सन्दर्भ नर्मदा : खापरखेड़ा अभी डूबा नहीं है

नर्मदा नदीइस बात के प्रमाण मिले हैं कि आज से करीब 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश के धार जिले में ‘पेलियो चैनल’ यानी पुरानी नदी जिसने जगह बदली है। अभी इस सम्भावना को तलाशा जा रहा है कि इस पौराणिक नदी का नर्मदा से कोई सम्बन्ध था या नहीं। क्योंकि यह नदी भी नर्मदा की तरह पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। वर्तमान में नर्मदा नदी इससे मात्र 10 किलोमीटर दूरी पर बह रही है। इससे नर्मदा के उद्गम पर भी प्रकाश डाले जाने की उम्मीद है। (हिंदुस्तान टाइम्स, 30 जुलाई, 2012)

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अरुण सोनकिया ने 5 दिसम्बर 1982 को नर्मदा नदी के किनारे स्थित हथनौरा से एक मानव फाजिल की खोपड़ी की हड्डी खोज निकाली। इसे नर्मदा मानव का नाम दिया गया जो कि जावा मानव या पेकिंग मानव जैसा नाम है। दल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ये हड्डी किसी महिला की है जो कि आदिमानव की प्रागैतिहासिक पूर्वज होगी। दिल्ली विश्वविद्यालय के नृतत्वशास्त्र विभाग के प्रमुख डीके भट्टाचार्य का कहना है कि यह शानदार खोज है जो कि मनुष्य के उद्गम को लेकर दक्षिण एशिया में चल रहे अध्ययन की दिशा ही बदल देगी। सोनकिया के नेतृत्व वाले दल के सदस्यों का कहना है कि यह फाजिल होमो ईरेक्टस का है, जो कि होमा स्पाइन्स (वर्तमान मेधावी मानव) से पहले की प्रजाति है। होमो ईरेक्टस का धरती पर काल 1,80,000 वर्ष से 2,00,000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। वैज्ञानिकों को भय है कि विकास के आधुनिक मॉडल से प्रागैतिहासिक स्थलों को हानि पहुँच रही है। भट्टाचार्य का यह भी कहना है कि नर्मदा पर बनने वाले बाँधों से इन स्थलों के स्थायी डूब में आने की सम्भावना है।

नर्मदा मानव को खोजे चार दशक से भी ज्यादा हो गए। लेकिन इससे सम्बन्धित अध्ययन का अगला चरण हमारे सामने नहीं आया। बल्कि दूसरी ओर नर्मदा नदी पर बरगी बाँध, इंदिरा सागर बाँध और ओंकारेश्वर बाँधों की डूब में घाटी का काफी बड़ा इलाका आ चुका है। इन दोनों बाँधों से थोड़ा आगे मध्यप्रदेश में नर्मदा नदी पर बनने वाला अंतिम बड़ा बाँध महेश्वर स्थित है। इसकी आंशिक डूब में पुरातत्वीय महत्व के नावड़ा टोली जैसे स्थान आ रहे हैं।

जहाँ महेश्वर बाँध समाप्त होता है वहीं से कमोवेश सरदार सरोवर परियोजना का डूब क्षेत्र आरंभ हो जाता है। गुजरात में निर्मित सरदार सरोवर जल-विद्युत परियोजना के लिए बने जलाशय में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के सैकड़ों गांव व हजारों परिवार डूब में आ रहे हैं। इस बाँध की डूब में एक पूरी सभ्यता आ रही है। गौरतलब है कि डूब में सिर्फ जमीन नहीं आती और महज परिवार व लोग ही नहीं उजड़ते बल्कि इससे एक पूरा सांस्कृतिक परिवेश उजड़ता है। ये विस्थापन किस हद तक विनाशकारी सिद्ध होता है इसके बारे में सुप्रसिद्ध विचारक डॉ. कपिल तिवारी हैं कहते हैं कि वन या भूमि अपने निवासी को एक सांस्कृतिक वातावरण प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह उसका जनपद है यानि तुम्हारी संस्कृति का घर है। अतएव किसी भी प्रकार के नए वातावरण में संस्कृति की क्षतिपूर्ति सम्भव नहीं है। बदला हुआ भूगोल उसके अर्थात विस्थापित व्यक्ति के सांस्कृतिक वातावरण का जनपद हो ही नहीं सकता। इस नए स्थान पर मनुष्य महज जिंदा रह सकता है। केवल शारीरिक रूप से जिंदा को सब कुछ मान लेना भी भूल होगी क्योंकि एक मनुष्य में जीने के साथ आनंद की भावना भी होना अनिवार्य है। जाने-अनजाने सबसे पहले संस्कृति का निर्माण होता है। इसके बाद मानस का। मानस जीवन के रस निर्मित करने का और अंततः या अंत में रचना प्रकट या निर्मित होती है। यह एक स्वतःस्फूर्त एवं सतत प्रक्रिया है। नया वातावरण इस प्रक्रिया को सिर्फ बाधित ही नहीं करता, वरन इसे तोड़ ही देता है। यहाँ यह भी स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि नए वातावरण में इसकी क्षतिपूर्ति हो ही नहीं सकती। याद रखिए संस्कृति का जनपद बनने में सहस्त्राब्दियाँ लगती हैं ।

