संदर्भ आपदा : प्रकृति की चेतावनियों को सुनें

18 जून, 2013 को उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी के किनारे बाढ़ से क्षतिग्रस्त सड़क (छवि: एएफपी फोटो/ भारतीय सेना; फ़्लिकर कॉमन्स)
18 जून, 2013 को उत्तराखंड के चमोली जिले में अलकनंदा नदी के किनारे बाढ़ से क्षतिग्रस्त सड़क (छवि: एएफपी फोटो/ भारतीय सेना; फ़्लिकर कॉमन्स)

वायनाड प्राकृतिक लिहाज से देश के सबसे संवेदनशील क्षेत्रों में आता है। वैज्ञानिकों की एक वैश्विक टीम की रिसर्च के मुताबिक वायनाड जिले में घातक भूस्खलन भारी बारिश के कारण हुआ, जो जलवायु परिवर्तन के कारण 10 प्रतिशत अधिक थी। भारत, स्वीडन, अमेरिका और ब्रिटेन के शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि जैसे-जैसे जलवायु गर्म होती जाएगी, ऐसी घटनाएं आम होती जाएंगी।.

प्रकृति का अत्यधिक दोहन और छेड़छाड़ के दुष्परिणाम वायनाड, जोशीमठ और केदारघाटी के तौर पर हमारे समक्ष हैं। प्रकृति बार बार किसी ने किसी घटना या तरीके से पूरी मानव जाति को चेतावनी और संदेश दे रही है, और हम लगातार प्रकृति के संदेशों को अनसुना और अनदेखा कर रहे हैं। 2013 में केदार घाटी में जो सैलाब आया और तबाही हुई अथवा उत्तरकाशी में भूकंप के बाद जो बाढ़ आई, हमने उन्हें ही प्रलय माना। विनाश और बबार्दी का दूसरा नाम प्रलय है। अब केरल के वायनाड जिले में लगातार तीन भू-स्खलन आए और फिर सैलाब आया, गांव के गांव दफन हो गए, 400 से अधिक घर देखते ही देखते मलबा हो गए, करीब 387 मौतें हो चुकी हैं और 200 से ज्यादा लोग लापता बताए जा रहे हैं, यह प्रलय नहीं है, तो और क्या है? 

स्थावराणां हिमालयः, इस प्रसंग का उल्लेख श्रीमद्भागवत गीता के दसवें अध्याय के 25 वें श्रोक में हुआ है। इसमें श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैं स्थिर रहने वालों में हिमालय हूं सुखमय जीवन के लिए वेदों में हिमालय की आराधना का उल्लेख भी हुआ है। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य कुमारसंभव में हिमालय को धरती का मानदंड तथा दुनिया की छत व आश्रय बताया था। अनादिकाल से पहाड़ आध्यात्मिक चेतना की पुण्यभूमि रहे हैं।

प्रकृति के प्रबल उपासक रहे कई ऋषि मुनियों की तपोस्थली, भक्ति व अनुसंधान का केंद्र पर्वतराज हिमालय ही रहा है। मगर बढ़ती प्राकृतिक आपदाएं व अंधाधुंध निर्माण कार्य पहाड़ों की स्थिरता को चुनौती पेश कर रहे हैं।

यानी देश की पारिस्थितिकी का केन्द्र हिमालय लगातार अनदेखी का शिकार रहा है। स्थानीय राजनीति और केन्द्र सरकार की समझ ने हिमालय की सारी समस्याओं का इलाज यही माना कि इसके विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग राज्य का दर्जा दे दिया जाए। इससे एक फर्क यह पड़ा कि हिमालय के दर्द केन्द्र सरकार के न होकर राज्यों के हो गये। दूसरी तरफ, जो लोग राज्य की मांग कर रहे थे उनके लिए उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ज्यादा महत्वपूर्ण थीं। इसके पीछे हिमालय के संरक्षण की सोच कहीं नहीं थी। यदि पुराने राज्यों के बजाय नवोदित राज्य उत्तराखंड पर नजर डालें तो पता चलता है कि राज्य गठन के बाद इसे बोनस स्वरूप त्रासदियां ही त्रासदियां मिलीं। और ज्यादातर आपदाग्रस्त क्षेत्र वे ही हैं जो किसी न किसी जलविद्युत परियोजना के सुरंग क्षेत्र में स्थित हैं या फिर जिन नदियों के ऊपर के भू भाग पर बांध बनाये गये हैं या जो मानव बस्तियां घने रूप से नदी तट पर बसी हुई हैं। आपदा की मार उन क्षेत्रों ने भी झेली हैं जहां पर नयी नयी सड़कों का निर्माण कराया जा रहा है। क्योंकि बरसात के दौरान आने वाली आपदाओं की मार उन क्षेत्रों में नहीं है जो उपरोक्त तीनों परिस्थितियों से दूर हैं या जहां बांध, सुरंग तथा सड़क जैसे तथाकथित राजनीतिक विकास कार्य नहीं हुए हैं।

