संदूषण जलराशियों के बुढ़ापे का संकेत

संदूषण जलराशियों के बुढ़ापे का संकेत,Pc-Encyclopedia Britannica
संदूषण जलराशियों के बुढ़ापे का संकेत,Pc-Encyclopedia Britannica

पृथ्वी पर लगभग 70 प्रतिशत भाग में जल का आधिपत्य है जिसमें यह मुख्यतः समुद्र, ग्लेशियर, नदियों, सरोवर, झरने व भूमिगत जल के रूप में उपलब्ध है। इन सभी जल स्रोतों पर सृष्टि के समस्त जीव-जन्तु किसी न किसी प्रकार निर्भर करते हैं। इस प्रकार समस्त जीव-जन्तुओं व के लिए पानी जीवन दायक सिद्ध होता है। हालांकि जीवों के लिए सभी जल  स्रोतों से जल उपलब्ध नहीं रहता है  ना ही वे हर स्रोत से जल प्राप्त कर सकते  है । परन्तु जल कई  में रहकर भी विभिन्न प्रकार की जंतु व वनस्पति प्रजातियों की आवश्यकता की पूर्ति करता है। जिस प्रकार खारे जल में रहने वाले जन्तुओं के लिए स्वच्छ जल बेकार है उसी प्रकार स्वच्छ जलीय प्राणियों के लिए खारे जल का कोई महत्व नहीं। परन्तु जल का महत्व जहां प्रत्येक जीव के लिए है वहीं उन्हीं जीवों से जल स्रोतों का स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।

प्रदूषण

आधुनिक युग में पढ़ते औद्योगीकरण व विकास की अन्य मानवीय गतिविधियों के चलते विभिन्न जल स्रोतों के जल की गुणवत्ता पर काफी मात्रा में विपरीत प्रभाव पड़ा है। अतः जल प्रदूषण पर्यावरण के लिए एक बड़ी समस्या बन चुकी है। परन्तु जलराशियों के लिए प्रदूषण के अलावा संदूषण भी एक और समस्या है जिससे जलराशियों के स्वास्थ्य को खतरा रहता है। संदूषण की समस्या मुख्यतः स्थिर ताजा जलीय स्रोतों के लिए ही होती है परन्तु प्रदूषण का प्रभाव नदियों व झरनों पर भी पड़ता है। प्रदूषण  मुख्यतः मानवीय गतिविधियों के चलते उत्पन्न होता है जबकि संदूषण प्राकृतिक रूप से समय के साथ-साथ होता रहता है।

बायोमेग्नीफिकेशन सफर जहर का

पिछले दो दशकों में बढ़ते हुए औद्योगिकरण नगरीकरण तथा कृषि में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग ने पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। कल कारखानों द्वारा निष्कासित औद्योगिक कचरा तथा कृषि भूमि से वह कर लायी गयी क्रमशः विषैली भारी धातुएँ तथा कीटनाशक अवशेष अन्त में आकर स्वच्छ जल में मिलते हैं। कोई भी पोखर या नदी इन प्रदूषकों के प्रभाव से वंचित नहीं रह गयी है। औद्योगिक कचरा एवं वाहित कीटनाशकों के अवशेष किसी जल स्रोत में मिलकर जल की गुणवत्ता को ही नहीं कम करते, अपितु उस जल में रहने वाले जीव-जन्तु और पेड़-पौधों को भी नुकसान पहुंचाते हैं।

जल में रहने वाले पादप प्लवक अपने अन्दर प्रदूषकों की मात्रा को जल में उपस्थित प्रदूषकों की  सांद्रता कई गुना अवशोषित करके एकत्र कर लेते हैं, इस क्रिया को बायोएक्युमुलेशन कहते हैं। इनका भक्षण जलजन्तु प्लवक या छोटी मछलियों करती रहती हैं, तब उनके ऊतकों में इन प्रदूषकों की मात्रा पादप प्लवकों से कहीं ज्यादा हो जाती है। बायोएक्युमुलेशन की क्रिया उत्पादक से निम्न एवं उच्च उपभोक्ता की ओर अथवा प्लवक एवं मछत्तियों के साथ उच्च उपभोक्ता तक होती है। इसी प्रकार यह सान्द्रता बड़ी मछलियों तक पहुंचकर पानी में प्रदूषक की सान्द्रता की कई गुना हो जाती है सान्द्रता के इस प्रकार कई जैविक स्तरों से गुजरने पर बढ़ने की प्रवृत्ति को बायोमेग्निफिकेशन कहते हैं।मनुष्य भी यदि इन मछलियों का भक्षण करे तो निश्चित रूप से मछली से कई गुनी भारी धातुएँ तथा कीटनाशक उसके अंगों में जमा होकर उसकी कार्यिकी प्रजनन क्षमता एवं व्यवहार को परिवर्तित या प्रभावित कर सकते हैं।

