संकट में जल योद्धा बनीं बसंती

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उत्तराखंडवासियों के लिए जीवनदायिनी मानी जाने वाली कोसी नदी और क्षेत्र के वनों पर मंडराते खतरे के बादल हटाने के लिए बसंती के अभियान ने रंग दिखाया।

अल्मोड़ा को पानी की जरूरत कोसी नदी से पूरी होती है। कोसी वर्षा पर निर्भर नदी है। गर्मियों में अक्सर इस नदी में जल का प्रवाह कम हो जाता है। उस पर से वन क्षेत्र में आई कमी से स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है। बसंती इन तमाम समस्याओं को देख-समझ रही थीं। उन्हें महसूस हुआ कि अगर जंगलों की कटाई नहीं रोकी गई और जंगलों में लगने वाली आग को फैलने से नहीं रोका गया तो दस वर्ष में कोसी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। ऋषि कश्यप ने सहस्त्राब्दी पहले पानी और जंगलों के बीच सहजीवी रिश्ते की बात प्रतिपादित की थी। कहने का मतलब यह है कि अगर जंगल रहेंगे तभी नदी का अस्तित्व भी रहेगा। उत्तराखंड में कोसी नदी जीवनरेखा पानी जाती है लेकिन जंगलों की बेतहाशा कटाई और शहरीकरण ने पानी संग्रह करने के कई परंपरागत ढांचों को बर्बाद कर दिया। कई जल स्रोत सूख गए। इसका असर हुआ कि शहर से लेकर ग्रामीण इलाकों तक में जल संकट की स्थिति पैदा हो गई। लोगों की प्यास बुझाना मुश्किल होने लगा। हालांकि विपदा की इस घड़ी में बसंती नामक एक जल योद्धा ने नदी जल संरक्षण की कमान संभाली और जंगलों की रक्षा का प्रण किया।

2002 में बसंती ने उत्तराखंड के कसौनी जिले से जल, जंगल एवं जमीन के लिए अपनी लड़ाई शुरू की। दरअसल, जिले के अधिकांश शहर पहाड़ की चोटियों पर बसे हैं इसलिए जल अभाव का असर उन पर ज्यादा पड़ता है। अल्मोड़ा को पानी की जरूरत कोसी नदी से पूरी होती है। कोसी वर्षा पर निर्भर नदी है। गर्मियों में अक्सर इस नदी में जल का प्रवाह कम हो जाता है। उस पर से वन क्षेत्र में आई कमी से स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है। बसंती इन तमाम समस्याओं को देख-समझ रही थीं। उन्हें महसूस हुआ कि अगर जंगलों की कटाई नहीं रोकी गई और जंगलों में लगने वाली आग को फैलने से नहीं रोका गया तो दस वर्ष में कोसी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। लिहाजा, बसंती ने इसी एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने पहाड़ की महिलाओं को संगठित करना शुरू किया। उन्हें बताया कि कैसे जंगलों की रक्षा की जाए ताकि कोसी नदी का जल बचा रहे।

उत्तराखंड में जल, जंगल, जमीन के लिए संघर्षरत बसंतीउत्तराखंड में जल, जंगल, जमीन के लिए संघर्षरत बसंतीलोगों पर बसंती की कथनी का असर भी हुआ। कोसी के ऊपरी जलागम क्षेत्रों में कई गांवों में महिला मंगल दल की महिलाओं ने स्वयं कठिनाई में रहते हुए जंगलों की रक्षा का संकल्प किया। उन्होंने जंगल की निगरानी शुरू कर दी ताकि कोई और उसे नुकसान नहीं पहुंचा सके। पौड़ी और चमोली जिलों में की लोगों ने वनों की आग से जूझते हुए अपने प्राणों की आहूति तक दे दी। जंगल से लकड़ियां कटनी बंद हो गईं। पहले पहल तो गांव के पुरुषों ने इसका विरोध किया लेकिन फिर महिला शक्ति के आगे उन्हें घुटने टेकने पड़े। उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के गांवों में ग्रामीण जल आपूर्ति योजनाओं की विश्वसनीयता हमेशा ही संदिग्ध रही है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो 1952-53 और 1984-85 के बीच जलागम क्षेत्र में वन आवरण में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत की कमी हुई है। वर्ष 1956 और 1986 के बीच भीमताल तथा जलागम क्षेत्र में 33 प्रतिशत की कमी आई। परंतु जलस्रोतों में कमी 25 से 75 प्रतिशत की रही।

कहते हैं कि वनों का संरक्षण वन विभागों द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसमें सामुदायिक भागीदारी आवश्यक है। ऐसे में बसंती ने लोगों को समझाया कि वन उनका है, सरकार का नहीं। इसलिए वन की रक्षा की जिम्मेदारी भी उनकी ही है। इसी के बाद महिलाओं ने वन अधिकारियों से बातचीत कर उनसे एक समझौता किया ताकि जंगलों की रक्षा की जा सके। एक समझौते के तहत न तो ग्रामीण और न ही वन विभाग को जंगल से लकड़ियां काटने की छूट होगी। इस पूरे प्रयास का यह नतीजा निकला कि जंगलों के बहुमूल्य पेड़ बच गए। पहले जहां पाइन के गिने-चुने वृक्ष थे, अब वहां पेड़ों की अच्छी खासी संख्या है। अब मौसमी झरने आमतौर पर साल भर बहते रहते हैं। गर्मियों में नौलों में लंबी कतार देखी जा सकती है जिनमें पेयजल सुलभ है।

जहां तक बसंती की बात है तो इनकी कहानी 12 साल की उम्र से शुरू होती है जब एक बाल विधवा के रूप में उनका उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कसौनी स्थित लक्ष्मी आश्रम में आना हुआ। वह साल था 1980। चौथी कक्षा तक पढ़ी बसंती को मालूम न था कि आगे उनका जीवन क्या मोड़ लेगा। परिवार वालों के फैसले के मुताबिक वे आश्रम में आ चुकी थीं लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पढ़ाई शुरू की। 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और धीरे-धीरे अपना सफर शुरू किया। लक्ष्मी आश्रम की ओर से जिले भर में बालवाड़ी खोले जा रहे थे।

बसंती ने उनमें बच्चों को पढ़ाने की ठानी। वहां उनका सामना 15 साल की ऐसी बच्चियों से हुआ जो स्कूल में पढ़ने नहीं बल्कि अपने बच्चों को छोड़ने आया करती थीं। दरअसल, उस दौर में इलाके में बाल विवाह की कुप्रथा काफी गहरी थी। बसंती इस कड़वी हकीक़त से मुंह तो नहीं मोड़ सकती थी लेकिन उन्होंने लड़कियों की शिक्षा को लेकर अपनी कोशिशें जारी रखीं। वे स्कूलों के अलावा महिला संगठनों से जुड़कर उनके विकास में प्रयत्नशील रहीं। इस तरह देहरादून में उन्होंने करीब पांच साल तक काम किया लेकिन पहाड़ों के प्रति अपने मोह को त्याग नहीं सकीं और वापस कसौनी लौटकर कोसी नदी को बचाने के अभियान में जुट गईं।,

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