हम लोग अपने घरों को साफ-सुथरा रखने के प्रति चिंतित रहते हैं जबकि सार्वजनिक स्थलों को गंदा करने में कोई हिचक नहीं दिखाते हैं। वहां गंदगी फैलाना जैसे हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो। कहीं भी थूक देने, पैकेट फेंक देने या ‘हल्का’ हो लेने में हमें कोई शर्म नहीं आती है। स्वच्छता के प्रति यह दोहरा रवैया हमारी मनोदशा को बताता है। इसी भारतीय मनोदशा पर पेश है एक नजर: मर्म
मनोचिकित्सकों का मानना है कि भारतीय गिल्ट कांप्लेक्स (अपराध बोध ग्रंथि) से ज्यादा शेम कॉम्पलेक्स (शर्म बोध ग्रंथि) से पीड़ित होते हैं। इसके चलते ही उनकी यह स्वभावगत समस्या हो गई है कि वे भोजन तो अकेले में करना चाहते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से पेशाब करने में कोई झिझक नहीं महसूस होती। दरअसल जिस कृत्य को लेकर वे खुद को दोषी ही नहीं समझते, उसके लिए उनमें शर्म का भाव कैसे जागृत हो सकता है। लेकिन खुद के घर के गंदा रहने पर शर्म महसूस करते हैं। किसी के चलते एक औसत भारतीय अपने घर को चकाचक रखता है जबकि सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता और स्वास्थ्य से बेपरवाह रहता है।
एक नागरिक के तौर पर जिम्मेदारी और दायित्वबोध के अभाव ने भी देश में गंदगी और अराजकता को बढ़ाने का काम किया है। लचर कानून व्यवस्था और गंदे स्थल इसमें सहायक होते हैं। परदेस में भी ऐसी संस्कृति है लेकिन सख्त नियमों को धता देना दोषी के लिए मुश्किल होता है। न्यूयार्क में पेशाब करते पकड़े जाने पर 100 से 500 डॉलर तक जुर्माना हो सकता है। कैलीफोर्निया में 270 डॉलर, शिकागो और टेक्सास में यह अर्थदंड 100-500 डॉलर के बीच है। ब्रिटेन, फ्रांस, पोलैंड, जर्मनी और नीदरलैंड्स में भी सार्वजनिक स्थलों पर पेशाब करने और कूड़ा फेंकने पर पूर्ण प्रतिबंध है।
बढ़ती समृद्धि के साथ पालतू जानवर रखना भी एक बड़ा शौक हो गया है। महानगरों की सड़कों पर और पार्कों में अपने पालतू जानवरों खासकर कुत्ते) के साथ टहलते हुए लोग अक्सर दिख जाएंगे। ऐसा करने के पीछे अधिकांश की मंशा अपने जानवर की नित्यक्रिया कराना होता है। जबकि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में ऐसे वक्त के लिए लोग दस्ताने साथ रखे हैं। जानवर के निवृत्त होने के तुरंत बाद उसके अपशिष्ट को तुरंत कूड़ेदान में डालते हैं। अन्यथा भारी जुर्माना लग सकता है। भारत में अधिकांश पशुप्रेमियों को यह तथ्य शायद ही पता हो।
भारत में इस तरह की संस्कृति के विकसित होने के पीछे कई कारण हैं।
लचर कानून और क्रियान्वयन
सार्वजनिक स्थलों को गंदा करने के खिलाफ एक तो लचर कानून हैं। ऊपर से उनका क्रियान्वयन माशाअल्लाह है। भ्रष्टाचार का बोलबाला यहां भी दिखता है। इस आरोप में शायद ही कोई पकड़ा जाता हो। अगर पकड़ा भी गया तो वहीं ले-देकर कानूनी कार्रवाई से बच जाता है।
गंदगी
दूसरी बड़ी वजह है गंदगी। ज्यादातर सार्वजनिक स्थल किसी कूड़ाघर सरीखे ही दिखते हैं। लिहाजा लोगों को उसे और गंदा करने में कोई शर्म या अफसोस नहीं होता है। वे सोचते हैं कि ये तो गंदा स्थान है ही। अगर सभी सार्वजनिक स्थल साफ-सुथरे हों, तो लोग एकबारगी उसे गंदा करने में संकोच करेंगे। इस बात की पुष्टि यह तथ्य भी करता है कि विदेश में बसे भारतीय क्यों इस संस्कृति से ऊपर उठ गए हैं? शायद वहां सभी जगह साफ-सफाई रहती है।