यानि किसी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक वातावरण बनने के लिए आवश्यक है कि किसी स्थान विशेष पर निवास या बसाहट की निरंतरता बनी रहे। इस कसौटी पर तोलें तो नर्मदा घाटी और इससे सटे हुए स्थानों पर बसाहट की जितनी निरंतरता हमें मिलती है उतनी अन्यत्र नहीं। उदाहरण के लिए बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक हमारे इतिहासकारों का सामान्य तौर पर यह मानना था कि भारतीय संस्कृति का दूसरा चरण कमोवेश यहाँ आर्यों के आगमन अर्थात करीब 1500 ईसा पूर्व से प्रारम्भ हुआ। अतएव वे इसे दुनिया की नवीनतम संस्कृति जैसी संज्ञाएं देने लगे। लेकिन बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में भारत के पुरातत्त्व विभाग ने पश्चिमी पंजाब के हड़प्पा और सिंध प्रांत के मोहनजोदड़ो में किए गए उत्खनन में पाया कि ताम्रयुग से बहुत पहले भारत में एक उन्नत नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। बाद में किए गए उत्खननों से यह बात भी सामने आई कि यह संस्कृति यहीं तक सीमित नहीं थी बल्कि इसकी परिधि में पूरा पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और काठियावाड़ का बड़ा हिस्सा भी आता था जो कि एक ओर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तो दूसरी ओर यह दक्षिण भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों तक फैला हुआ था। यह आश्चर्य का विषय है कि आजादी के पहले और उसके बाद कभी भी नर्मदा घाटी को सभ्यता के विकास की राह समझने में उतना महत्व नहीं दिया गया, जितना कि दिया जाना चाहिए था। लगातार यह माना और मनवाया गया कि भारतीय सभ्यता की नींव सिंधु घाटी या हड़प्पा संस्कृति से ही शुरू होती है। लेकिन इस अफरा-तफरी में हम यह भी भूल गए कि संस्कृतियाँ किसी आकृति की तरह नहीं होतीं जिनकी कोई निश्चित सीमा हो और जहाँ पर वह एकाएक लुप्त हो जाती हो। इसे किसी दो देशों की भौगोलिक व राजनीतिक सीमा के उदाहरण से ज्यादा अच्छे से समझा जा सकता है। कहने का अर्थ यह है कि संस्कृतियां अपने केंद्र से जैसे-जैसे दूर तक विस्तारित होने लगती हैं वैसे-वैसे उनमें अधिक लोच आती जाती है और वे उस संस्कृति की और आकर्षित होने लगती हैं, जो दूसरे छोर से नजदीक होती हैं। इस प्रक्रिया में वे कुछ इस नई संस्कृति को देती हैं और थोड़ा बहुत उनसे ले लेती हैं। शायद यही वृत्ति भारत में विविधता में एकता जैसे मुहावरे गढ़ती है।

नर्मदा घाटी के सम्बन्ध में इस प्रक्रिया को ध्यान में नहीं रखा गया। इस पूरी नदी घाटी सभ्यता को पूर्णत आरण्यक (वनग्रामी) मानकर इसे अकेला छोड़ दिया गया। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही था? नर्मदा घाटी का ऊपरी इलाका आरण्यक संस्कृति का संवाहक हो सकता है। लेकिन जैसे-जैसे मध्य घाटी में आते हैं वैसे-वैसे एक अलग संस्कृति हमारे सामने आती है। भीमबेटका और होशंगाबाद में गुफाओं में मिले भित्ती चित्र इसकी गवाही देते हैं। नर्मदा के निचले हिस्से में कुछ अलग परिस्थितियाँ सामने आती हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के इतिहास पूर्व शाखा के श्री एसबी ओटा द्वारा मध्यप्रदेश के धार जिले में नर्मदा नदी के दाहिने तट पर स्थित खापरखेड़ा में किए गए उत्खनन में ताम्रयुग से आरम्भिक ऐतिहासिक काल बरास्ता लौहयुग सतत प्रवाहमान सांस्कृतिक धारा के प्रमाण मिले हैं। यह उत्खनन सरदार सरोवर बाँध की डूब में आ रहे स्थानों की पुरासम्पदा को खोजबीन के लिए किया गया था। यहाँ पाया गया ताम्रयुगीन मिट्टी शिल्प उद्योग ठीक वैसा ही है जैसा कि पहले पश्चिम निमाड़ के पीपरी एवं उटावड में उत्खनन के दौरान पाया गया था। यहाँ की विशेषता है बड़े आकार के पात्र एवं शिल्प। यहाँ लौहयुग के अवशेष भी मिले हैं जो कि मध्य नर्मदा घाटी में अन्यत्र प्राप्त नहीं हुए थे। यहाँ मिले मिट्टी शिल्प के अवशेषों में काफी परिष्कार भी नजर आता है।

