भारत को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। उसी का अध्यक्ष पत्रकारों के सवालों के जवाब में यह कह रहा हो कि अभी यह समय मुख्यमंत्री कौन पर बात करने का नहीं, पटाखे जलाने का है। और हमने देखा कि लगभग सभी न्यूज चैनलों के स्क्रीन पटाखे के धुएँ से भर गए। आस्थावान समाज के लिए बेहतर है कि वह टेलीविजन की सारी सामग्री को अभियान का दूसरा संस्करण ही मानेस्वच्छता अभियान के तहत दीपिका पादुकोण, शाहरुख खान और अभिषेक बच्चन ने ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’ के प्रस्तोता कपिल शर्मा की झाडू से सफाई की। फिल्म ‘हैप्पी न्यू इयर’ के प्रमोशन में आए इन सितारों ने पहले स्टूडियो के फर्स पर झाड़ू फिराई फिर एक-एक करके कपिल शर्मा के शरीर पर। जाहिर है, यह सब मनोरंजन के लिए किया गया। जो स्टूडियो में मौजूद दर्शक और खुद कपिल शर्मा लगातार हंसते रहे।
नरेंद्र मोदी सरकार के स्वच्छता अभियान की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’ और ‘बिग बॉस’ जैसे आधा दर्जन टेलीविजन कार्यक्रमों में इसकी चर्चा किसी न किसी रूप में हुई। कुछ में तो सीधे-सीधे पूरी टीम को सफाई करते दिखाया गया, तो कुछ में संवादों के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है।
मनोरंजन चैनलों में स्वच्छता अभियान को लेकर जो सामग्री परोसी जा रही है, उसके लिए उसी तरह करोड़ों रुपए खर्च नहीं किए जा रहे, जैसा की अख़बारों, एफएम रेडियो, ओओएच (आउट ऑफ होम) और टेलीविजन पर प्रसारित स्वच्छ भारत अभियान के विज्ञापनों पर किए जा रहे हैं। चूंकि यह अभियान लोकप्रिय हो रहा है, इसे हास्य कार्यक्रमों से लेकर चरित्रों के संवाद में शामिल करना स्वाभाविक है।
मगर मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रमों में इस अभियान को शामिल किए जाने की स्वाभाविकता के बीच दो बुनियादी सवाल उठते हैं। पहला तो यह कि इस स्वाभाविकता का भी कोई अर्थशास्त्र है, और दूसरा ऐसे अभियान स्वाभाविक रूप से टेलीविजन कार्यक्रम का हिस्सा बनते हैं। तो क्या इनका कोई अतिरिक्त संस्करण बनता है?
‘बालिका वधू’ जैसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिक के एक चरित्र को अचानक दांत में दर्द होने पर न केवल उसका निदान सेंसोडाइन टूथपेस्ट में ढूंढा जाता है, बल्कि वही पंक्तियां दुहरा दी जाती हैं। जो इस टूथपेस्ट के विज्ञापन के दौरान के दौरान इस्तेमाल की जाती रही है। गौरतलब है कि ‘बालिका वधू’ के प्रसारण के दौरान टूथपेस्ट के विज्ञापन आक्रामक अंदाज में आते रहे हैं।
दर्जनभर रियलिटी शो तो बहुत पहले से शुक्रवार को रिलीज होने वाली हिंदी फिल्मों के लांच-पैड बन चुके हैं, और पूरा एपिसोड, प्रतिभागियोँ के लिए गाने या डांस की थीम उन्हीं पर आधारित होते हैं। शुक्रवार के टीवी धारावाहिकों के एपिसोड इन फिल्मों के हिसाब से तय किए जाते हैं। गुरुवार के दिन ही धारावाहिक में ऐसी घटना शामिल की जाती है कि अगले दिन ‘आनंदी जैसी चरित्र’ (बालिका वधू) को बचाने के लिए अभिषेक बच्चन के लिए जगह बन जाए, और उस सप्ताह रिलीज होने वाली फिल्म ‘पा’ की प्रमोशन हो सके।
