भारत में लोकतंत्र का अर्थ लोक नियुक्त तंत्र बना दिया गया है, जबकि इसे लोक नियंत्रित तंत्र होना चाहिए था। संविधान द्वारा तंत्र संरक्षक की भूमिका में स्थापित है, जबकि उसे प्रबंधक की भूमिका में होना चाहिए था। ज़ाहिर है, संरक्षक लगातार शक्तिशाली होता चला गया और धीरे-धीरे समाज को ग़ुलाम समझने लगा। तंत्र आदेश देता है और लोक पालन करता है। लोक और तंत्र के बीच दूरी बढ़ती ही जा रही है। इस दूरी को कम करने के लिए ग्रामसभा को मज़बूत करना ही एकमात्र उपाय है। निष्क्रिय ग्रामसभा में जान फूंकने की ज़रूरत है। ख़ुशी की बात यह है कि देश के कुछ हिस्सों में ऐसे प्रयास ज़ोर-शोर से शुरू हो गए हैं और यही प्रयास उम्मीद भी जगाते हैं। राजस्थान के टौंक ज़िले के सोड़ा गांव में एक पेड़ के नीचे चौपाल सजी है। गांव के क़रीब 70-80 लोग बैठकर राशन के मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। किसी ने बैठक में मुद्दा उठाया था कि दुकान खुलने और राशन के आने-बंटने का समय पता ही नहीं चलता। हालांकि इस बारे में सरकारी नियम भी हैं, लेकिन उनकी न तो जानकारी है और शायद न ही ज़रूरत। आरोप लगाने वाले को तो स़िर्फ इतनी जानकारी चाहिए कि राशन की दुकान में अगले महीने राशन कब मिलेगा। राशन दुकानदार ख़ुद बैठक में नहीं है, लेकिन उसके चाचा उसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। ग्रामसभा में सबके सामने मुद्दा उठाए जाने से वह ख़फा हो जाते हैं और ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगते हैं। लेकिन उनकी दबंगई काम नहीं आती, क्योंकि गांव के ज़्यादातर लोग आरोपी के साथ खुलकर नहीं बोल रहे थे, तब भी थे तो उसी के साथ। बहस बढ़ती है तो कई लोग बीच-बचाव करते हैं कि भाई, बंदे ने स़िर्फ पूछा है, आपका नाम लेकर कोई आरोप थोड़े ही लगाया है। तभी गांव की सरपंच इसका समाधान सुझाती हैं कि राशन दुकान के सामने एक बोर्ड लगा दिया जाए और उस पर दुकान खुलने और राशन मिलने का वास्तविक दिन एवं समय लिख दिया जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि बोर्ड पर लिखे हुए दिन-समय पर लोग आएं तो उन्हें राशन मिले। सारी सभा एकदम इससे सहमत होती है और हाथ उठाकर इसे मंज़ूर करती है। राशन दुकानदार के चाचा भी इससे सहमत हो जाते हैं। गांव वालों को भरोसा है कि चाचा ने ग्रामसभा में वादा किया है तो अब यह काम ज़रूर हो जाएगा।
गांवों की दशा सुधारने के लिए एक आंदोलन की ज़रूरत है। ऐसा आंदोलन, जो ग्रामसभा को मज़बूत बनाए और पंचायती व्यवस्था में जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित कर सके। ऐसा आंदोलन किसी राजनीतिक दल से नहीं निकल सकता, क्योंकि उसके अपने निहित स्वार्थ होते हैं। सांसद या विधायक बनकर देश सुधारने का दम भरने वाले आवेशित युवाओं के बल पर भी यह आंदोलन नहीं खड़ा हो सकता। इसके लिए ज़रूरत है ऐसे लोगों की, जो अपने गांव को राजनीतिक रूप से सुधारने के लिए काम करें। मसलन, छवि राजावत, जो एमबीए की पढ़ाई करने के बाद भी अपने गांव आती हैं और उसके विकास के लिए काम करती हैं।
धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता, उम्र, लिंग, ग़रीब-अमीर या किसान-मज़दूर का भेदभाव ही दरअसल किसी ग्रामसभा और पंचायत को कमज़ोर बनाता है। भ्रष्टाचार मुक्त ग्राम पंचायत व्यवस्था आज के दौर में गांवों के संपूर्ण विकास की पहली शर्त है। वर्तमान समय में ग्रामसभाओं की निष्क्रियता के कारण सरकारी पंचायतों में भारी भ्रष्टाचार है। जनप्रतिनिधि एवं कर्मचारी मिलकर मनमानी करते हैं और भ्रष्टाचार भी। ग्रामसभा के नाम पर कुछ लोगों के हस्ताक्षर करा लिए जाते हैं और खानापूर्ति हो जाती है। वास्तविक ग्रामसभा बैठती ही नही है, लेकिन कुछ नए और ऊर्जावान लोगों की बदौलत यह तस्वीर बदल रही है। सोड़ा गांव में अब ऐसी बैठकें हर महीने हो रही हैं। गांव की नवनिर्वाचित युवा सरपंच छवि राजावत जींस-टीशर्ट पहने इन बैठकों को संचालित करती हैं। एमबीए करने के बाद सरपंच बनी लड़की की कहानी राष्ट्रीय मीडिया में ख़ूब छाई रही थी, लेकिन छवि की उम्र और अनुभव गांव के मुक़ाबले कहीं कम है। गांव की राजनीति में एमबीए की डिग्री लेते व़क्त पढ़ाई गई बातें भी कुछ खास काम नहीं आतीं, लेकिन छवि ने तीन महीने में तीन बैठकें बुलाकर इसका तोड़ निकाल लिया है। गांव के एक नौजवान जसवंत सोनी कहते हैं कि जब यह पढ़ी-लिखी लड़की सरपंच बनी तो हमें लगा कि यह तो ज़्यादातर जयपुर स्थित अपने घर में रहेगी, गांव का क्या विकास करेगी, लेकिन जब गांव के बीच बाज़ार में ग्रामसभा की खुली बैठक बुलाई गई और उसमें लोगों से पूछा गया कि गांव के विकास की शुरुआत कहां से हो, तो हमें लगा कि अब गांव वाकई सुधरेगा।
ग्रामसभा का एक और फायदा हुआ, अतिक्रमण हटाना। तीन महीने में ही गांव के लोगों ने बातचीत के ज़रिए तालाब की ज़मीन पर बने बाड़े हटवा दिए। एक महिला पंच ने गोचर ज़मीन पर धार्मिक चबूतरा बनाना शुरू किया तो उसे भी इन बैठकों में ही समझा दिया गया और अब उसने अपनी जिद छोड़ दी है। एक पंच सदस्य का कहना है कि पहले जो काम होता था, वह सरपंच की मनमर्जी से हुआ करता था। वह जो-जहां चाहता था, वही होता था।
ऐसा नहीं है कि सब कुछ बहुत आसान है। लोग बैठकों के आदी नहीं हैं, छवि बताती हैं, पहली बैठक में लोग आए तो उन्हें लगा कि वे भाषण सुनने आए हैं। मैं चुप रही और मैंने हर आदमी से बोलने के लिए कहा। पहले तो सब हिचके, लेकिन बाद में सब लोग खुलकर बोले। सबने गांव को लेकर अपना-अपना सपना साझा किया। तीन महीने का समय कुछ खास नहीं है, लेकिन गांव में पंचायत की प्राथमिकताएं तय हो गई हैं। सबसे पहले लक्ष्य रखा गया है कि गांव के 150 बीघे के तालाब के आधे हिस्से की खुदाई कराई जाए। कई वर्षों से इस तालाब की खुदाई नहीं हुई है और यह सूखा मैदान लगता है। अर्से से जमी काली मिट्टी की खुदाई नरेगा के तहत कराना आसान नहीं था। वह भी तब, जब बारिश आने में स़िर्फ एक महीना बाक़ी हो। इसलिए सबसे राय-मशविरा करके तय किया गया कि जेसीबी मशीनें लगा दी जाएं। इसके लिए क़रीब 70 लाख रुपये की ज़रूरत थी। सरकार की कोई योजना नहीं थी कि इस तरह का काम मशीनों से कराकर गांव के तालाबों को सुधार लिया जाए। अफसरों ने सा़फ हाथ खड़े कर दिए। यहां काम आई सरपंच की एमबीए की पढ़ाई। साथ पढ़े युवक-युवतियों, जो अब बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम कर रहे हैं, ने तालाब की खुदाई के लिए चंदा इकट्ठा किया।