लौह युग के तुरंत बाद खापरखेड़ा नर्मदा किनारे की महत्त्वपूर्ण बसाहट बन गई थी। इस उत्खनन में यहाँ की बसाहट में इस्तेमाल की गई काली मिट्टी की बिना पकी एवं पकाई गई, दोनों प्रकार की ईंटें और इस काल के टदृर एवं लीपे हुए मकानों के अवशेष मिले हैं। इस बसाहट ने मकानों के नियोजन से आभास मिलता है कि यहाँ सार्वजनिक एवं निजी दोनों प्रकार के भवन विद्यमान थे। इससे यह भी स्पष्ट होता है आरम्भिक ऐतिहासिक काल के दौरान यहाँ एक मजबूत केंदीय प्रशासनिक व्यवस्था मौजूद थी। इस स्थान पर अन्य कई विशिष्ट शिल्पों व शिल्पकारों जैसे मिट्टी शिल्प, सुनार, तांबा व लुहारों के प्रमाण भी मिलते है। इसके अलावा यहाँ मनके (मोती) बनाने, हड्डी के उत्पाद बनाने एवं सीपियों से चूड़ी बनाने के प्रमाण भी मिले हैं। इससे यह आभास भी होता है कि आरम्भिक ऐतिहासिक काल ने खापरखेड़ा की बसाहट मूलतः एक ‘व्यापार केंद्र’ जैसी थी जहाँ विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन होता था और उन्हें अन्य स्थानों पर बिक्री के लिए भेजा जाता था। इस अनुमान को यहाँ बड़ी संख्या में प्राप्त सिक्के, मोहरें और मुहरबंदी (लाख) की प्राप्ति हकीकत में बदलते प्रतीत होते हैं। यहाँ प्राप्त लकड़ी की अनूठी मुहर ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की प्रतीत होती है, जिसे अब तक प्राप्त लकड़ी की सर्वाधिक प्राचीन मुहर भी कहा जा सकता है। इसके अलावा यहाँ बडी संख्या में आरम्भिक ऐतिहासिक काल के तांबे, लोहा एवं सीसा की वस्तुएं, मिट्टी की बनी मनुष्यों एव जानवरों दोनों की आकृतियां, बहुमूल्य एवं साधारण पत्थरों के मोती, विभिन्न प्रकार के मिट्टी के सामान, हड्डी एवं सीपियों से बनी वस्तुएं पुरातत्वीय महत्त्व की प्रारंभिक ऐतिहासिक काल की वस्तुएं मिली हैं। इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण खोज यहाँ दो ऐसे उदाहरणों का मिलना है जिसमें किसी व्यक्ति को दोबारा दफनाया गया है। यानि एक बार किसी शव को दफनाने के बाद जब उसका विघटन हो जाता है तब हड्डियां निकालकर पुनः दफनाने की प्रथा इस काल में मौजूद थी।

अपनी बात को और विस्तारित करते हुए श्री ओटा ने पुरातत्व के 1991 के अंक में लिखा था, मध्य प्रदेश के धार जिले में नर्मदा के दाहिने तट पर स्थित खापरखेड़ा गांव विशाल सरदार सरोवर बाँध के जलाशय की डूब में आने वाला है। यह आश्चर्य का विषय है कि इस गांव की सीमा में आने वाली विशाल पुरातन बसाहट अभी तक पुरातत्वविदों की निगाह से दूर हैं। यह पुरातन बसाहट जिसे गाँव वाले वनिटखेड़ा पुकारते हैं नर्मदा के दाहिने तट पर वर्तमान गाँव खापरखेड़ा से 600 मीटर की दूरी पर स्थित है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाम प्राचीन मिट्टी के टीले से लिया गया है। वैसे खापरखेड़ा का शाब्दिक अर्थ होता है खापर यानि टूटा मटका अर्थात टूटे मटकों का गाँव। इस टीले के उत्तरी एवं पश्चिम की ओर से एक छोटी धारा बहती है जो कि कमोबेश इस टीले को छूती हुई अंततः नर्मदा में मिल जाती है। इस बसाहट का कुल क्षेत्रफल करीब 45,000 वर्गमीटर (300 मीटर,150 मीटर) है। यहाँ पर स्थित सांस्कृतिक सम्पदा करीब 9 मीटर नीचे नर्मदा के कछार में दबी है। इससे किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं हुई है सिवाय कुछ क्षरण के और इसकी सतह पर हो रही खेती के। नदी के किनारे पर चट्टानें होने की वजह से यहाँ पर क्षरण नहीं हुआ है। शायद इसी कारण मानव यहाँ आकर बसा होगा।