संदूषण निरन्तर पलने वाली प्रक्रिया
 संदूषण निरन्तर पलने वाली यह प्रक्रिया है जिसके अन्त के बाद पारिस्थितिकी तन्त्र का स्वरूप बदल जाता है और जतीय तन्त्र स्वतीय तन्त्र में परिवर्तित हो जाता है।

कीटनाशकों व भारी धातुओं के स्रोत

बदले औद्योगीकरण ने एक तरफ जहां हमारे जीवन को नया आयाम दिया है वहीं पर इसके कुछ बुरे परिणाम पर्यावरण पर पड़े है। कुछ कारखानों ने चिमनी के धुएं से वायु को प्रदूषित किया वहीं कुछ उद्योगों जैसे पल्प पेपर, शुगर, डिस्टलरी, टेनरी तथा टेक्सटाइल उद्योगों ने जल की गुणवत्ता को हानि पहुचाई है।

यूँ तो कुछ जल प्राकृतिक रूप से भी प्रदूषित होता रहता है परन्तु भीषण जल प्रदूषण के पीछे काफी हद तक मानवीय गतिविधियों का हाथ भी रहता है जिसकी वजह से पारिस्थितिकी तन्त्र में विषले पदार्थ आकर कई मुश्किलें पैदा करते हैं। जल में विषले पदार्थों को लाने में औद्योगिक इकाइयों काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। औद्योगिक कचरा जिसमें कार्बनिक व अकार्बनिक प्रदूषक होने के साथ-साथ भारी विषैली धातुएँ भी होती हैं जो अधिक मात्रा में काफी खतरनाक साबित होती हैं। विषैली धातुओं के कुछ रूप ही ज्यादा खतरनाक होते हैं जैसे मर्करी (पारा) का मिथाइल मर्करी, क्रोमियम के ट्राइ हेक्सावेलेन्ट स्वरूप तथा कुछ धातुएं मूल स्वरूप में ही खतरनाक साबित होती हैं। मर्करी, क्रोमियम, आर्सेनिक, तथा फ्लोराइड से क्रमशः मिनामाटा रोग, इटाई-इटाई (आउ, आउच, आर्सेनिक वॉर्निंग तथा फ्लोरोसिस, हो जाता है जो कि देश के कई हिस्सों में देखने में आया है।

कृषि में कीटनाशकों का अधाधुन्ध प्रयोग भी इस किया में अहम भूमिका निभाता है। कुछ कीटनाशक जैसे क्लोरीकृत हाइड्रोकार्बन (डी डी टी. एन्ड्रिन, टोक्साफीन, एल्ड्रिन, डाइएल्ड्रिन) स्थाई होते हैं तथा काफी समय तक विषैली अवस्था में जमा होकर रुके रहते हैं, जिसके घातक परिणाम विभिन्न रूपों में आते हैं। इसलिए कुछ देशों ने डी डी टी जैसे कई कीटनाशकों पर पूर्ण पाबन्दी लगा दी है। हालांकि डाइक्लोफेनिन सोडियम जैसे कई औषधीय प्रयोग में आने वाले लवणों का खतरनाक परिणाम देखकर उन पर भी पाबंदी लग चुकी है परन्तु कहीं न कहीं अब भी इनका प्रयोग जारी है जिनका परिणाम निकट भविष्य में गम्भीर ही होगा।