16 जून 2013 को केदारनाथ धाम के पीछे मौजूद चोराबाड़ी ग्लेशियर के ऊपर बादल फटा। ग्लेशियर में बनी एक पुरानी झील में इतना पानी भर गया कि उसकी दीवार टूट गई। पांच मिनट में पूरी झील खाली हो गई। पानी इतनी तेजी से निकला कि केदारनाथ धाम से लेकर हरिद्वार तक 239 किलोमीटर तक सुनामी जैसी लहरें देखने को मिलीं। चारों तरफ तबाही और बर्बादी। हजारों लोग मारे गए। हजारों का आज भी पता नहीं चला। नदियों का बढ़ा जलस्तर देख डर लग रहा था। लोगों को बचाने के लिए सेना, एयरफोर्स और नौसेना ने 10 हजार से ज्यादा सैनिक और 50 से ज्यादा हेलीकॉप्टर और विमान लगाए। वायुसेना के विमानों ने 2137 बार उड़ान भरी। 1.10 लाख से ज्यादा लोगों को बचाया गया। साल-दर-साल बीतते चले गए। हादसे के निशान तो अब भी पहाड़ों की ढलानों पर दिखते हैं। केदारनाथ धाम जाने की दूरी भी बढ़ गई। क्योंकि रामबाड़ा कस्बा पूरी तरह से खत्म हो गया था। नया रास्ता बनाया गया। जो पुराने रास्ते से करीब तीन किलोमीटर ज्यादा है। पहले आप केदारनाथ घाटी के बाएं पहाड़ों पर चलते हुए मंदिर तक जाते थे अब रामबाड़ा से रास्ता दाहिनी ओर कट जाता है।

संकट कई कारणों से उत्पन्न हुआ है, जिनमें वर्षों से चल रहा अनियोजित निर्माण, जलविद्युत परियोजनाएं और उचित जल निकासी व्यवस्था का अभाव शामिल है। 1976 में एक सरकारी रिपोर्ट में जोशीमठ में भारी निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई थी, जिसमें कहा गया था कि मिट्टी की भार वहन क्षमता की जांच के बाद ही इसकी अनुमति दी जानी चाहिए। रिपोर्ट में उचित जल निकासी और सीवेज प्रणाली के निर्माण तथा कटाव को रोकने के लिए कंक्रीट सीमेंट ब्लॉक लगाने का भी सुझाव दिया गया था। लेकिन विशेषज्ञों की हर हिदायत और चेतावनी को अनसुना किया गया। वायनाड में जो कुछ हुआ, यह कुदरती मार नहीं, मानव निर्मित घटना है, क्योंकि आदमी अपनी मौज मस्ती और ऐयाशी के लिए पहाड़ों को तोड़ रहा है। पहाड़ों की चोटियों पर भी इमारतें बनाई जा रही हैं। केरल की भौगोलिक स्थिति परंपरागत पहाड़ों से भिन्न है, लेकिन देश भर के 80-85 फीसदी भू-स्खलन केरल में ही आते हैं।

पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के मुताबिक, 2015 से 2022 तक 3782 भूस्खलन आए। उनमें से करीब 60 फीसदी केरल में ही आए। मौजूदा हालात पर विशेषज्ञों का मानना है कि अरब सागर का तापमान बढ़ने से बेहद घने बादल बने और उसी से केरल में कम समय में बहुत ज्यादा बारिश हुई। वायनाड पहाड़ी जिला है और पश्चिमी घाट का हिस्सा है। यहां 2100 मीटर तक ऊंचे पहाड़ हैं।

