सरस्वती कहाँ है

वैदिक कवि इतना अभिभूत है कि वह उसे नदीतमा कहकर ही नहीं रूक जाता, उसे माताओं में सबसे श्रेष्ठ और देवियों में सबसे बड़ी देवी कह उठता है-अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वतिहमारे देश में इतिहास का जितना संबंध उपलब्ध तथ्यों से है, उसका उतना ही गहरा संबंध उपलब्ध स्मृतियों से भी है। और अगर हमारी कोई स्मृति हमारे अवचेतन में, हमारे जेहन में कहीं अविभाज्य रूप से बसी है, गहरे दर्ज है तो हम उसे इसलिए हंसी या उपेक्षा के लायक नहीं मान सकते क्योंकि उसका कोई भौतिक यानी पुरातात्विक प्रमाण हमें नहीं मिला है।साहित्य को भी हम इसीलिए कई मायनों में इतिहास मान लेते हैं क्योंकि उसमें भी कहीं सीधे तो कहीं परोक्ष तरीके से हमारे देश और समाज के अतीत की ढेर सारी स्मृतियां किसी न किसी रूप में दर्ज होती हैं।

चूंकि हमारा देश ऐसा मानता है और ठीक इसी आधार पर ब्राह्मणग्रंथों को ब्राह्मणों द्वारा लिखे नहीं बल्कि ब्राह्मण नाम वाले (शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ऐतेरय ब्राह्मण जैसे ग्रंथों को) रामायण-महाभारत जैसे प्रबंध काव्यों को और भागवत, शैव, जैन आदि परम्पराओं में प्राप्त विशाल पुराण साहित्य को कथा भंडार होने के बावजूद इतिहास का दर्जा देता है और पश्चिमी विद्वानों और अपने ही देश में जन्मे उनके मानसपुत्रों द्वारा इन्हें गप्प कहकर मजाक उड़ाने के बावजूद अपनी इस इतिहास-निष्ठा से नहीं डिगा है तो यह सब यूं ही नहीं है।इतिहास को स्मृति में संजोए रखने वाली इन्हीं किताबों ने हमें बताया कि कृष्ण मथुरा पर मगध के राजा जरासन्ध के हमलों के डर के मारे भागकर अपने कुल-परिवार और सम्पत्ति-नागरिक समेत गुजरात की ओर चले गए और वहां उन्होंने समुद्र के किनारे द्वारिका नामक नगर बसाया पर बाद में वही नगर समुद्र की उत्ताल तरंगों की किन्हीं अभूतपूर्व थपेड़ों की चोट न सहकर पानी में डूब गया।

इन स्मृतियों को इतिहास की बजाय गप्प मानने वालों ने इस तमाम कथा की जमकर हंसी उड़ाई थी और तब तक हंसी उड़ाने के लोकतंत्री अधिकार का जी भरकर उपयोग करते रहे जब तक कि सच्चाई उभरने लगी कि हां, समुद्र में एक पूरा का पूरा शहर डूबा पड़ा है जो पौराणिक विवरण के मुताबिक द्वारिका ही लगता है और इसकी और ज्यादा छानबीन होनी चाहिए। अब वह छानबीन हो रही है और लोगों को कृष्ण द्वारा आज से करीब पांच हजार साल पहले (यानि पांच हजार साल से भी सदी भर पहले) बसाई द्वारिका को देखने का मौका आ मिला है।

ठीक यही बात सरस्वती नदी को लेकर कहने में कोई हर्ज नहीं। जब पश्चिमी विद्वानों ने वेदों को पढ़ना शुरू किया तो उनका निष्कर्ष था कि आर्य (जिनको अपनी नस्लवादी इतिहास दृष्टि के कारण वे एक नस्ल मानते थे) जब भारत आए (क्योंकि वे इतने प्रभूत विरोधी प्रमाणों के बावजूद आज भी हमें भारत के बाहर का मानने का मिथ्या सुख पाले हुए हैं) तो वे गंगा, यमुना, सरस्वती को नहीं जानते थे क्योंकि ऋग्वेद के प्रारंभिक मन्त्रों में इन नदियों का वर्णन नहीं मिलता। ज्यों-ज्यों वे पूरब की ओर बढ़े (क्योंकि उन गपोड़ियों के अनुसार वे पश्चिम से भारत में आए थे) तो बाद के मन्त्रों में इन नदियों का वर्णन मिलने लगा।

