलुज का स्वाभाविक बहावकिन्नौर जैसे पर्यावरणीय दृष्टि से नाजुक क्षेत्र में जलवायु और ऋतु परिवर्तन के लिए यह एक मुख्य कारण है। उत्तराखंड के मामले में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि उन्हीं क्षेत्रों में विनाश अधिक हुआ है, जहां पिछले कुछ वर्षों में वन भूमि में सर्वाधिक कमी आई।

किन्नौर के बारे में भी यही आंकलन लागू होता है, क्योंकि वहां भी वनों में भारी कमी आई है। पर्यावरणविद गुमान सिंह का कहना है वन भूमि का घटना हर लिहाज से खतरनाक है। पर्यावरणविदों ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि राज्य में जल विद्युत परियोजनाओं की बढ़ती संख्या देखते हुए इनके सामूहिक प्रभाव का अध्ययन किया जाना चाहिए, न कि एकल रूप में आंकलन। हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण संरक्षण को विकास नीति का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।

किन्नौर में जो आपदा बरसात के दिनों में आई उसकी एवज में हिमाचल प्रदेश को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं दिया गया। किसानों और बागबानों को जो मदद दी गई, वह ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुई। मुख्यमंत्री का कहना था कि केंद्र सरकार इस मामले में जो मदद देना चाहती थी, वह नाकाफी था। केंद्र से अधिक राशि की मांग की गई है। अगर बढ़ी हुई राशि मिलती है तो नुकसान की भरपाई करने की कोशिश की जाएगी। फिलहाल मदद का इंतजार है।

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