संसाधन मानव विकास का पर्याय बन चुका है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ संसाधनों में भी विकास हुआ है। मनुष्य संसाधन जुटाने में नई तकनीकों का उपयोग करने लगे हैं। भौगोलिक स्थलाकृति एवं वातावरण, संसाधन की मात्रा एवं गुणवत्ता को नियंत्रित करती रही है। परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संसाधन की मात्रा एवं गुणवत्ता मानवीय उपयोग पर आधारित है। परिणामस्वरूप जहाँ एक ओर संसाधन हमारी दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं वहीं दूसरी ओर इनके दुरुपयोग एवं अव्यवस्थित उपयोग से हमारी जीवन की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ा है।
प्रस्तुत शोध में साहित्य का पुनरावलोकन जल संसाधन की मात्रात्मक एवं गुणात्मक स्थिति के कारण नगरीय एवं उससे लगे ग्रामीण क्षेत्र में निवास कर रहे लोगों की जीवन की गुणवत्ता का अध्ययन करना है। वहीं दूसरी ओर बढ़ती जनसंख्या द्वारा जल संसाधन में गुणात्मक एवं मात्रात्मक भाग का अध्ययन करना भी निहित है।
शोध के साहित्य पुनरावलोकन में शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप हुए विकास के कारण जल संसाधन में आई मात्रात्मक कमी को भी अवगत कराया गया है। शोध में भविष्य में बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए ऐसे साहित्य का अवलोकन किया गया है जो प्रस्तावित जलापूर्ति के नियम एवं निरन्तरता को दर्शाता है। साहित्य अवलोकन में नगरीकरण के कारण गिरते भूजल स्तर एवं उसकी गुणवत्ता में आई कमी को भी उल्लिखित किया गया है। गुणवत्ता में कमी का कारण नगरीय एवं औद्योगिक अपशिष्ट जल निहित से है। इस बात की भी पुष्टि साहित्य पुनरावलोकन में की गई है।
नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण तथा बढ़ती जनसंख्या के नगरीय एवं औद्योगिक जलापूर्ति माँग के लिये साहित्य का पुनरावलोकन स्थानीय स्तर पर किया गया है। इसी दृष्टि से साहित्य पुनरावलोकन को दो खण्डों में विभाजित किया गया है। प्रथम अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन एवं द्वितीय राष्ट्रीय अध्ययन।
2.1 अन्तरराष्ट्रीय अध्ययन
जल संसाधन की मात्रात्मक एवं गुणात्मक कमी एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या एवं चुनौती है। इसको इस बात से स्पष्ट किया जा सकता है कि विश्व का हर छठा व्यक्ति जल-संकट से त्रस्त है तथा दूसरी ओर जल गुणवत्ता में आई कमी से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में बीमारियों के कारण व्यक्तियों की मृत्यु, असमय परिपक्वता तथा शारीरिक अक्षमता को विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय संगठनों एवं साहित्यों के माध्यम से अवगत कराया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकलापों में जल की गुणवत्ता का अध्ययन एक प्रमुख विषय है।
भौगोलिक विविधता, वर्षा की क्षेत्रीय विविधता तथा विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में जल की माँग में विविधता के फलस्वरूप अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न प्रकार के जल-संकट हैं। साहित्य अवलोकन में विश्व के अलग-अलग नगरीय क्षेत्रों में जल संसाधन में आई मात्रात्मक एवं गुणात्मक ह्रास को प्रस्तुत किया गया है।
2.1.1 नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण जल संसाधन पर प्रभाव
रोजर्स (Rogers, 1994) के अनुसार शहरीकरण व औद्योगीकरण के कारण भू-उपयोग में काफी बदलाव देखा गया है। भू-उपयोग में बदलाव के कारण जलीय चक्र एवं जल की गुणवत्ता पर चार प्रमुख प्रभाव देखे गये हैं जिसमें बाढ़-सूखा, नदियों के प्रवाह में बदलाव, भूजल में बदलाव तथा भूजल एवं सतही जल की गुणवत्ता में बदलाव प्रमुख हैं।