इस स्थापना में दो भ्रान्तियां साफ थीं। एक कि उनके अनुसार तब पूरब में कुछ था ही नहीं जबकि हम जानते हैं कि मनु, इक्ष्वाकु, ऋषभदेव, भरत जैसे तेजस्वी राजा आज से आठ हजार साल पहले ही कोसल-अयोध्या में राज कर रहे थे, अपनी संतानों को पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में राजवंशों की स्थापना के लिए भेज रहे थे। यानी आठ साल पहले ही सारा भारत सक्रिय, गतिशील था।

दूसरी भ्रान्ति यह थी कि वे सरस्वती को गंगा-यमुना की तरह पूरब की ओर मुड़ जाने वाली नदी इसलिए माने बैठे थे कि प्रयाग में इन तीनों नदियों का संगम है, इस प्रचलित धारणा को उन्होंने अपनी कथित आर्य-खोज का आधार बना लिया जबकि हम जानते हैं कि सरस्वती पूरब की ओर नहीं, दक्षिण की ओर बहती थी और शिवालिक की पहाड़ियों से निकलकर राजस्थान, सिन्ध और गुजरात से गुजरती हुई अरब सागर में जाकर गिरती थी।

वे इस तरह भ्रान्ति का शिकार नहीं होते, अगर वे वेदों और तथाकथित आर्यों (यानि भारतीयों) के बारे में पूर्वधारणा बनाने से पहले पूरे वेद पढ़ लेते, ब्राह्मण ग्रन्थ पढ़ लेते, प्रबन्ध काव्य पढ़ लेते, पुराण पढ़ लेते तो वे भी हमारे साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचते कि सरस्वती नदी तो कभी नदीतमा थी, शिवालिक से निकलकर पश्चिम भारत को नहलाती हुई अरब सागर में जाकर मिलती थी, आज से करीब पांच हजार साल पहले सूख गई, लुप्त हो गई यानी गुम गई और जिसके पूरे इतिहास को फिर से खोजने के लिए पुराण और साहित्य हमारी मदद के लिए वैसे ही पेश हैं जैसे वह द्वारिका के बारे में कर रहे हैं।

यह नदीतमा क्या होती है? समझना कोई मुश्किल नहीं। मान लीजिए कि एक क्लास में चालीस छात्रा-छात्राएं हैं। उनमें से दस बहुत लायक हैं तो वे योग्य कहलाए जाएंगे। उनमें से भी जो सबसे लायक होगा वह योग्यतम कहलाएगा। यह गौरव अगर छात्रा को मिला तो वह योग्यतमा कहलाएगी। अर्थात् सरस्वती उस वक्त की सबसे विराट नदी थी। इतनी विराट कि कहीं-कहीं उसका पाट आज के हिसाब से छह से आठ किलोमीटर तक चौड़ा था तो आप उसे नदीतमा नहीं तो और क्या कहेंगे?

इस नदी की विराटता को देखकर वैदिक कवि इतना अभिभूत है कि वह उसे नदीतमा कहकर ही नहीं रूक जाता, उसे माताओं में सबसे श्रेष्ठ और देवियों में सबसे बड़ी देवी कह उठता है-अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति, अप्रशस्ता इव स्मसि, प्रशस्तमम्ब नस्कृधि (ऋग्वेद 2.41.16) और मांगता क्या है? धन, क्योंकि वह कहता है कि वह निर्धन (अप्रशस्त) है। तो सरस्वती कैसे धन देगी? जाहिर है कि कवि के खेतों को जलसमृद्ध करके, और वेदों में सरस्वती के किनारे प्रभूत कृषि के दिलकश बयान खूब मिलते हैं जो पढ़ने लायक हैं। एक ओर यह नदीतमा सरस्वती और दूसरी ओर इसके पड़ोस में बहती सिन्धु जो आज भी भारत उपमहाद्वीप की नदीतमा है, दोनों मिलकर पूरे इलाके को उत्तर में समुद्रदर्शन का सुख देती होंगी।जहां नदी होगी वहां सभ्यता पनपेगी, खेती होगी, गांव बसेंगे, शहर फैलेंगे, इतिहास रचा जाएगा, तीर्थभावना पैदा होगी और उनके किनारे बसने वालों के रोम-रोम में वह नदी आ बसेगी। और जब सरस्वती जैसी नदीतमा होगी तो जाहिर है कि इन सभी बातों की घनता की डिग्री और ज्यादा बढ़ जाएगी। अगर आप सरस्वती का संदर्भ निकाल दें तो कोई बताने लायक कारण आपके पास बचता ही नहीं कि क्यों कुरूक्षेत्र को भारत के जनमानस में इतना बड़ा तीर्थ माना गया है।

