सरकारी वन भूमि

कहावत है-आंख से दूर, मन से दूर। पिछले चार-पांच सालों में सारा ध्यान आंखों के सामने चले समाजिक वानिकी कार्यक्रमों पर केंद्रित रहा है। इसमें भी खेतों और पंचायती जमीनों में पेड़ लगाने के काम पर ज्यादा बस चली है। लेकिन जो 7.5 करोड़ हेक्टेयर जंगल आंखों से दूर वन विभाग के नियंत्रण में है, उसकी हालत पर लोगों का ध्यान बिलकुल नहीं गया। बुरा हो उस उपग्रह का, जिसकी पैनी निगाह ने इन वनों की खस्ता हालत उघाड़कर रख दी है और हर राज्य के वन क्षेत्र की पोल खोल दी है। जिन राजकर्ताओं ने इन वनों को बिना सोचे-समझे सिर्फ पैसा बना लेने के लिए कटवा डाला है, अब वही इसके कट जाने पर पर्यावरण का रोना-धोना कर रहे हैं। ठीक टालस्टाय की उस कहानी की तरह जिसमें एक आदमी अपने माता-पिता की हत्या कर देता है और फिर भीड़ जुटने पर “हाय मैं अनाथ हो गया, अनाथ हो गया” कहकर रोने लगता है। नए संदर्भ में जुटी भीड़ भी अनाथ बनाने में सहायक लोगों की है। वनाधारित जिन उद्योगों के कारण वन उजड़े हैं, अब वही उद्योग वन संवर्धन की बात कर रहे हैं। इनमें सबसे आगे है कागज उद्योग, जो अब सरकार से उजड़े वन क्षेत्र मांग रहा है ताकि उन पर वह अपने कच्चे मालके लिए वन लगा सके। अभी तक इस उद्योग ने गहरे घने प्राकृतिक वनों में जरा-सी ‘डुबकी’ ही लगाई थी और समाज तथा प्रकृति को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अब जब यह गहरे पैठेगा तब राम जाने क्या होगा।

कागज बहुत जरूरी चीज है। इस नए जमाने में कागज का उपयोग प्रति व्यक्ति कितना हो रहा है, इस पर से लोगों की साक्षरता और जीवन स्तर का अंदाज लगाया जाता है। हमारे यहां इस पैमाने से नापें तो प्रति व्यक्ति सालाना कागज का उपयोग बहुत मामूली लगभग 2 किलोग्राम होता है। उधर अमेरिका में 268 किलोग्राम, इंग्लैंड में 124 किलोग्राम, फ्रांस में 115 किलोग्राम है। यहां तक कि थाईलैंड और मिस्र जैसे देशों में भी यह 10-11 किलोग्राम है। इस मामले में पिछड़े ही रहने में समझदारी है पर आधुनिकता के दौर में हमने भी काफी ‘प्रगति’ की है – कागज का उत्पादन 1951 में 1.40 लाख टन से बढ़कर 1983 के शुरू में 21.60 लाख टन उत्पादन होने लगा। उस समय देश में कुल 179 पेपर मिलें थीं। आज जितना कागज तैयार हो रहा है उसका 20 प्रतिशत 1950 से पहले होता था, 1950 और 1970 के बीच 50 प्रतिशत और बढ़ा और बाकी 30 प्रतिशत 1970 के दशक में बढ़ा। इस अवधि में 1950-70 की तुलना में वृद्धि की दर में काफी कमी आ गई। 70 के दशक में जो भी वृद्धि हुई वह मुख्यतः बड़ी मिलों में सुधरी मशीनें आने से और छोटी मिलों में फसल के डंठलों आदि से हुए उत्पादन के कारण हुई।

कागज के कारखानों के आकार अनेक हैं। छोटे कारखानों में कागज उत्पादन की क्षमता रोजाना 5 टन से 10 टन तक है और बड़ों में 250 टन तक है। हाल के नए कारखानों में 300 टन तक उत्पादन होता है। यद्यपि देश में छोटे आकार के कागज के कारखाने बहुत हैं, फिर भी कुल उत्पादन का लगभग 65 प्रतिशत बड़े कारखानों में होता है, जिनकी वार्षिक क्षमता 20,000 टन की है। ऐसे कारखाने कुल कारखानों की संख्या में केवल 16 प्रतिशत हैं।