वेंग क्यू (Weng Q, 2001) के अनुसार ज्यूजियान नदी के डेल्टा क्षेत्र में भू-उपयोग के बदलाव के कारण सतही जल प्रवाह पर प्रभाव देखा गया। सतही जल प्रवाह पर नगरीय वृद्धि के सहसम्बन्ध स्थापित किये गये और उन्होंने पाया कि नगरीय वृद्धि एवं सतही प्रवाह के बीच 0.6 का धनात्मक सहसम्बन्ध है। उनके अनुसार जिस शहर की जनसंख्या वृद्धि ज्यादा होगी उस शहर का सम्भावित अधिकतम जल संग्रहण कम होगा।
2.1.2 नगरीय परिवेश में भूजल का गिरता स्तर
वारिश एवं बिश्वास (Varise & Biswas, 2006) के अनुसार जल संसाधन का उपयोग एवं वितरण कई कारणों से प्रभावित होता है जिनमें प्रमुख जनसंख्या वृद्धि एवं नगरीकरण, राजनीतिक बदलाव एवं जल की माँग में परिवर्तन है। घरेलू, कृषि एवं उद्योग इनमें अलग-अलग जल की माँग होती है। जल की माँग का सीधा सम्बन्ध औद्योगीकरण एवं जनसंख्या से है परिणामस्वरूप विकसित एवं विकासशील देशों में जल की व्यवस्था के लिये जनसंख्या वृद्धि चुनौती बन गई है।
वो (Vo, 2008) के वर्तमान अध्ययन के अनुसार नगरीकरण के प्रभाव के कारण भूजल स्तर में गिरावट आई है। उन्होंने यह अध्ययन वियतनाम के हु-चि-मिंह शहर के लिये किया था। यह अध्ययन शहरीकरण एवं जल व्यवस्था के मुद्दे, चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य के रूप में किया है इस अध्ययन से यह विदित होता है कि जनसंख्या में वृद्धि एवं नगरीकरण के कारण भूजल का काफी दोहन हुआ है। जिसके कारण वर्ष 2001-2006 तक शहरों के भूजल स्तर में 2 से 3 मीटर की गिरावट आई है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि शहरीकरण, भूजल सम्पदा के लिये एक चुनौती है। इन अध्ययनों से यह ज्ञात होता है कि भविष्य में स्वच्छ पेयजल व्यवस्था, खासतौर से नगरीय क्षेत्रों में जलापूर्ति व्यवस्था एक विश्वव्यापी समस्या के रूप में उभरेगी।
सतही एवं भूजल सम्पदा का नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण जिस तरह से दोहन हो रहा है भविष्य में विश्व के विभिन्न नगरों में स्वच्छ पेयजल आपूर्ति की व्यवस्था एक चुनौती के रूप में उभरेगी। साहित्यिक अध्ययन इस बात का भी स्पष्टीकरण करता है कि अव्यवस्थित पेयजल सुविधा, भूजल एवं सतही जल को ह्रास करने में योगदान प्रदान कर रही है। बहुत से अध्ययनों में गिरते भूजल स्तर को रोकने एवं भूजल संरक्षण पर काफी बल दिया गया है।
2.1.3 नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण जल की गुणवत्ता पर प्रभाव
वो (Vo, 2008) ने अपने वर्तमान अध्ययन में यह उल्लेख किया है कि जल गुणवत्ता में गिरावट का प्रमुख कारण औद्योगिक अपशिष्ट जल हैं। इनके हु-चि-मिंह शहर के अध्ययन में यह स्पष्ट होता है कि लगभग 20 लाख वर्ग मीटर अपशिष्ट जल साई गोंडांग नदी में प्रवाहित होता है तथा लगभग 17 हजार वर्ग मीटर अस्पताल बहिःस्रावी इस नदी में प्रवाहित होता है जिसके परिणामस्वरूप नदी के ऊपरी प्रवाह में लगभग 50 टन मृत मछलियाँ पाई गईं।
हैनसन एवं फॉन (Hansan & Phan, 2005) तथा डक एवं थ्रंग (Duc & Thrung, 2003) के अनुसार नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण शहरी नहरें, नदियाँ एवं सतही जल के साथ-साथ भूजल भी काफी संक्रमित हुआ है। घरेलू नालियाँ एवं औद्योगिक अपशिष्ट जल, सतही एवं भूजल को दूषित करता है।
2.1.4 नगरीय जल प्रबंधन की प्रणाली एवं संरक्षण के उपाय