ऐसे में मनोरंजन चैनलों के लिए स्वाभाविक हो गया है कि शुक्रवार को जो भी धारावाहिक या रियल्टी शो वे देने जा रहे हैं। उसका बड़ा हिस्सा कोई सिनेमा, उससे जुड़ी कहानी स्टंट या परफॉर्मेंस हों, लेकिन यह पहले स्तर की स्वाभाविकता है। जिसके दर्शक अभ्यस्त हो चले हैं। यह जरूर है कि यह स्वाभाविकता प्रयास जन्य है, और उसका अपना अर्थशास्त्र है।
स्वच्छता अभियान दूसरे स्तर की टेलीविजन सामग्री है। जो स्वाभाविक तो जान पड़ती है लेकिन उसका अर्थशास्त्र या कहें पीआर प्रैक्टिस दर्शकों के लिए लिहाज से अदृश्य है। बहुत होगा तो ‘बालिका वधू’ और सेंसोडाइन के आधार पर वे यह कह सकते हैं कि चूंकि मनोरंजन चैनलों में भी इनके धुआंधार विज्ञापन आ रही हैं, इसलिए इसे रियलिटी शो या धारावाहिक में शामिल किया जाने लगा है। टेलीविजन अगर किसी उत्पाद, सेवा या अभियान का धुआंधार विज्ञापन कर रहा है तो यह उस पर नैतिक (व्यावसायिक कह लें) दबाव है कि उसके अनुरूप माहौल भी निर्मित करे। अभियान के अतिरिक्त संस्करण का सवाल इसी से जुड़ा है।
टेलीविजन जब किसी अभियान और उसकी लोकप्रियता को पालता-पोसता प्रोत्साहित करता है, अपने भीतर उसका अपना शास्त्र रचता है। यह शास्त्र की केंद्रीयता न केवल मनोरंजन आधारित होती, बल्कि आस्वाद की भिन्नता पैदा करने के लिए इसके विरोध में भी चली जाती है। उसकी पूरी जद्दोजहद इस बात को लेकर होती है कि विज्ञापन, न्यूज चैनल और पब्लिक स्फीयर से लोकप्रियता के जिन तत्वों को लिया है, उससे वह स्वायत्त सामग्री बन पा रहा है या नहीं? मनोरंजन चैनलों पर स्वच्छता अभियान का संस्करण इससे मुक्त नहीं है।
स्वच्छ भारत श्रृंखला में जितने भी विज्ञापन शामिल किए गए हैं उनका व्याकरण स्केच या कार्टून पर आधारित है। कुछ-कुछ जगहों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म जैसी फूटेज। गंदगी को कुछ बिखरी चीजों तक सीमित कर दिया गया और बाकी हिस्सा साफ। इसे हम उन बड़े और सिलेब्रेटी चेहरों, जिनकी अभ्यस्त सरकारी मशीनरी भी दिखी, की ओर से की गई सफाई में भी लगातार न्यूज चैनलों की मार्फत देखते आए हैं। कागज के दो-चार बिखरे टूकड़े और पत्तियों को झाड़ू से समेट कर एक जगह कर देना, स्वच्छता को किसी कंपनी के ब्रांड-लोगो की तरह समाहित करने जैसा होगा।
अब आप देखें कि मनोरंजन चैनल के किसी भी कार्यक्रम में साफ फर्श पर झाड़ू फिराना भर स्वच्छता-अभियान का प्रतीक बन गया, जिसे आप चाहें तो सिग्नेचर-ट्यून या स्टाइल कह सकते हैं। इसके बाद जो यह अभियान आगे बढ़ता है, उसमें स्वच्छता मनोरंजन के वे सारे अर्थ ग्रहण करती है, जिसमें झाड़ू से प्रस्तोता का शरीर झाड़ने से लेकर (चुटकुलेः सिर्फ व्यस्कों के लिए) तक जाती है।
इधर लोकप्रियता को केंद्र में रखकर स्वच्छ-भारत शृंखला में विज्ञापनों का जोर इस बात पर है कि इनमें किसके-गीत, किस राग और अंदाज में शामिल किए जाएं। कार्टून-नेटवर्क से लेकर कोरस गीतों को किस तरह इस्तेमाल किया जाए कि विज्ञापन, अभियान को मजबूती देने, नागरिकों को जागरूक बनाने से पहले लोगों का वैसे ही मनोरंजन करे जैसे दूसरे कार्यक्रम या विज्ञापन करते हैं। यह अभियान का वह दूसरा संस्करण है, जहाँ उसका मुकाबला स्वच्छता को लेकर नहीं, वोडाफोन के जो-जो शृंखला जैसे विज्ञापन का असर पैदा करना है।