ऊर्जा और निवेश की लागत बहुत महंगी होने और बांस जैसे कच्चे माल की भारी कमी के कारण 1970 के दशक में बड़ी मिलों की वृद्धि रुक गई। सरकार द्वारा गठित लुगदी व कागज उद्योग विकास परिषद के अनुसार 1970 के दशक में कागज उद्योग के उतार का कारण छोटी मिलें थीं। ढ़ेर सारी छोटी-छोटी मिलें खुल गईं। उनकी सालाना उत्पादन क्षमता 10,000 टन से कम थी पर वे धान व गेहूं के पुआल और कपड़े की चिंधी, सन, जूट के टुकड़े और घास जैसे कच्चे माल से कागज बनाने लगीं। ऐसे कच्चे माल से चलने के कारण उन्हें सरकार से करों में रियायत भी काफी मिली। छोटी मिलों में औसतन 55 प्रतिशत खेत का खरपतवार, 40 प्रतिशत रद्दी कागज और पांच प्रतिशत मोल की हुई लुगदी और सूती और जूट के कपड़ों के टुकड़े जैसी रेशेदार चीजें काम में लाई जाती हैं।

रद्दी कागज को बार-बार काम में लेने का चलन बढ़ रहा है। फिर भी अभी काफी कम है, केवल 20 प्रतिशत ही। आज यूरोपीय देशों और जापान में 50 प्रतिशत तक रद्दी कागज ही काम आता है। बांस पर आधारित वर्तमान पेपर मिलों के सामने कच्चे माल की तथा बिजली की कमी भी एक बड़ी दिक्कत है। क्षमता के उपयोग में भी भारी कमी आई है। 1970 में यह सबसे ज्यादा 98.9 प्रतिशत थी जो 1981 में गिर कर 68 प्रतिशत हुई। भारतीय कागज निर्माता संघ के अनुसार 1983 में क्षमता का उपयोग बस केवल 58.1 प्रतिशत हुआ था। इस प्रकार, बड़ी क्षमता के बावजूद देश का कागज और गत्ता उद्योग 1983 में कुल केवल 11.1 लाख टन का ही उत्पादन कर सका, जिसकी कीमत 1,200 करोड़ रुपये थी। इस उत्पादन के लिए कारखानों ने 30.9 लाख टन जंगल का कच्चा माल इस्तेमाल किया।

कागज और गत्ते की बड़ी मिलों में सारी क्रियाएं एक ही जगह होने लगी हैं। वे आजकल मुख्य रूप से बांस और कड़ी लकड़ी का इस्तेमाल करती हैं। इन्हें आमतौर पर जंगलों के पास ही लगाया जाता है। सामान्य नीति रेशेदार कच्चे माल के आत्मनिर्भर होने की और बाजादी लुग्दी को ‘आकस्मिक’ परिस्थति में ही काम में लेने की है। रेशेदार कच्चे माल का मुख्य साधन बांस है। पहले यह खूब मिलता था। लेकिन अब बांस के जंगल उजड़ जाने के बाद बड़ा संकट आ गया है। इसीलिए जो भी थोड़ा-बहुत मिलता है, उसके साथ दूसरी कड़ी लकड़ी मिलाकर काम चलाने के सिवाय बड़े कारखाने के लिए कोई दूसरा चारा नहीं है। पर इससे बढ़िया किस्म की लुगदी नहीं बन पाती। नरम लकड़ी का इस्तेमाल अब भी सीमित मात्रा में ही होता है। 14 लाख टन क्षमता वाली 28 बड़ी मिलें 60-65 प्रतिशत बांस, 30-35 प्रतिशत कड़ी लकड़ी और बहुत कम मात्रा में दूसरी रेशेदार चीजें काम में लाती हैं। कागज उद्योग का कहना है कि देश में कुल लकड़ी का लगभग दो प्रतिशत और बांस का 51 प्रतिशत कागज के कारखाने इस्तेमाल करते हैं।

Path Alias

/articles/sarakaarai-vana-bhauumai

Post By: tridmin
×