जल प्रणाली, जलापूर्ति, जल सफाई व्यवस्था एवं जल निकासी सेवाएँ इत्यादि किसी शहर में रहने वाले लोगों के लिये अत्यन्त आवश्यक घटक है। ये सभी घटक नगर के चिरस्थायी व संधारणीय होने का पर्याय बन गया है। इन पहलुओं को देखते हुए यह आवश्यक है कि नगरीय जलतंत्र योजना के क्रियान्वयन में संकलित उपागम की जरूरत है।
हारमोस (Harremoes, 1997) एवं चॉकेट (Chocat & et. al, 2001) के अध्ययन के अनुसार संकलित नगरीय जल व्यवस्था एक विस्तृत उपागम है, जिसमें शहरी जल सेवा, जल आपूर्ति, जलतंत्र एवं जल स्वच्छता को ध्यान में रखकर बनाया गया है। संकलित नगरीय जल व्यवस्था का उद्भव 19वीं सदी में हुआ था जिसका मुख्य कारण 1830 एवं 1870 के दौरान यूरोप एवं अमरीका के शहरों में फैले जल संक्रमण महामारी के रूप टायफाइड एवं कॉलरा था।
विगत शताब्दी में तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या ने जल संकट को जन्म दिया है। जल-संकट के प्रमुख कारणों के साथ ही इसके वर्तमान समाधानों का अध्ययन ही इसकी प्रमुख विषय वस्तु है। साथ ही ऐसी रणनीति को भी सम्मिलित किया है जिससे जल विविध रूपों में संरक्षित किया जा सके।
सिंह (Singh, 1996) ने न्यूयॉर्क प्रान्त में सतत जल की उपलब्धता तथा वनस्पति क्षेत्र में वृद्धि का मुख्य कारण जल प्रबन्धन को बताया है इससे जल प्रबन्धन के सतही एवं भूमिगत जल-स्तर में वृद्धि सम्भव हो पाई है। बिश्वास एवं अन्य (Biswas & et. al, 1993) ने सतत विकास के लिये जल की महत्ता पर प्रकाश डाला है तथा यह बताया है कि अगर इसी तरह से जल का उपभोग होता रहा तो भविष्य में जल संसाधनों की कमी होगी जिससे पर्यावरण में असन्तुलन पैदा होगा।
इसके उपरान्त 1987 में पर्यावरण एवं विकास विश्व आयोग (WCED) के प्रतिवेदन में संधारणीय संकल्पना को प्रचारित किया गया जिसका प्रकाश ‘Our common Future’ नामक प्रतिवेदन में हुआ, जिससे इसके अध्यक्ष के नाम पर ‘ब्रटलैण्ड आयोग’ भी कहते हैं। रेके और क्यूलिस (Racy & cullis, 1986) ने जल संरक्षण की तकनीकों को बताते हुए कहा है कि वर्षाजल का संग्रहण करना चाहिए तथा शुष्क मौसम में उसका उपयोग करना चाहिए। पिक (Pieck, 1985) ने एम्स्टर्डम में जल संग्रहण व वर्षाजल के भण्डारण के बारे में बताया। हाब्स एवं अन्य (Hobbs & et. al, 1980) ने मृदा एवं जल संरक्षण की तकनीकों पर बल दिया है जिसमें जल सम्भर को प्रमुखता दी है। जल सम्भर से जल की गुणवत्ता में वृद्धि तथा भूमिगत जल-स्तर में बढ़ोत्तरी हो सम्भव हो पाई है।
वर्तमान में जल संसाधन के संधारणीय प्रबन्धन (Sustainable Management) पर बल दिया जा रहा है। जिसके उद्भव में डेनिस एवं मीडेज (Dennis & Mides, 1972) के नेतृत्व में गठित एक शोध दल के प्रतिवेदन ‘वृद्धि की सीमायें’ (Limits to Growth) से माना जाता है। इसका प्रकाशन 1972 में हुआ, इसमें जल सहित संसाधनों के अवनयन को रोककर जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाकर स्वस्थ पर्यावरण को जन्म देने पर बल दिया गया था।
कार्डर एवं पेन्सर (Carder & Pencer, 1971) ने मृदा तथा जल संरक्षण से सम्बन्धित तकनीकों का उल्लेख किया है तथा ऑस्ट्रेलिया के सन्दर्भ में बताया है कि यह देश सबसे सूखा है अतः कृषि उत्पादन बढ़ाने, रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिये मृदा एवं जल संरक्षण की तकनीकों पर जोर दिया जाना चाहिए। किरपिक (Kirpick, 1940) ने न्यूयॉर्क में जल प्रबन्धन के बारे में बताया है कि जल की निरन्तर आपूर्ति एवं उच्च गुणवत्ता प्राप्ति हेतु जल सम्भर एक अच्छा उपाय है।
2.2 राष्ट्रीय अध्ययन