श्री ओटा को यहाँ उत्खनन से मिट्टी के अनेक प्रकार व रगों के बर्तनों, जिन पर पालिश भी की हुई थी, पायदार चक्की, मिट्टी के त्वचा रगड़ने वाले औजार एवं कान के जड़ाऊ जेवर, मूसली, अत्यन्त छोटे पत्थर आदि मिले थे। इस स्थान पर मिली कला सामग्री इसके ताम्रकालीन युग की ताकीद करती हैं। साथ ही इस बसाहट की प्रारंभिक ऐतिहासिक काल तक निरंतरता बने रहने की भी पुष्टि करती है। यहाँ तक कि पकी हुई ईंटे भी मिली हैं। यहाँ से 300 मीटर पश्चिम की दूरी पर एक मंदिर के अवशेष मौजूद हैं। इसके अलावा यहाँ पर ठोस पीली कछारी मिट्टी भी है जिसमें कि बहुमूल्य पत्थरों के बहुत छोटे-छोटे आकार की वस्तुएं भी मिल सकती हैं। अंत में वे सुझाव देते हैं कि इस स्थान में निहित सम्भावनाओं के चलते यह आवश्यक है कि मालवा क्षेत्र की इस ताम्रयुगीन एवं आरम्भिक ऐतिहासिक काल के सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करने हेतु इस स्थल का डूब में आने से पहले तत्काल उत्खनन किया जाए।

सरदार सरोवर परियोजना डूब क्षेत्र में आ रहा नर्मदा घाटी का क्षेत्र नगरीय के साथ ही साथ वन आधारित या आरण्यक सभ्यता का भी गवाह रहा है। यह दुखद है कि अभी तक यानि 122 मीटर तक की ऊँचाई तक आई डूब में आदिवासियों को अधिक खामियाजा उठाना पड़ा है। लेकिन बाध के 17 मीटर ऊंचे दरवाजे यदि लग जाते हैं तो डूब की विकरालता मध्यप्रदेश के निमाड़ और महाराष्ट्र के पठार में भी साफ दिखाई देने लगेगी। गौरतलब है आज बाँध 122 मीटर की ऊँचाई पर पहुँच चुका है ओर कई ऐसे लोगों खासकर आदिवासियों का पुनर्वास अभी भी बाकी है जिनका घर व खेत 80 मीटर से भी कम पर डूब चुके हैं।

नर्मदा नदीजब मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले की अलिराजपुर तहसील (अब पृथक जिला) का जलसिंधी पहले गाँव के रूप में डूब में आने वाला था तो इस क्षेत्र के प्रधान बाबा महरिया ने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को सारे क्षेत्र की ओर से एक पत्र लिखा था। वैसे वे लिखना नहीं जानते लेकिन उन्होंने अपनी बात कही और नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकताओं ने इसे लिपिबद्ध कर भेजा था। यह महज एकमात्र नहीं बल्कि एक ऐसा दस्तावेज है जिसके माध्यम से हम आदिवासी संस्कृति को इतनी अच्छी तरह से समझ सकते हैं, जितना हमें हजारों पृष्ठों की किताबें या आदिवासी संस्कृति पर व्याख्यान देने वाले दर्जनों दार्शनिक भी नहीं समझा सकते। अपने पत्र में वे लिखते हैं, ‘सरकारी और तमाम शहरी लोग यह मानते हैं कि हम जंगल ने रहने वाले गरीब-गुरबा, पिछड़े और बंदरों की तरह बसर करने वाले लोग हैं। आप लोगा हमें समझाते रहते हैं कि तुम लेग गुजरात को मैदानी जमीन पर जाओ-वहाँ तुम्हारा भला हो जाएगा, तुम्हारा विकास हो जाएगा। पर हम आठ साल से लड़ रहे हैं। कई बार जेल जा चुके है-अंजनवाड़ा गाँव में पुलिस ने पिछले साल गोलीबारी भी कर दी थी, हमारे घर-बार तोड़ दिए थे। लेकिन हम लोग मर जाएंगे पर हटेंगे नहीं, का नारा लगाते हुए आज भी उसी जगह पर बैठे हुए हैं। क्यों?’ इस क्यों का जवाब शायद उनके पत्र श्री निम्न पंक्तियों में मिलें।