रन ऑफ प्रक्रिया

वर्षा द्वारा खेतों से कीटनाशकों व ऊर्वरकों की काफी मात्रा जल में घुलकर बहकर जल स्रोतों में आकर मिल जाती है। इस प्रक्रिया को वैज्ञानिक रन ऑफ प्रोसेस कहते हैं। इसके अलावा धूल के कणों से लगे कीटनाशकों के अवयवों को वायु उड़ाकर मीलों दूर ले जाती है और स्वच्छ वातावरण भी इनका प्रसार करते हैं। बरसात के मौसम में रन ऑफ द्वारा लाये गये प्रदूषक घुलित अवस्था में आकर वनस्पतियों के लिए उपलब्ध हो जाते हैं व कुछ मात्रा मृदा परिच्छेदिका से होती हुई भूजल सारणी में समा जाती है।

सतही स्वच्छ जलीय पारितन्त्र में पादप प्लवक है। को जन्तु प्लवक जन्तु प्लवक को छोटी मछलियां तथा छोटी मछलियों को बड़ी मछलियां खाती हैं। इस प्रकार खाने का एक क्रम या श्रृंखला बन जाती है जिसे खाद्य श्रृंखला या फूड चेन कहते हैं। यह किसी न किसी रूप में सभी पारिस्थितिकी तन्त्रों में पायी जाती है। यदि किसी जलीय तन्त्र में डी डी टी की मात्रा 10-6 पी पी एम तक पहुँच चुकी है तब जन्तु प्लवकों में यह सांद्रता 10-2. पी पी एम से अधिक तथा उन्हें खाने वाली छोटी मछलियों में 1.0 पीपीएम से अधिक पहुँच जाती है।

 प्रभाव
पोषक तत्व की निरंतर वृद्धि से एक जलराशि अत्याधिक संदूषित हो जाती है

प्रभाव

कीटनाशक या भारी धातुऐं इस जल तन्त्र के जीवों को ही प्रभावित नहीं करते अपितु मछली भक्षी पक्षी, पशु व मनुष्यों को भी हानि पहुंचाते हैं। एक शोध के अनुसार एक औद्योगिक क्षेत्र में भारी धातुओं के भूमिगत जल में जाने के बाद सिंचाई करने पर फसल के जड़ व तनों में भारी धातुओं की विचित्र मात्रा देखने को मिली।

इन फसलों को किसी न किसी रूप में पशु-पक्षी, जंगली जानवर तथा मनुष्य ही उपयोग करेंगे तब प्रदूषकों का मनुष्य ऊतको में आना तय है। पशुओं के दूध द्वारा भी यह कही आगे बढ़ सकती है। यह प्रक्रिया जन्तु कार्यिकी, व्यवहार, प्रजनन क्षमता, मस्तिष्क, आंत्रीय, श्वसन व संवहन सम्बन्धी रोगों का कारण बनती है। इनके अलावा मिथेग्लेविनेमिया, सुस्ती, थकावट, सरदर्द, त्वचा कैंसर, अल्सर, एम्फीसिमिया, एनीमिया, प्रोटीन्यूरिया, पेरिफेरल, नयूरोपेथी तथा केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र विकार आदि दोष उत्पन्न होने की पूरी संभावना रहती है। 

 

अतः जल प्रदूषण जलीय जीव-जन्तुओं के लिये ही नहीं, मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। अगर हमें अपनी जलीय सम्पदा की रक्षा करनी है तो जल स्रोतों में औद्यागिक कचरा तथा कीटनाशकों को मिलने से रोकना होगा। इसी तरह से जलीय जैविक सम्पदा का स्थायित्व एवं संरक्षण संभव है। यह मनुष्य के लिये भी हितकर होगा क्योंकि काफी हद तक मानव जीवन जलीय जीवों तथा जल पर निर्भर है।

इन विषैली धातुओं का परिणाम जाने क्या होगा यह तो आने वाला समय ही तय करेगा परन्तु यह तो साफ है कि यदि बेहतर भविष्य की कल्पना करनी है तो नियंत्रण संयंत्र (कंट्रोल डिवाइस) व अन्य आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करके तथा विभिन्न उपचारों द्वारा जल प्रदूषण के स्रोतों पर अंकुश लगाना जरूरी है।

 

संदूषण

संदूषण  (Eatrophication)

आम तौर पर संदूषण भी प्रदूषण का ही एक रूप माना जाता है परन्तु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संदूषण थोड़ा  भिन्न है। वैसे भी प्रदूषण के लिए मुख्यतः मानवीय गतिविधियां ही जिम्मेदार होती है, परन्तु संदूषण निरन्तर चलने वाली वह प्रक्रिया है जिसके अन्त के बाद पारिस्थितिकी तन्त्र का स्वरूप बदल जाता है और जलीय तन्त्र स्थलीय तन्त्र में परिवर्तित हो जाता है। यहीं से अनुक्रमण की शुरुआत होती है।