ग्रामसभा का एक और फायदा हुआ, अतिक्रमण हटाना। तीन महीने में ही गांव के लोगों ने बातचीत के ज़रिए तालाब की ज़मीन पर बने बाड़े हटवा दिए। एक महिला पंच ने गोचर ज़मीन पर धार्मिक चबूतरा बनाना शुरू किया तो उसे भी इन बैठकों में ही समझा दिया गया और अब उसने अपनी जिद छोड़ दी है। एक पंच सदस्य का कहना है कि पहले जो काम होता था, वह सरपंच की मनमर्जी से हुआ करता था। वह जो-जहां चाहता था, वही होता था। अब जो काम हो रहा है, वह सभी सदस्यों और गांव के बुज़ुर्गों से राय लेकर उनके मन मुताबिक हो रहा है। वह कहते हैं कि 11 पंच पूरे गांव की भावनाओं को थोड़े ही समझ सकते हैं। जब हर व्यक्ति की भावनाओं को समझने की कोशिश होगी, तभी पता चलेगा कि गांव क्या चाहता है। गांव के पंच हों या अन्य प्रभावशाली लोग, सरपंच छवि राजावत के लिए सबकी राजनीति से निपटने का एक ही तरीक़ा है, गांव के लोगों को इकट्ठा करके फैसला लेना। गांव का विकास उनका सपना है, लेकिन वह अपना सपना और ज्ञान लोगों पर थोपना नहीं चाहतीं। पंचायत और उसके कर्मचारी क्या काम करेंगे, यह गांव के लोगों की मौजूदगी में तय होता है।
गांव के पंचों और आम लोगों को समझाना शायद आसान है, लेकिन जब बात पंचायत के अधीन आने वाले सरकारी कर्मचारियों की आती है तो मामला टेढ़ा हो जाता है। ग्रामसभा की पहली बैठक में ही जब सचिव को बैठक के मिनिट्स बनाने के लिए कहा गया तो पहले उसने बाद में बनाने को कहा, लेकिन सबके सामने कहे जाने का असर हुआ। बैठक के मिनिट्स बने। मिनिट्स के नीचे लोगों ने अपने दस्तखत या अंगूठे भी लगा दिए। सचिव ने जानबूझ कर मिनिट्स और दस्तखतों के बीच एक लाइन खाली छोड़ दी। अगले दिन सरपंच ने अचानक देखा कि इस लाइन में गांव के राशन डीलर के पक्ष में एक फैसला लिख दिया गया, जबकि उस बैठक में राशन के मुद्दे पर चर्चा भी नहीं हुई थी। इस लाइन को हटवा दिया गया, लेकिन सरपंच को अपने इशारों पर चलाते रहे ग्राम सचिव को नई सरपंच का ग्रामसभा की बैठक कराना अच्छा नहीं लग रहा।
शायद यही वह जगह है, जहां हमारे देश का पंचायती राज का सपना अटक गया है। कहने को पंचायत को हम तीसरे स्तर की सरकार कहते हैं, लेकिन अपने एक भी कर्मचारी पर इस सरकार का नियंत्रण नहीं है। सब के सब राज्य सरकार के प्रति जवाबदेह हैं। पूरा का पूरा पंचायती राज अफसरों के हवाले है। इसे अफसरों के चंगुल से निकाल कर स्वतंत्र करना किसी आंदोलन के बिना संभव नहीं है। ऐसा आंदोलन किसी राजनीतिक दल से नहीं निकल सकता। सांसद या विधायक बनकर देश सुधारने का दम भरने वाले आवेशित युवाओं के बल पर भी यह आंदोलन नहीं खड़ा हो सकता। इसके लिए ज़रूरत है ऐसे लोगों की, जो अपने गांव को राजनीतिक रूप से सुधारने के लिए काम करें।
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