विशेषज्ञों की मानें तो, जलवायु परिवर्तन ने भी बारिश की स्थिति और भूस्खलन की तीव्रता को बढ़ाया है। एक शोध में कहा गया है कि जो वायनाड साल भर बूंदाबांदी और मानसून की बारिश वाला ठंडा, नम वातावरण वाला इलाका होता था, जलवायु परिवर्तन के कारण अब सूखा, गर्म, लेकिन मानसून के दौरान भारी, तीव्र बारिश वाला क्षेत्र बन गया है। इस बदलाव से भूस्खलन का जोखिम बढ़ा है। 2018 के मानसून में भी खूब बारिश हुई थी, तब करीब 400 लोगों की जान चली गई थी। उसके बाद केरल में भू-स्खलन वाला क्षेत्र बढ़ गया है। इस हादसे, संकट या घटना पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।

देश में हर राज्य में, हर क्षेत्र में विकास होना चाहिए, लेकिन ऐसी घटनाओं से सबक भी सीखना चाहिए। विकास कार्य जापान और ताइवान सरीखे देशों में भी हो रहे हैं। वहां भी पहाड़ काटे जा रहे हैं, लेकिन ऐसे हादसों से बचने के बंदोबस्त भी किए जा रहे हैं। वे दीवार पुश्ता लगाना हो अथवा पेड़-पौधों का रोपण या कुछ और बंदोबस्त करना हो, जापान इसमें अग्रणी रहा है। वहां के पहाड़ों को स्थिर बनाए रखने के लिए विशेष तरह की जालियां तक लगाई गई हैं। देश के उत्तराखंड राज्य में टिहरी बांध में ढलानों की कटाई के बाद बेहतर सुरक्षा उपाय किए गए हैं। ताइवान ने पहाड़ पर दबाव मापी यंत्र लगाकर एक भिन्न प्रयोग किया है। इससे यथासमय पता चल जाता है कि पहाड़ पर कितना दबाव है और वह लोगों को पहाड़ के दरकने को लेकर आगाह कर देता है। हमारे देश में जो निर्माण कार्य बेलगाम और अनियोजित तरीके से किए जाते हैं। खनन तक धड़ल्ले से कराया जाता है। पहाड़ को काटते-तोड़ते रहेंगे, तो ऐसे प्रलय कैसे रोके जा सकते हैं? इस विषय पर गंभीर चिंतन होना चाहिए। निस्संदेह, मौजूदा परिस्थितियों में जरूरी है कि विभिन्न राज्यों में ऐसी आपदाओं से बचाव की तैयारी करने और निपटने के लिये तंत्र को बेहतर ढंग से सुसज्जित करने के तौर-तरीकों पर भी युद्धस्तर पर काम किया जाए। इसमें दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में देश में आपदा प्रबंधन की दिशा में प्रतिक्रियाशील तंत्र सक्रिय हुआ है और जान-माल की क्षति को कम करने में कुछ सफलता भी मिली है, लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इसके साथ ही पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास और पर्यटन को बढ़ावा देने के प्रभाव के बारे में विशेषज्ञों की चेतावनियों पर ध्यान देने की जरूरत है। जिसके लिये राज्य सरकारों की सक्रियता, उद्योगों की जवाबदेही और स्थानीय समुदायों की जागरूकता की जरूरत है। अपनी आबादी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की तुलना में देश कहीं ज्यादा तेजी से प्राकृतिक संसाधनों को खत्म कर रहे हैं। गौरतलब है कि इन देशों में भारत भी शामिल है जो अभी भी अपने देश में रहने वाले लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर रहा है। यह जानकारी हाल ही में यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स द्वारा वर्ष 2021 में किए एक अध्ययन में सामने आई है जोकि जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित हुआ है। वायनाड की त्रासदी का बड़ा सबक यह है कि हमें प्राकृतिक संसाधनों के विवेकपूर्ण ढंग से इस्तेमाल के प्रति नये सिरे से प्रतिबद्ध होना होगा। केदारनाथ, जोशीमठ और वायनाड में प्रकृति के रौद्र रूप हम देख और भोग चुके हैं। इसलिए समय रहते प्रकृति की चेतावनियों और संदेशों को समझना होगा, अपितु आने वाले समय में प्रकृति का रौद्रता का आकार विशाल और भयानक हो सकता है।

 

स्रोत - चाणक्य मंत्र, अगस्त 2014

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Post By: Kesar Singh
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