समाचार चैनलों को ऐसे अभियान में सक्रिय राजनीतिक चेहरे सरकारी मशीनरी की गतिविधियों से तो फिर भी इतनी सामग्री मिल जाती है कि वे अपने दर्शकों का स्वाद बदलते रहें। मनोरंजन चैनल जो खुद भी एकरस कार्यक्रमों का प्रसारण करते-करते विचार के स्तर पर तंगहाल हो जाते हैं, उन्हें ऐसे अभियान के विज्ञापन और उसके बीच से लोकप्रिय होते जॉनर मनोरंजन के दिलचस्प कच्ची सामग्री मुहैया कराते हैं।
कहना न होगा कि यह काम कोई 3 साल पहले (5 अगस्त 2011 को अन्ना हजारे ने इंडिया गेट से पहले ‘सारेगामापा लिटिल चैम्प्स’ से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की शुरुआत की थी) हो चुका था। इस आंदोलन में ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ फिल्म से लेकर दर्जनों टेलीविजन कार्यक्रमों के लिए सामग्री मुहैया कराई, अब इनमें शामिल रहे लोग टेलीविजन और एफएम चैनल के लिए धरना कुमार नाम से फिलर्स हैं।
यहीं पर अभियान जबरदस्त लोकप्रिय होने के बावजूद उन व्यावहारिक पक्षों से, असल जिंदगी से बिल्कुल जुदा हो जाते हैं, जिसके बदलाव के लिए इसे महत्वाकांक्षी योजना के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जाती है। वरना ऐसा तो नहीं की न्यूज चैनल हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के नतीजे दिखाने के साथ-साथ स्वच्छ भारत अभियान के विज्ञापन भी लगातार प्रसारित कर रहे थे।
इधर जिस पार्टी की सरकार भारत को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। उसी का अध्यक्ष पत्रकारों के सवालों के जवाब में यह कह रहा हो कि अभी यह समय मुख्यमंत्री कौन पर बात करने का नहीं, पटाखे जलाने का है। और हमने देखा कि लगभग सभी न्यूज चैनलों के स्क्रीन पटाखे के धुएँ से भर गए। आस्थावान समाज के लिए बेहतर है कि वह टेलीविजन की सारी सामग्री को अभियान का दूसरा संस्करण ही माने, महज मनोरंजन और मन बहलाव के लिए बाकी जमीनी स्तर के काम तो टेलीविजन से बाहर तो होते ही हैं।
ईमेल :- vineetdu@gmail.com
नरेंद्र मोदी सरकार के स्वच्छता अभियान की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ‘कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’ और ‘बिग बॉस’ जैसे आधा दर्जन टेलीविजन कार्यक्रमों में इसकी चर्चा किसी न किसी रूप में हुई। कुछ में तो सीधे-सीधे पूरी टीम को सफाई करते दिखाया गया, तो कुछ में संवादों के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है।
मनोरंजन चैनलों में स्वच्छता अभियान को लेकर जो सामग्री परोसी जा रही है, उसके लिए उसी तरह करोड़ों रुपए खर्च नहीं किए जा रहे, जैसा की अख़बारों, एफएम रेडियो, ओओएच (आउट ऑफ होम) और टेलीविजन पर प्रसारित स्वच्छ भारत अभियान के विज्ञापनों पर किए जा रहे हैं। चूंकि यह अभियान लोकप्रिय हो रहा है, इसे हास्य कार्यक्रमों से लेकर चरित्रों के संवाद में शामिल करना स्वाभाविक है।
मगर मनोरंजन चैनलों के कार्यक्रमों में इस अभियान को शामिल किए जाने की स्वाभाविकता के बीच दो बुनियादी सवाल उठते हैं। पहला तो यह कि इस स्वाभाविकता का भी कोई अर्थशास्त्र है, और दूसरा ऐसे अभियान स्वाभाविक रूप से टेलीविजन कार्यक्रम का हिस्सा बनते हैं। तो क्या इनका कोई अतिरिक्त संस्करण बनता है?