आप सोचते हैं हम गरीब हैं। हम गरीब नहीं हैं। मिल-जुलकर अपने खेतों को बाँधकर हम यहाँ बसे हैं। हम किसान हैं। हमारे यहाँ अच्छी फसलें पकती हैं। धरती माता पर हल चलाकर हम फसल पकाते हैं। बरसात में मेघ पानी देते हैं। उससे हम कमाई करके जीते हैं। कन्हर (जुआर या ज्वार) माता पकती है। हमारी कुछ ज़मीन पट्टे की भी है और बाकी नेवाड़ (विवादित जंगल जमीन) हैं। इन जमीनों में हम बाजरा, जुआर, मक्का, भादी, भट्टी, सौवी, कूद्री, चना, मोठ, उड़द, तुअर, तिल, मूंगफली आदि पकाते हैं। हमारे यहाँ तरह-तरह की फसलें हैं। इन्हें हम बदल-बदलकर खाते हैं। इससे हमारा भोजन स्वादिष्ट भी लगता है और इसके दूसरे फायदे भी हैं। बरसात आते-आते हमारा अन्न खत्म हो जाता है। खाने की बहुत कठिनाई होती है। तब भादी-भट्टी सरीखी फसल हम दो महीने में ही पका लेते हैं, इससे हमें खाने को मिल जाता है। बाकी फसलें तीन-चार महीनों में पकें तो भी हमारी गुजर हो जाती है। गुजरात में क्या पकता है? गेहूँ और दादरा जुआर (जाड़े की ज्वार), तुअर और थोड़ा बहुत कपास। ये फसलें खाने की कम बेचने की ज्यादा होती हैं। हम तो खाने के लिए ही उगाते हैं। यदि उससे अधिक मिल जाता है तो ही कपड़े-लत्ते खरीदने के लिए बेचते हैं। बाजार मे कीमतें कम हो या ज्यादा, हमें तो खाने को मिल ही जाता हैं।

शायद इससे हमें हमारे क्यों का जवाब मिल गया होगा। लेकिन बात यहीं आकर ठहर जाती है। बाँध निर्माण करने वालों ने न तो पुरातत्वीय संस्कृति को सहेजने का प्रयास किया और न ही वर्तमान सजीव संस्कृति को। जमीन के डूब में आने की वजह से बाबा महरिया ने पहाड़ों के ऊपरी हिस्सा को अपना घर बना लिया लेकिन पुरातत्वीय संरकृति को तो ऐसी सुविधा नहीं है वह स्वयं को बचा सके। ऐसे में इसके सहेजने के लिए किए गए प्रयत्नों की वास्तविकता पर ध्यान देना अतिआवश्यक है। पुरातत्वीय संस्कृति को सहेजने में बरती जा रही गम्भीरता पर्यावरण उपसमूह की 29 नवम्बर 2010 की बैठक के मिनिट्स से साफ सामने आती है।

29 नवम्बर 2010 की बैठक


भारत सरकार भारत में, जिसमें नर्मदा घाटी भी शामिल है, में पाई गई पुरातत्वीय सांस्कृतिक विरासत के महत्व को मान्यता देती है और इसने इन्हें नष्ट होने एवं दुरुपयोग से बचाने एवं इनके रखरखाव हेतु कानूनों की एक शृंखला लागू की है। कहा जाता रहा है कि डूब क्षेत्र पुरातत्वीय अवशेषों के लिहाज से अत्यन्त समृद्ध है लेकिन इसका अध्ययन किया जाना अभी भी बाकी है। यह दावा किया जा रहा है कि इस बात का खतरा बना हुआ है कि समृद्ध ऐतिहासिक विरासतें नष्ट हो जाएंगी और बाँध की ऊँचाई थोड़ी सी भी बढ़ाने से इस बात का खतरा है कि भारत पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट में सूचीबद्ध स्थान भी डूब जाएंगे।

संसार छोटा हो रहा है, धरती संकुचित, इसमें मनुष्यों के रहने की जगह भी बहुत कम हो रही है। यह एक समयहीन समय है जिसमें समय के व्यतीत होने की चेतना समय में वास करने और जीने की चेतना पर भारी पड़ती है। ऐसे में हम देव और दानवों के लिए समय कहाँ से लाएं? हम देवलोक के लिए समय, धरती, प्रकृति और जीवन की कथा खो चुके हैं। अब सब जगह, सब समय सारी प्रकृति में हम ही हम हैं। हमारा इतना विस्तार और हमारी इतनी विराट सत्ता पहले कभी नहीं थी।