जल संसाधन का साहित्यिक पुनरावलोकन राष्ट्रीय स्तर से करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि यह देश के आर्थिक, सामाजिक एवं व्यावहारिक पहलुओं को जानने में सहयोग प्रदान करता है। भारत जो कि एक विकासशील देश है जहाँ औद्योगिक विकास की पूर्ण क्षमता, तीव्र नगरीकरण तथा नगरीय जनसंख्या की तीव्र वृद्धि दर नगरों की प्रमुख विशेषता है वहीं यहाँ शहरों में उन्नत तकनीक का अभाव है। जिसके परिणामस्वरूप जल संसाधन की व्यवस्था एक चुनौती के रूप में देखी जाती है।
भारत के लगभग सभी नगरों में जल की मात्रात्मक एवं गुणात्मक कमी देखी गई है। जलापूर्ति तंत्र की व्यवस्था में अभी-भी उन्नत तकनीकों का प्रयोग नहीं होने के कारण जहाँ एक ओर जल संसाधन की कमी, भूजल स्तर में गिरावट तथा अव्यवस्थित जलापूर्ति व्यवस्था देखी गई है वहीं दूसरी ओर नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप सतही एवं भूजल स्तर की गुणवत्ता में भी कमी देखी गई है। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय नगरों के अन्तर्गत राजस्थान के नगरों का साहित्यिक अवलोकन विशेष तौर पर प्रस्तुत शोध में किया गया है।
नाग (Nag, 2002) ने जल प्रबन्धन का मानचित्र तैयार किया जिसमें उन्होंने गंगा के मैदान व ब्रह्मपुत्र नदी डेल्टा से सम्बन्धित क्षेत्रों को दर्शाया तथा बताया कि सूखे क्षेत्रों को उपयुक्त रणनीति द्वारा जल सम्भर आदि अपनाकर नियोजित किया जा सकता है। मोहिल (Mohil, 2000) ने जल प्रबन्धन पर जोर देते हुए कहा है कि जल, मृदा तथा वनस्पति का संरक्षण कृषि विकास को निर्धारित करता है। अगर किसी भी क्षेत्र में जल की निरन्तर उपलब्धता है तो कृषि विकास को बल मिलता है। टाइडमैन (Tideman, 2000) ने भारतीय दशाओं में जल सम्भर प्रबन्धन के विकास के बारे में बताया है। मृदा तथा जल का मानव के विकास के लिये अति महत्व है और इसकी निरन्तर आपूर्ति ही किसी भी क्षेत्र के विकास को निर्धारित करती है।
कुमार एवं पांडे (Kumar & Pandey, 1989) ने बताया कि भारत में वर्षा के जल को संग्रहण करने की उचित एवं वैज्ञानिक विधि नहीं है जिससे काफी जल व्यर्थ में ही बह जाता है। जिससे जल का पुनर्भरण नहीं हो पाता है। अतः जल की इस कमी को दूर करने के लिये जल संग्रहण पर बल दिया जाना चाहिए जिससे सभी क्षेत्रों में जल की आपूर्ति निरन्तर बनी रहें।
शर्मा (Sharma, 1985) ने बताया कि जल की कमी वाले क्षेत्रों में जल का नियोजन तथा उचित प्रबन्धन करना चाहिए जिसमें शुष्क मौसम में भी जल की आपूर्ति होती रहे इससे लोगों को निरन्तर रोजगार की प्राप्ति होगी तथा आर्थिक विकास के स्तर में भी बढ़ोत्तरी होगी। बाली (Bali, 1981) ने बताया कि जल के उचित प्रबन्धन के लिये आवश्यक है कि ऐसे कार्यक्रमों का विकास किया जाये जिससे जल की निरन्तर आपूर्ति होती रहे तथा सिंचाई, पेयजल तथा उद्योगों के लिये जल की कमी महसूस न हो।
वसीउल्ला एवं अन्य (Wasiullha & et. al, 1972) ने जल संरक्षण की तकनीकों पर बल देते हुए जल को संग्रहित करने पर जोर दिया है, व्यर्थ बहते जल को रोककर जल सम्भावित में वृद्धि की जा सकती है तथा सतत आर्थिक विकास सम्भव हो सकता है।
2.2.1 भारतीय शहरों में विकास की गति
ब्रुश (Brush, 1968) ने अपने अध्ययन, ‘भारतीय जनसंख्या के स्थानिक वितरण’ में उल्लेख किया है कि वर्ष 1951 से 1961 तक भारतीय नगरीय जनसंख्या में 26.4 प्रतिशत वृद्धि हुई है जबकि 1982 के दौरान क्रुक एंड डायसॉन (Crook & Dyson, 1982) ने अपने अध्ययन ‘भारत में नगरीकरण - 1981 के जनसंख्या का परिणाम’ में उल्लेख किया कि भारतीय नगरीय जनसंख्या प्रतिवर्ष 3.8 प्रतिशत की दर में 1971 से 1981 तक बढ़ी जबकि यह दर 1961-71 के बीच 3.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी।