कारण अचिन्तित स्रोतों से खनिज लवण आकर जल राशि में घुलने के कारण प्लवकों व जलीय पौधों को अत्यधिक पोषण व अनुकुल दशाएँ मिलने से ये अपने आकार व संख्या में वृद्धि करने लग जाते हैं। यह वृद्धि इतनी होती है कि पूरे जलीय पारितन्त्र को ढक लेती है। कुछ समय बाद ये जलीय पौधे मृत होकर जलराशि की तली पर बैठ कर सड़ने लगते हैं। चूंकि जल में खनिज बढ़ने के अलावा जल की गुणवत्ता पर कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है जबकि प्रदूषण में प्रदूषक चिन्हित स्रोतों से आते हैं और जल की गुणवत्ता पर हमेशा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हालांकि प्रदूषकों की मात्रा कम या अधिक हो सकती है। क्रियाविधि जल राशियों में कार्बनिक पदार्थ व खनिज लवण बढ़ जाने पर संदूषण की स्थिति बन जाती है। पोषक तत्वों की अधिकता के कारण जलीय स्थिति यह हो जाती है कि पूरी जल राशि ही जलीय पौधों से ढकी हुई सी लगती है। इनमें तैरने वाले पौधों के अलावा जल मग्न पौधे शामिल होते हैं। जल राशि में - बाहरी स्रोतों से रन ऑफ प्रॉसेस द्वारा पोषक तत्व निरन्तर आते रहते हैं और पौधे भी अविरल वृद्धि करते रहते हैं। कुछ समय पश्चात् (इसी घटनाक्रम के - साथ-साथ) जलीय पौधों के मृत भाग टूटकर तली पर बैठ जाते हैं जो पुनः जल में पोषक तत्वों की वृद्धि करते हैं और तलछट के तल को भी बढ़ाते हैं। तलछट में अपनी जड़ें जमाकर रखने वाले पौधे इन पोषक तत्वों की पुनः प्राप्ति करते हैं। इस प्रकार पोषक तत्वों की निरन्तर वृद्धि से एक जलराशि अत्यधिक संदूषित हो जाती है।

मौजूदा हालात में भारत की कई बड़ी झीलें कूड़ा फेंकने व अन्य मानवीय गतिविधियों के चलते सिकुड़ रही हैं और उनके खत्म होने की कगार पर पहुंचने की प्रबल आशंका है। ऐसा ही कुछ छोटे तालाबों व झीलों के साथ हो रहा है। जिनमें कई छोटे-मोटे तालाबों को तो अतिक्रमण करके भूमि का निर्माण कर दिया गया है। मगर बड़ी झीलों व कुछ प्रदेशों में तालाबों के लिए भी कुछ सरकारी योजनायें जीवनदायनी सिद्ध हो रही हैं जो इन जल राशियों को पुनः स्थापित करती हैं। खदान व  तलछट की सफाई कराकर खनिजों की मात्रा को कम करने का प्रयास किया जाता है मगर ये योजनायें भी कुछ जगहों तक सीमित है। गौरतलब है कि वर्ष 2003 को स्वच्छ जल वर्ष घोषित किया गया था जिसके तहत वार्षभर साफ पानी की किल्लत को दिखते हुए जल प्रदूषण नियंत्रण, पुनः स्थापन व व्यवस्था और जल प्रबंधन जैसी बातों का विशेष ध्यान रखना था परन्तु सिर्फ एक वर्ष में किसी एक पहलू पर ध्यान देने से ही उसकी समस्याओं का निवारण नहीं हो सकता, उसके लिए हर पल सचेत व जागरुक रहना होगा तथा दूसरों को भी जागरूक रखना होगा।

संपर्क सूत्र : डॉ पवन कुमार भारती, जलीय जैवविविधता एवं संरक्षण प्रयोगशाला, जन्तु एवं पर्यावरण विज्ञान विभाग, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखंड)

Path Alias

/articles/sandauusana-jalaraasaiyaon-kae-baudhaapae-kaa-sankaeta

Post By: Kesar Singh
×