इसके पश्चात स्मारकों-पुरातत्व महत्व के स्थानों के प्रकार वर्णित हैं। वहीं इसके नीचे लिखा है, सरदार सरोवर परियोजना के डूब क्षेत्र में कोई भी केंद्र राज्य द्वारा संरक्षित स्मारक नहीं आ रहा है। लेकिन यह स्वीकार किया गया है कि मध्य नर्मदा घाटी में फाजिल हड्डियां और चतुर्थयुगीन मानव की आदिपाषाण युग की संस्कृतियों को शैल विज्ञान के नजरिए से देखना होगा और यह दक्षिण एशिया में संभवतः एकमात्र स्थान है जहाँ मनुष्य के फाजिल्स वाले प्रमाण मिले हैं। अतः यह कहा जा रहा है कि नर्मदा घाटी दक्षिण एशिया में मनुष्य के विकास को समझने और दक्षिण एशिया की संस्कृति को समझने का अनूठा अवसर प्रदान करती है। अतः यह महसूस किया जा रहा है कि डूब के पहले आदि पाषाण युग के अवशेषों का उत्खनन हो जाना चाहिए। इसी प्रकार क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत की समृद्धता भी विस्तृत नृतत्व शास्त्रीय अध्ययन की मांग करती है।

इसके साथ ही कुछ अन्य तथ्यों पर भी गौर करना आवश्यक है। मध्य प्रदेश की पुरातत्वीय सामग्री के बारे में इसी रिपोर्ट ने कहा गया है मध्यप्रदेश पुरातत्व विभाग ने सरदार सरोवर परियोजना से प्रभावित 120 गाँवों के पुरातत्वीय महत्व के स्थलों की विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर ली है। 73 गाँवों का दूसरा अध्ययन जुलाई 1994 में हो चुका है। प्रत्येक अध्ययन में छायाचित्रों के अलावा इनके वर्तमान उपयोग और स्थलों के ऐतिहासिक महत्व का विस्तार से अध्ययन किया गया है। इसके बाद एक चार स्तरीय कार्य योजना बनाई गई थी।

इस रिपोर्ट के इस अंश से कुछ इस तरह समझना चाहिए-
मध्यप्रदेश शासन ने वर्ष 1993 में एक कार्ययोजना बनाई। इस योजना की वर्ष 1997 में समीक्षा की गई और वर्ष 2003 में पुनःसमीक्षा की गई। इसके बाद वर्ष 2007 में इसकी और आगे की समीक्षा की गई। वर्ष 2007 की नवीनतम योजना के अनुसार 29 स्मारकों को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं 15 स्मारकों को महत्त्वपूर्ण की श्रेणी में रखा गया है, जिससे की इन्हें प्राथमिकता के आधार पर कहीं और पुर्नस्थापित किया जा सके। इस योजना में बताया गया कि वर्ष 2003 की योजना में सूचीबद्ध 12 अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्मारकों को कहीं और पुर्नस्थापित करने की अभी भी आवश्यकता है और इसकी अनुमानित लागत 13 करोड़ रु. आएगी। इसके अलावा इसमें 40.82 करोड़ रु. की लागत से अन्य 34 स्मारकों की पुर्वस्थापना को भी शामिल किया गया है। इसको सिलसिलेवार ढंग से 5 वर्षों या 2007-08 से 2011 से 2012 के मध्य 80.60 करोड़ रु. की लागत से पुर्नस्थापित किया जाना है। वैसे मध्यप्रदेश ने पर्यावरण उप दल (ईएसजी) की 45वीं बैठक में सूचित किया कि सभी आवश्यक पुर्वस्थापना कार्य पूरे कर लिए गए हैं। वहीं पर्यावरण उपदल की 46वीं बैठक के दौरान यह बताया गया कि नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के निर्णय के अनुसार केवल एक संग्रहालय स्थापित किया जाना है, जो कि अब पूर्ण हो चुका है।