भारतीय नगरों की जनसंख्या वर्ष 1951 से 2001 तक पाँच गुना बढ़ी है। नगरीय मानक के अनुसार भारतीय नगरीय जनसंख्या की वृद्धि प्रथम श्रेणी (1,00,000 से ज्यादा जनसंख्या) के नगरों में अधिक पाई गई जिसका मुख्य कारण नगरीय सुविधाएँ एवं प्रयास हैं (स्रोत जनगणना 2001)।
जनसंख्या के आकार पर आधारित चतुर्थ श्रेणी के नगरों (10,000-19,999 तक जनसंख्या) की संख्या तीव्र गति से बढ़ी है। नगरीय जनसंख्या की बढ़ोत्तरी तथा छोटे शहरों की संख्या में तेज वृद्धि के कारण जल आपूर्ति सर्वत्र एक प्रमुख चुनौती दिखाई पड़ती है। जल आपूर्ति एक आधारभूत नगरीय आवश्यकता है जिसे प्राप्त करने में विभिन्न समस्याओं का सामना नगरीय जनसंख्या को करना पड़ता है।
भारतीय नगरों में जलापूर्ति प्राप्त करने के दौरान जो कुछ मुख्य समस्याएँ हैं उनमें प्रबन्धन की कमी, उपलब्धता का समय, जल की गुणवत्ता तथा जल की मात्रा प्रमुख है। बढ़ती नगरीय जनसंख्या जलीय आपूर्ति के लिये एक विकट समस्या के रूप में सामने आई है। जिस गति से जनसंख्या की वृद्धि हो रही है उस गति से जल आपूर्ति नहीं होने के कारण प्रबन्धकों को भी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
2.2.2 राजस्थान में नगरीकरण के विकास की गति
राजस्थान में नगरीकरण की गति राष्ट्रीय औसत से निम्न है। 2001 में भारत की कुल जनसंख्या का 27.82 प्रतिशत नगरीय जनसंख्या का रहा है वहीं राजस्थान में नगरीय जनसंख्या 23.39 प्रतिशत रही (स्रोत : जनगणना 2001)। 1901 में भारतीय जनसंख्या का 10.84 प्रतिशत लोग शहरों में निवास करते थे वहीं राजस्थान में 15.06 प्रतिशत लोग शहरी जनसंख्या के अन्तर्गत आते थे। 1901 में राजस्थान में 133 नगरीय क्षेत्र थे जो कि बढ़कर 2001 में 216 हो गये। कुल नगरीय जनसंख्या का 57.23 प्रतिशत लोग प्रथम श्रेणी के नगरों में निवास करते हैं। 2001 में प्रथम श्रेणी के अन्तर्गत 20 शहरों का अंकन किया गया है। राजस्थान में तृतीयक श्रेणी (20,000 से 49,999 तक जनसंख्या) के शहर सबसे अधिक 90 हैं (जनगणना 2001)। राजस्थान में नगरीय जनसंख्या की वृद्धि का मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र की ओर पलायन है इसके साथ-साथ नगरीय जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि भी जनसंख्या की वृद्धि का मुख्य कारण रही है।
राजस्थान के पाँच प्रमुख शहरों में जयपुर की नगरीय जनसंख्या (23.23 प्रतिशत) सबसे अधिक तदोपरान्त जोधपुर (8.61 प्रतिशत), कोटा (6.94 प्रतिशत), बीकानेर (5.31 प्रतिशत) एवं अजमेर (4.86 प्रतिशत) की रही (स्रोत : भारतीय जनगणना)। जलवायु वितरण के अनुसार राजस्थान भारतीय दृष्टिकोण से शुष्क एवं अर्द्धशुष्क प्रदेशों में जाना जाता है। जहाँ औसत वर्षा 500 मिलीमीटर होती है। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में वर्षा की कमी के कारण जलीय संकट एक सामान्य अवधारणा है।
सामान्य वर्षा की कमी तथा नगरीय जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण राजस्थान के लगभग सभी शहरों में जलापूर्ति एक प्रमुख चुनौती है। यह चुनौती शुष्क नगरीय क्षेत्रों में विकट रूप से देखी जा सकती है। भारतीय नगरों की रूप रेखा में राजस्थान के शहरी जनसंख्या में भी जलापूर्ति की लगभग वही स्थिति है जो अन्य भारतीय नगरों की रही है। यहाँ भी जल की उपलब्धता, जल-वितरण, पेयजल की समय सारणी एवं भूजल का अति दोहन एक प्रमुख जलीय संकट है।