‘बालिका वधू’ जैसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिक के एक चरित्र को अचानक दांत में दर्द होने पर न केवल उसका निदान सेंसोडाइन टूथपेस्ट में ढूंढा जाता है, बल्कि वही पंक्तियां दुहरा दी जाती हैं। जो इस टूथपेस्ट के विज्ञापन के दौरान के दौरान इस्तेमाल की जाती रही है। गौरतलब है कि ‘बालिका वधू’ के प्रसारण के दौरान टूथपेस्ट के विज्ञापन आक्रामक अंदाज में आते रहे हैं।
दर्जनभर रियलिटी शो तो बहुत पहले से शुक्रवार को रिलीज होने वाली हिंदी फिल्मों के लांच-पैड बन चुके हैं, और पूरा एपिसोड, प्रतिभागियोँ के लिए गाने या डांस की थीम उन्हीं पर आधारित होते हैं। शुक्रवार के टीवी धारावाहिकों के एपिसोड इन फिल्मों के हिसाब से तय किए जाते हैं। गुरुवार के दिन ही धारावाहिक में ऐसी घटना शामिल की जाती है कि अगले दिन ‘आनंदी जैसी चरित्र’ (बालिका वधू) को बचाने के लिए अभिषेक बच्चन के लिए जगह बन जाए, और उस सप्ताह रिलीज होने वाली फिल्म ‘पा’ की प्रमोशन हो सके।
ऐसे में मनोरंजन चैनलों के लिए स्वाभाविक हो गया है कि शुक्रवार को जो भी धारावाहिक या रियल्टी शो वे देने जा रहे हैं। उसका बड़ा हिस्सा कोई सिनेमा, उससे जुड़ी कहानी स्टंट या परफॉर्मेंस हों, लेकिन यह पहले स्तर की स्वाभाविकता है। जिसके दर्शक अभ्यस्त हो चले हैं। यह जरूर है कि यह स्वाभाविकता प्रयास जन्य है, और उसका अपना अर्थशास्त्र है।
स्वच्छता अभियान दूसरे स्तर की टेलीविजन सामग्री है। जो स्वाभाविक तो जान पड़ती है लेकिन उसका अर्थशास्त्र या कहें पीआर प्रैक्टिस दर्शकों के लिए लिहाज से अदृश्य है। बहुत होगा तो ‘बालिका वधू’ और सेंसोडाइन के आधार पर वे यह कह सकते हैं कि चूंकि मनोरंजन चैनलों में भी इनके धुआंधार विज्ञापन आ रही हैं, इसलिए इसे रियलिटी शो या धारावाहिक में शामिल किया जाने लगा है। टेलीविजन अगर किसी उत्पाद, सेवा या अभियान का धुआंधार विज्ञापन कर रहा है तो यह उस पर नैतिक (व्यावसायिक कह लें) दबाव है कि उसके अनुरूप माहौल भी निर्मित करे। अभियान के अतिरिक्त संस्करण का सवाल इसी से जुड़ा है।
टेलीविजन जब किसी अभियान और उसकी लोकप्रियता को पालता-पोसता प्रोत्साहित करता है, अपने भीतर उसका अपना शास्त्र रचता है। यह शास्त्र की केंद्रीयता न केवल मनोरंजन आधारित होती, बल्कि आस्वाद की भिन्नता पैदा करने के लिए इसके विरोध में भी चली जाती है। उसकी पूरी जद्दोजहद इस बात को लेकर होती है कि विज्ञापन, न्यूज चैनल और पब्लिक स्फीयर से लोकप्रियता के जिन तत्वों को लिया है, उससे वह स्वायत्त सामग्री बन पा रहा है या नहीं? मनोरंजन चैनलों पर स्वच्छता अभियान का संस्करण इससे मुक्त नहीं है।
स्वच्छ भारत श्रृंखला में जितने भी विज्ञापन शामिल किए गए हैं उनका व्याकरण स्केच या कार्टून पर आधारित है। कुछ-कुछ जगहों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म जैसी फूटेज। गंदगी को कुछ बिखरी चीजों तक सीमित कर दिया गया और बाकी हिस्सा साफ। इसे हम उन बड़े और सिलेब्रेटी चेहरों, जिनकी अभ्यस्त सरकारी मशीनरी भी दिखी, की ओर से की गई सफाई में भी लगातार न्यूज चैनलों की मार्फत देखते आए हैं। कागज के दो-चार बिखरे टूकड़े और पत्तियों को झाड़ू से समेट कर एक जगह कर देना, स्वच्छता को किसी कंपनी के ब्रांड-लोगो की तरह समाहित करने जैसा होगा।