रिपोर्ट के अनुसार तीनों राज्यों की सरकारों ने डूब क्षेत्र में आने वाले सभी धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों का पूरा सर्वेक्षण कर लिया है लेकिन कार्य को लेकर इसी रिपोर्ट में नत्थी एक तालिका से स्पष्ट होता है कि ज्यादातर कार्य अभी अपूर्ण हैं। लेकिन इसी के साथ संग्रहालयों को लेकर इस रिपोर्ट में उल्लेख है कि इंदौर के लालबाग में नर्मदा पार्क और संग्रहालय के प्रस्ताव के अलावा बड़वानी और कसरावद में भी संग्रहालय प्रस्तावित हैं। बड़वानी में संग्रहालय का काम प्रारंभ ही नहीं हुआ है, वहीं कसरावद का संग्रहालय नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण द्वारा पूर्ण कर मध्यप्रदेश के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग को सौंप दिया गया है। इसमें मूर्ति एवं मॉडल प्रदर्शित कर दिए गए हैं और विकास एवं सौंदर्यीकरण का कार्य जारी है। भोपाल के संग्रहालय में नर्मदावाटिका कक्ष तैयार है और उसका उद्घाटन कर दिया गया है। वहीं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के 18.01.2008 के पत्र में इस निर्णय के बारे में बताया गया है कि बाकी के तीन संग्रहालय स्थापित नहीं किए गए हैं।

इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इंदौर के लालबाग में नर्मदा पार्क एवं संग्रहालय के लिए आरक्षित भूमि मध्य प्रदेश हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम को हस्तांतरित कर दी गई है और बाकी भूमि को मप्र.पर्यटन विकास निगम को हस्तांतरित करने की प्रक्रिया चल रही है। हस्तशिल्प निगम ने तो वहाँ शहरी हाट का निर्माण भी कर दिया है। इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि तकरीबन दो लाख वर्षों तक कायम रही जीवन की निरंतरता के पुरातत्वीय प्रमाणों को सहेजने को लेकर किसी प्रकार की व्यग्रता दिखाई नहीं पड़ रही है। इस तरह की पूरी निर्माण प्रक्रिया में अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक विरासत प्रबंधन के सिद्धांतों के प्रति पूर्ण अवहेलना दर्शाई गई है। यह सबकुछ तब हो रहा है जबकि नागरिकों व विशेषज्ञों के वर्ग लगातार इसे सहेजे जाने की गुहार लगा रहे हैं। नर्मदा नदी पर बन रहे बाँधों को लेकर एसबी ओटा ने यह भी लिखा है कि हमारी सांस्कृतिक विरासत के बेदर्दी से विनाश के पीछे मुख्य कारण यह है कि हमारे यहाँ विकसित देशों जैसे यथोचित कानून नहीं है। इसका लाभ उठाकर अनेक गतिविधियां संचालित होती हैं और पूरा दृष्यबंध (Land Scape) ही बदल जाता है या डूब में आ जाता है। हमारे पूरे दृष्यबंघ को बदलने में सबसे बड़ी भूमिका बड़े बाँधों की है। ऐसी किसी भी गतिविधि को सुस्थिर नहीं कहा जा सकता। पिछले तकरीबन 40 वर्षों से अधिकांश महत्त्वपूर्ण नदियों (नहरों) पर सिंचाई एवं जलविद्युत परियोजनाएं प्रारम्भ हो गईं और इन्होंने या तो मानवीय मूल्यों की अवहेलना की या उसे ध्वस्त कर दिया। तकरीबन सभी मानवीय संस्कृतियां नदी-घाटियों के साथ ही साथ विकसित, बसीं और पलायन करती रहीं हैं। अतएव यह अनिवार्य है बाँध सम्बन्धित गतिविधियों की वजह से डूब में आने से पहले उस क्षेत्र की पुरासम्पदा को मानव के अतीत को समझने के हिसाब से देख लिया जाए। दुर्भाग्यवश दक्षिण एशिया खासकर भारत में कभी भी ऐसा नहीं हुआ जो कि अपनी विविधता भरी संस्कृति के लिए जाना जाता है। पुरातत्वीय एवं सांस्कृतिक विध्वंस की वर्तमान स्थिति खतरनाक है। (एसबी ओटा का शोधपत्र पुरातत्वीय विरासत बनाम बाँध : भारतीय परिस्थितियाँ) गौरतलब है लापरवाही और अनदेखी की शिकायत कोई एक पुराविद नहीं कर रहा है बल्कि इसे लेकर सभी में मतैक्य भी हैं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की इतिहासपूर्व शाखा एवं डेक्कन महाविद्यालय की शीला मिश्रा द्वारा किए गए संयुक्त उत्खनन में पुरापाषाण युग (1,00,000 से 10000 वर्ष ईसापूर्व) में शुतुरमुर्ग के अंडे से मोती निर्माण करने वाले स्थान का अस्तित्व प्रकाश में आया। शुतुरमुर्ग के अंडे के छिलके से मोती बनाने की विभिन्न प्रक्रियाओं के अलावा यहाँ मोतियों में छेद करने वाले मूल्यवान पत्थर एवं Carnelian के छेद करने वाले औजार (ड्रील), छोटे पत्थरों की वस्तुएं एवं अंगीठीदान भी मिले हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत में पुरापाषाण युग के सांस्कृतिक पक्ष के प्रमाण खोजे गए हैं। नर्मदा नदी के किनारे स्थित यह स्थान सरदार सरोवर बाँध की डूब से खतरे में है।