राजस्थान के 20 प्रमुख शहरों में जलापूर्ति के दृष्टिकोण से जयपुर एवं कोटा शहर में अच्छे प्रबन्धन के कारण कम समस्याएँ हैं जबकि अन्य शहरों में ये समस्याएँ विकट हैं।
2.2.3 जनसंख्या वृद्धि के कारण भारतीय शहरों में जल संसाधन पर प्रभाव
विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों ने शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों के लिये घरेलू जल आपूर्ति के लिये अलग-अलग नियोजन किया है। इसी सन्दर्भ में 1999 में जल संसाधन मंत्रालय ने अपने नीति-निर्धारण नियमों के तहत बनायी गई संकलित जल संसाधन विकास की रिपोर्ट में कुछ-नीतियों का अध्ययन किया। इस अध्ययन के अनुसार प्रथम श्रेणी के शहरों के लिये 220 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन घरेलू जल की आवश्यकता है जबकि अन्य श्रेणियों के शहरों में वर्ष 2025 तक 165 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन एवं 2050 तक 220 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन जलापूर्ति की आवश्यकता बतायी गई है। इसी अध्ययन में ग्रामीण क्षेत्रों में 2025 तक 70 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा 2050 तक 150 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन ग्रामीण घरेलू जलापूर्ति की आवश्यकता हो सकती है।
ऐसा अनुमानित किया गया है कि 2050 तक 90 वर्ग किमी (कम उपयोग के दृष्टिकोण के अनुसार) जबकि 111 वर्ग किमी (अधिक उपयोग के दृष्टिकोण के अनुसार) प्रतिवर्ष जल की आवश्यकता है तथा नगरीय क्षेत्रों में 70 प्रतिशत एवं ग्रामीण क्षेत्रों में 30 प्रतिशत जल की आवश्यकता सतही जल से पूर्ण की जाए तथा शेष आवश्यकता को भूजल से पूरी करने की चेष्टा रखी गई है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में औद्योगिक जल की आपूर्ति 15 वर्ग किमी प्रतिवर्ष है जो कि 19 वर्ग किमी प्रतिवर्ष होनी चाहिए। 2050 तक औद्योगिक जलापूर्ति की आवश्यकता 103 वर्ग किमी प्रतिवर्ष की जरूरत होगी परन्तु उत्तम तकनीक एवं समुचित व्यवस्था से यह आपूर्ति 81 वर्ग किमी प्रतिवर्ष की जा सकती है।
मैथ्यू रोडल (Rodell & Famiglidtti, 2009) ने अपने अध्ययन उपग्रह मानचित्रों के आधार पर भारत में गिरते भूजल स्तर का अध्ययन किया और बताया कि भारतीय प्रायद्वीप के शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क प्रदेश खासतौर से राजस्थान, हरियाणा एवं पंजाब के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 2002 से 2008 तक भूजल स्तर में निरन्तर गिरावट आई है।
जाट (Jat, 2005) के अनुसार बढ़ती नगरीय जनसंख्या की जल की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सतही जल संसाधन सम्पूर्ण नहीं है। इसके परिणामस्वरूप भारत के लगभग सभी शहरों में जल आपूर्ति की व्यवस्था के लिये भूजल पर आधारित रहना पड़ता है। जाट (Jat, 2009) ने अपने अध्ययन ‘नगरीय संकलित जल व्यवस्था’ में स्पष्ट किया है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण अजमेर शहर के भूजल स्तर में निरन्तर गिरावट आई है।
2.2.4 भारत में नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण भूजल का गिरता स्तर