अब आप देखें कि मनोरंजन चैनल के किसी भी कार्यक्रम में साफ फर्श पर झाड़ू फिराना भर स्वच्छता-अभियान का प्रतीक बन गया, जिसे आप चाहें तो सिग्नेचर-ट्यून या स्टाइल कह सकते हैं। इसके बाद जो यह अभियान आगे बढ़ता है, उसमें स्वच्छता मनोरंजन के वे सारे अर्थ ग्रहण करती है, जिसमें झाड़ू से प्रस्तोता का शरीर झाड़ने से लेकर (चुटकुलेः सिर्फ व्यस्कों के लिए) तक जाती है।
इधर लोकप्रियता को केंद्र में रखकर स्वच्छ-भारत शृंखला में विज्ञापनों का जोर इस बात पर है कि इनमें किसके-गीत, किस राग और अंदाज में शामिल किए जाएं। कार्टून-नेटवर्क से लेकर कोरस गीतों को किस तरह इस्तेमाल किया जाए कि विज्ञापन, अभियान को मजबूती देने, नागरिकों को जागरूक बनाने से पहले लोगों का वैसे ही मनोरंजन करे जैसे दूसरे कार्यक्रम या विज्ञापन करते हैं। यह अभियान का वह दूसरा संस्करण है, जहाँ उसका मुकाबला स्वच्छता को लेकर नहीं, वोडाफोन के जो-जो शृंखला जैसे विज्ञापन का असर पैदा करना है।
समाचार चैनलों को ऐसे अभियान में सक्रिय राजनीतिक चेहरे सरकारी मशीनरी की गतिविधियों से तो फिर भी इतनी सामग्री मिल जाती है कि वे अपने दर्शकों का स्वाद बदलते रहें। मनोरंजन चैनल जो खुद भी एकरस कार्यक्रमों का प्रसारण करते-करते विचार के स्तर पर तंगहाल हो जाते हैं, उन्हें ऐसे अभियान के विज्ञापन और उसके बीच से लोकप्रिय होते जॉनर मनोरंजन के दिलचस्प कच्ची सामग्री मुहैया कराते हैं।
कहना न होगा कि यह काम कोई 3 साल पहले (5 अगस्त 2011 को अन्ना हजारे ने इंडिया गेट से पहले ‘सारेगामापा लिटिल चैम्प्स’ से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की शुरुआत की थी) हो चुका था। इस आंदोलन में ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ फिल्म से लेकर दर्जनों टेलीविजन कार्यक्रमों के लिए सामग्री मुहैया कराई, अब इनमें शामिल रहे लोग टेलीविजन और एफएम चैनल के लिए धरना कुमार नाम से फिलर्स हैं।
यहीं पर अभियान जबरदस्त लोकप्रिय होने के बावजूद उन व्यावहारिक पक्षों से, असल जिंदगी से बिल्कुल जुदा हो जाते हैं, जिसके बदलाव के लिए इसे महत्वाकांक्षी योजना के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जाती है। वरना ऐसा तो नहीं की न्यूज चैनल हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के नतीजे दिखाने के साथ-साथ स्वच्छ भारत अभियान के विज्ञापन भी लगातार प्रसारित कर रहे थे।
इधर जिस पार्टी की सरकार भारत को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। उसी का अध्यक्ष पत्रकारों के सवालों के जवाब में यह कह रहा हो कि अभी यह समय मुख्यमंत्री कौन पर बात करने का नहीं, पटाखे जलाने का है। और हमने देखा कि लगभग सभी न्यूज चैनलों के स्क्रीन पटाखे के धुएँ से भर गए। आस्थावान समाज के लिए बेहतर है कि वह टेलीविजन की सारी सामग्री को अभियान का दूसरा संस्करण ही माने, महज मनोरंजन और मन बहलाव के लिए बाकी जमीनी स्तर के काम तो टेलीविजन से बाहर तो होते ही हैं।
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