अगर आप सरस्वती को भूल जाएं तो नहीं बता पाएंगे कि क्यों पृथूदक यानी आज के पेहोवा में पितरों का श्राद्ध वैसा ही महत्वपूर्ण माना जाता है जैसा गंगा किनारे हरिद्वार में। अगर आप सरस्वती को निकाल दें तो कोई बता नहीं पाएगा कि क्यों गुजरात के प्रभास क्षेत्र में सोमनाथ मन्दिर जैसा महनीय देवस्थान बन गया। इन सभी स्थलों पर सरस्वती बहती थी और खूब बहती थी।

इसलिए पृथूदक ख्यानी पृथ+उदक यानी खूब चौड़ा (पृथु), पानी (उदक), जाहिर है कि यहां नदी का पाट सबसे चौड़ा रहा होगा जिसे सबसे बड़ा पितृ-विसर्जन तीर्थ बना दिया गया, किसी राजाज्ञा से नहीं, जनमत से। बीच में कहीं छोटा होकर जगाधारी में फिर वह प्रस्त्रावण यानी खूब बहावदार हो गया। उधर प्रभास क्षेत्र में सोमनाथ की उपासना शुरू हो गई, और आगे चलकर मन्दिर बन गया जिसके गिर्द राष्ट्रीयता का इतिहास लिख दिया गया।

इसी सरस्वती के किनारे इतनी प्रबल मन्त्र रचना हुई, खासकर वसिष्ठ मैत्रावरफण ने इतने उच्चकोटि के सूक्त लिखे कि सरस्वती को विद्या का तीर्थ और केंद्र ही नहीं विद्या का रूप, विद्या की देवी मान लिया गया। इसी नदी के करीब इस देश के दो महायुद्ध लड़े गए। एक महाभारत युद्ध, जो आज से पांच हजार साल पहले लड़ा गया जिसे व्यास जैसा महाकथाकार मिल गया और जिसने हमारे इतिहास की इस अभूतपूर्व घटना को पीढ़ियों के लिए यादगार बना दिया।महाभारत के करीब नौ सौ साल पहले (यानी राम के करीब डेढ़ सौ साल बाद) एक दशराज युद्ध अर्थात दस राजाओं के बीच युद्ध लड़ा गया जिसे कोई वैसा व्यास या वाल्मीकि नहीं मिला जो उसे हम पीढ़ियों के लिए यादगार बना जाता। पर जिसे जीतने वाले अर्थात् दुष्यन्त पुत्र भरत के वंशधर राजा सुदास को हम भूल ही गए हैं।सवाल है, सरस्वती का इतिहास अगर यह है तो फिर हमारी स्मृति में, जिसे हम इतना महत्वपूर्ण और प्रामाणिक मान रहे हैं, यह नदी प्रयाग इलाहाबाद की त्रिवेणी का हिस्सा कैसे बन गई? जाहिर है। गंगा और यमुना का प्रयाग में संगम होता है। यहां किसी तीसरी नदी का भी संगम होता होगा जो आज नहीं हो रहा, पर हम भूल गए कि किसका होता था।

हमारा इतिहास ही इतना पुराना है, क्या करें। पांच हजार साल पहले के आसपास सरस्वती पूरी तरह सूख चुकी थी, मानो धरती में समा गई और हमारे साहित्य में इसका नाम पड़ गया-विनशना, यानी जो नष्ट हो गई है।

त्रिवेणी में कौन लुप्त हुई, हम जानते नहीं। पर सरस्वती लुप्त हुई, हम जानते हैं और पश्चिम में बहने वाली लुप्त नदी को पूरब में लुप्त होने वाली नदी मानकर त्रिवेणी की नई व्याख्या प्रस्तुत हो गई। इसमें बस एक ही रास्ता यह हो सकता है कि सरस्वती की कोई एक धारा पूरब की ओर मुड़कर प्रयाग में समा जाती हो। पर हम जानते नहीं। खोजना होगा।

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