जाट (Jat, 2009) ने अपने अध्ययन ‘नगरीकरण और उसका भूजल पर प्रभाव-एक सुदूर संवेदन तथा GIS आधारित उपागम’ नामक शीर्षक में अजमेर शहर की वृद्धि दर 1989 से 2005 तक सुदूर संवेदन के आँकड़े के आधार पर यह स्पष्ट किया कि नगरीकरण के कारण शहरी क्षेत्र में कंक्रीट संरचना में निरन्तर बढ़ोत्तरी हो रही है यह बढ़ोत्तरी जनसंख्या वृद्धि दर के समानुपातिक आँकी गई है। इसी अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि जनसंख्या की बढ़ती जलापूर्ति की आवश्यकता एवं भवनों व सड़कों के निर्माण के कारण भूजल का निरन्तर दोहन हुआ है। भवनों एवं सड़कों के निर्माण के कारण भूजल का वर्षा के द्वारा पुनर्भरण में निरन्तर कमी आई है। 1991 में अजमेर शहर का भूजल स्तर सतह से 3 से 23 मीटर था जो कि गिरकर 10 से 39 मीटर हो गया जिसका मुख्य कारण वर्षा के द्वारा कम पुनर्भरण तथा अत्यधिक दोहन रहा।
डी. पुरुषोत्तम (Purushotam & et. al, 2011) के वर्तमान अध्ययन ‘पर्यावरण के प्रभाव के कारण भूजल में गिरावट तथा गुणवत्ता में कमी’ में इस बात का उल्लेख किया है कि महेश्वरण जल सम्भर, आन्ध्र प्रदेश में भूजल स्तर के गिरावट का मुख्य कारण भूजल का दोहन, वैज्ञानिक तकनीक का अभाव तथा अव्यवस्थित प्रबन्धन रहा है।
2.2.5 नगरीय क्षेत्रों की जलीय गुणवत्ता में कमी
जल संसाधन मंत्रालय के अध्ययन के अनुसार देश का 70 प्रतिशत सतही जल और संरक्षित भूजल जीव विज्ञान सम्बन्धी जैव और अजैव प्रदूषण से दूषित हो चुका है जो कि मानव जीवन के लिये खतरनाक है। इस प्रदूषण का मुख्य कारण नगरीकरण एवं औद्योगीकरण है। वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 14 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 70 प्रतिशत लोगों के पास ही उपर्युक्त शौच व्यवस्था है इसमें यह स्पष्ट होता है कि मानवीय अपशिष्ट का ज्यादातर भाग सीधे तौर पर सतही प्रवाह या भूस्राव के द्वारा भूजल में प्रविष्ट कर उसे दूषित करता है।
भारत में ज्यादातर अपशिष्ट जल का मुख्य स्रोत घरेलू उत्सर्जन है। देश के 22 बड़े शहरों का घरेलू अपशिष्ट जल प्रतिदिन 7267 मिलियन लीटर है जो सतही जल अथवा भूजल को दूषित करता है। सुनील कुमार करन (Karan & Harada, 2001) के अध्ययन जो कि ढाका, काठमाण्डू तथा दिल्ली में जल गुणवत्ता पर आधारित है इसमें इस बात को स्पष्ट किया गया है कि औद्योगिक एवं नगरीय विकास के कारण यमुना नदी में जैविकीय अवसाद की निरन्तर बढ़ोत्तरी रही है। 1970 में जैविक रासायनिक ऑक्सीजन माँग (BOD) की मात्रा 96.1 टन प्रतिदिन थी जो कि बढ़कर 1997 में 201.2 टन प्रतिदिन हो गई। पर्यावरण एवं वानिकी मंत्रालय (1998) के अनुसार यमुना में अपशिष्ट जल 2220 मिलियन लीटर प्रतिदिन आंका गया जिसका 14 प्रतिशत भाग औद्योगिक क्षेत्रों से आता है।
जाट (Jat, 2009) द्वारा अजमेर नगर के अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है कि नगरीकरण के कारण भूजल का पुनर्भरण वर्षाजल की अपेक्षा अपशिष्ट जल से ज्यादा रहा जिस कारण अजमेर शहर की भूजल गुणवत्ता में कमी आई है।
2.2.6 अलवर में नगरीय एवं औद्योगिक विकास
नगर नियोजन विभाग अलवर द्वारा प्राप्त आँकड़ों के अनुसार 2011 में अलवर शहर का कुल नगरीकृत क्षेत्र 5807 हेक्टेयर है जिसमें 4070 हेक्टेयर भू-भाग पर नगरीय विकास हो चुका है। यह विकसित क्षेत्र कुल नगरीकृत क्षेत्र का 70 प्रतिशत है। वर्तमान भू-सर्वेक्षण के अनुसार कुल नगरीकृत क्षेत्र का 32 प्रतिशत क्षेत्र आवासीय एवं 18 प्रतिशत क्षेत्र औद्योगिक है। नगर नियोजन के 1991 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1988 में कुल नगरीकृत क्षेत्र 3653 हेक्टेयर था उस समय 2226 हेक्टेयर भू-भाग पर नगरीय भू-उपयोग विकसित हो चुका था जो कि कुल नगरीकृत क्षेत्र का 61 प्रतिशत भू-भाग रहा। 1988 के सर्वेक्षण के अनुसार कुल नगरीकृत क्षेत्र का 23.4 प्रतिशत आवासीय एवं 22.3 प्रतिशत भू-भाग औद्योगिक भू-उपयोग में था।
