देहरादून [विकास धूलिया/अरविंद शेखर]। यह कहना तो शायद अभी जल्दबाजी होगी कि नदियों की सफाई का एक सस्ता, सुलभ उपाय आंखों के सामने है। यह लेकिन कहा जा सकता है कि गंदे पानी को निर्मल करने की यह योजना, जो देश में एक जगह सफलता से लागू है, केंद्र और राज्य सरकारों का ध्यानाकर्षण और शोध चाहती है। यह तरीका है सरकंडे की झाड़ियों से पानी शुद्ध करना यानी रूट जोन ट्रीटमेंट।
जो सरकंडा कलम बनाने से लेकर छप्पर डालने तक में काम आता रहा है, उसमें पानी साफ करने की भी अद्भुत क्षमता है। हिमाचल की एक सीमेंट फैक्ट्री में इसकी मदद से पानी को साफ किया जा रहा है। दिल्ली विकास प्राधिकरण राष्ट्रमंडल खेलों से पहले दिल्ली की हरियाली बढ़ाने और यमुना में गिरने वाले गंदे नालों को प्रदूषणमुक्त करने के लिए भारतीय वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून के पारिस्थितिकी व पर्यावरण डिवीजन की मदद ले रहा है। डिवीजन की अध्यक्ष डा. प्रफुल्ल सोनी कहती हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों को छोड़ कर देश भर में मिलने वाली सरकंडा या नरकट घास नदियों में प्रदूषण कम करने के लिए रामबाण हो सकती है।
पानी साफ करने की इस तकनीक का नाम है रूट जोन ट्रीटमेंट और यह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से मान्यता प्राप्त है। डा. सोनी के अनुसार इस तकनीक में सीवर के मुहाने पर एक तालाब बनाया जाता है। इसमें नीचे रोड़ी और ऊपर रेत की परत बिछाई जाती है। इसके ऊपर फ्रैगमाइटस करका यानी सरकंडे की घास लगायी जाती है। इसके बाद गंदे पानी को इस तालाब से गुजारा जाता है। सरकंडे का तना खोखला होता है, जो रुके हुए पानी को आक्सीजन देता है। आक्सीजन से पानी में बैक्टीरिया पनपते हैं और वही पानी साफ करते हैं।
डा. सोनी बताती हैं कि यह प्रयोग हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले के बरमाणा की एक ब्रांडेड सीमेंट फैक्ट्री में हो चुका है। कई देशों में यह काम सफलतापूर्वक किया जा रहा है। छोटे स्तर पर इस तकनीक में सात से आठ लाख रुपये का खर्च आता है। उज्जैन के प्रोफेसर बेल्लारी और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बृजगोपाल भी इसका सफल प्रयोग कर चुके हैं। डा सोनी कहती हैं कि नगरों के सीवेज का रूट जोन ट्रीटमेंट किया जाए, तो महंगे सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के खर्च से बचा जा सकता है और नदियों को काफी हद तक प्रदूषण मुक्त भी कर सकते हैं।
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