मनोचिकित्सकों का मानना है कि भारतीय गिल्ट कांप्लेक्स (अपराध बोध ग्रंथि) से ज्यादा शेम कॉम्पलेक्स (शर्म बोध ग्रंथि) से पीड़ित होते हैं। इसके चलते ही उनकी यह स्वभावगत समस्या हो गई है कि वे भोजन तो अकेले में करना चाहते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से पेशाब करने में कोई झिझक नहीं महसूस होती। दरअसल जिस कृत्य को लेकर वे खुद को दोषी ही नहीं समझते, उसके लिए उनमें शर्म का भाव कैसे जागृत हो सकता है। लेकिन खुद के घर के गंदा रहने पर शर्म महसूस करते हैं। किसी के चलते एक औसत भारतीय अपने घर को चकाचक रखता है जबकि सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता और स्वास्थ्य से बेपरवाह रहता है।
दायित्वबोध का अभाव
एक नागरिक के तौर पर जिम्मेदारी और दायित्वबोध के अभाव ने भी देश में गंदगी और अराजकता को बढ़ाने का काम किया है। लचर कानून व्यवस्था और गंदे स्थल इसमें सहायक होते हैं। परदेस में भी ऐसी संस्कृति है लेकिन सख्त नियमों को धता देना दोषी के लिए मुश्किल होता है। न्यूयार्क में पेशाब करते पकड़े जाने पर 100 से 500 डॉलर तक जुर्माना हो सकता है। कैलीफोर्निया में 270 डॉलर, शिकागो और टेक्सास में यह अर्थदंड 100-500 डॉलर के बीच है। ब्रिटेन, फ्रांस, पोलैंड, जर्मनी और नीदरलैंड्स में भी सार्वजनिक स्थलों पर पेशाब करने और कूड़ा फेंकने पर पूर्ण प्रतिबंध है।
संस्कृति
बढ़ती समृद्धि के साथ पालतू जानवर रखना भी एक बड़ा शौक हो गया है। महानगरों की सड़कों पर और पार्कों में अपने पालतू जानवरों खासकर कुत्ते) के साथ टहलते हुए लोग अक्सर दिख जाएंगे। ऐसा करने के पीछे अधिकांश की मंशा अपने जानवर की नित्यक्रिया कराना होता है। जबकि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में ऐसे वक्त के लिए लोग दस्ताने साथ रखे हैं। जानवर के निवृत्त होने के तुरंत बाद उसके अपशिष्ट को तुरंत कूड़ेदान में डालते हैं। अन्यथा भारी जुर्माना लग सकता है। भारत में अधिकांश पशुप्रेमियों को यह तथ्य शायद ही पता हो।
भारत में इस तरह की संस्कृति के विकसित होने के पीछे कई कारण हैं।
लचर कानून और क्रियान्वयन
सार्वजनिक स्थलों को गंदा करने के खिलाफ एक तो लचर कानून हैं। ऊपर से उनका क्रियान्वयन माशाअल्लाह है। भ्रष्टाचार का बोलबाला यहां भी दिखता है। इस आरोप में शायद ही कोई पकड़ा जाता हो। अगर पकड़ा भी गया तो वहीं ले-देकर कानूनी कार्रवाई से बच जाता है।
गंदगी
दूसरी बड़ी वजह है गंदगी। ज्यादातर सार्वजनिक स्थल किसी कूड़ाघर सरीखे ही दिखते हैं। लिहाजा लोगों को उसे और गंदा करने में कोई शर्म या अफसोस नहीं होता है। वे सोचते हैं कि ये तो गंदा स्थान है ही। अगर सभी सार्वजनिक स्थल साफ-सुथरे हों, तो लोग एकबारगी उसे गंदा करने में संकोच करेंगे। इस बात की पुष्टि यह तथ्य भी करता है कि विदेश में बसे भारतीय क्यों इस संस्कृति से ऊपर उठ गए हैं? शायद वहां सभी जगह साफ-सफाई रहती है।
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