नगर नियोजन के अभिलेख में यह ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है कि अलवर नगरीय क्षेत्र में 1960-65 में 18 हेक्टेयर क्षेत्र पर औद्योगिक क्षेत्र विकसित किया गया था। इसके बाद 1970 में मत्स्य औद्योगिक क्षेत्र का विकास 826 हेक्टेयर में हुआ था जिसमें 1034 भू-खण्डों का आवंटन किया इनमें 690 इकाइयों में औद्योगिक क्रिया-कलाप हो रहा है जिसके अन्तर्गत 2011 में 747 पंजीकृत लघु एवं मध्यम उद्योग स्थापित है। इन उद्योग से 10571 लोगों को जीविका मिली हुई है। इसके अलावा यह शहर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 के नजदीक होने के कारण नई-दिल्ली मुम्बई के मार्ग में आने वाले सभी औद्योगिक क्षेत्रों से सम्पर्क बनाये रखता है। अलवर शहर में औद्योगीकरण के प्रोत्साहन का दूसरा मुख्य कारण इसका राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के मुख्य प्रादेशिक शहर में होना भी रहा है।
आर.पी. सिंह व निधि गाँधी, (Singh & Gandhi, 2004) ने अलवर जिले में जोहड़ों के माध्यम से सामुदायिक जल संसाधन प्रबन्धन का अध्ययन किया। आचार्य एवं अन्य (Acharya & et. al, 2000) ने बताया कि जल का उचित प्रबन्धन वर्तमान में अति आवश्यक हो गया है क्योंकि जल की माँग में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है तथा जल की गुणवत्ता में भी कमी आ रही है इसके अतिरिक्त खाद्यान्न का अभाव हो रहा है अतः इन सभी की पूर्ति जल-स्तर के विकास के द्वारा ही सम्भव है।
लाल (Lal, 2000) ने जल सम्भर प्रबन्धन के विकास के बारे में बताया है कि इससे जल की मात्रा एवं गुणवत्ता में वृद्धि होगी तथा विविध कार्यों हेतु जल का उपयोग हो सकेगा इसके अतिरिक्त सतही जल की मात्रा में वृद्धि होगी। सिंह (Singh, 2000) ने बताया कि राजस्थान सूखा प्रदेश है यहाँ पर वर्षा की मात्रा अनिश्चित तथा असामयिक है। जल संसाधन भी सीमित है। अतः जल संसाधनों का नियोजन एवं प्रबन्धन करना चाहिए जिससे जल का विभिन्न कार्यों में उपयोग किया जा सके।
शुक्ला एवं गुर्जर (Shukla & Gurjar, 1998) ने बताया कि पर्यावरण में सन्तुलन बनाने के लिये यह आवश्यक है कि जल संसाधनों का उचित तरीके से प्रबन्धन किया जाये इसके लिये लोगों को सामूहिक प्रयास करने होंगे। सिंह (Singh, 1996) ने राजस्थान में भूमिगत जल विभव जोन को प्राप्त करने के लिये दूरस्थ संवेदन तकनीक के प्रयोग का विश्लेषण किया। अग्रवाल (Agarwal, 1997) ने बताया कि अलवर जिले के 36 गाँवों में तरुण भारत संघ के द्वारा जल संग्रहण पर जोर दिया गया। जिससे इन गाँवों के सतही व भूमिगत जल-स्तर में बढ़ोत्तरी हुई। गुर्जर एवं गुप्ता (Gurjar & Gupta, 1993) ने बताया कि जल का इस तरीके से उपयोग करना चाहिए कि व्यर्थ में जल का बहाव न हो इससे सतही तथा भूमिगत जल की मात्रा में वृद्धि होगी तथा कृषि, उद्योगों को सतत जल की उपलब्धता होगी। गुर्जर एवं माथुर (Gurjar & Mathur, 1992) ने जल की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि आज जल का इतना व्यर्थ में प्रयोग हो रहा है कि आने वाले समय में जल की कमी होगी तथा जो जल वर्तमान में मौजूद है उसकी गुणवत्ता में कमी आयेगी अतः जितना हो सके जल का संग्रहण किया जाना चाहिए।
इस प्रकार जल संसाधनों का भावी पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता में ह्रास किये बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करना सतत जल प्रबन्धन कहलाता है जो जल संसाधन भूगोल की प्रमुख विषय वस्तु है।
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