Vahsan यानी जिन प्रमाणों के आधार पर हम अपनी स्मृति को लाखों-लाख वर्ष पीछे तक ले जा सकते हैं उन्हें चंद भौतिक सुखों के लिए नष्ट कर देना क्या उचित है? हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि सभी मानव संस्कृतियाँ सिंधु घाटी सभ्यता, मेसोपोटेमिया जैसी नदी घाटियों के समानांतर ही विकसित, बसी और पलायन करती रही हैं। नर्मदा घाटी भी इसी तरह की सभ्यताओं का घर रही है।

यह सब जानते-बूझते हुए भी हमारे नीति निर्माताओं को यह नहीं सूझा कि इसे सहेजें। दुख तो तब होता है जब हम सोचते हैं कि हमारे राष्ट्र के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु संस्कृति व इतिहास को लेकर अत्यन्त सजग रहे हैं और भारत एक खोज जैसी असाधारण पुस्तक के लेखक भी थे। लेकिन क्या वे भी विकास और संस्कृति को एक दूसरे का प्रतिद्वंदी मान बैठे थे? क्योंकि इस सांस्कृतिक विनाश की शुरुआत पहले बाँध से ही प्रारम्भ हो गई थी। इसमें हिमाचल प्रदेश व पंजाब में भाखड़ानंगल, उड़ीसा में महानदी पर हीराकुंड, पश्चिम बंगाल में दामोदर घाटी परियोजना, कर्नाटक में कृष्णा नदी घाटी परियोजना आदि शामिल हैं। यह ऐसे कुछ उदाहरण हैं जहाँ प्रभावित इलाकों का कोई पुरातत्वीय सर्वेक्षण ही नहीं हुआ। इस प्रक्रिया में अनगिनत पुरातत्वीय स्थल डूब गए। अब नर्मदा घाटी ने सर्वाधिक बाँध बनाए जा रहे हैं और यहाँ हजारों पुरातत्वीय स्थल संकट में हैं। इसके बावजूद प्रभावित क्षेत्रों की न तो गहन जाँच-परख की गई है और न ही इनको बचाने के समुचित प्रयत्न किये गये हैं।

नर्मदा नदीदुख की बात यह है कि आज पूरी दुनिया खासकर विकासशील देश इस समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। इसकी वजह शायद यह भी है कि वर्तमान में मनुष्य का हस्तक्षेप इतना ज्यादा और आक्रामक होता जा रहा है कि सांस्कृतिक विरासतें अनाप-शनाप रफ्तार से नष्ट हो रही हैं। सयुक्त राष्ट्रसंघ ने अपने मानवाधिकार सम्बन्धी घोषणापत्र के अनुच्छेद 27 में कहा है ‘हमें अपने अतीत, वर्तमान एवं भविष्य से तारतम्य बैठाने की क्षमता बनाए रखने हेतु सांस्कृतिक विरासत की विविधता बचाने की आवश्यकता है। इसी के साथ इनकी आवश्यकता ज्ञान के माध्यम विकसित करने हेतु भी है, जो कि किसी अन्य तरीके से तैयार नहीं हो सकते। विश्व बैंक जो कि दुनियाभर में विकास कार्यों के लिए धन उपलब्ध करवाता है, ने 1999 में अपने द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं की सांस्कृतिक विरासत हेतु एक विमर्श का आयोजन किया था। इसका विषय था ‘संस्कृति एवं सुस्थिर विकास : आधार एव कार्ययोजना’। जिसे अब संस्कृति एवं सुस्थिर विकास कार्यवाही का ढांचा नाम से जाना जाता है। इसमें बैंक के पूर्ववर्ती कार्यों की समीक्षा होनी थी। गौरतलब है सरदार सरोवर परियोजना भी सर्वप्रथम विश्वबैंक द्वारा वित्तपोषित थी। इस अध्ययन में विश्वबैंक ने स्वीकार किया है कि बैंक ने यह हमेशा सुनिश्चित नहीं किया है कि जिन परियोजनाओं को उसने ऋण प्रदान किया है उन्होंने सांस्कृतिक सम्पदा को नुकसान नहीं पहुँचाया है। इस अध्ययन के विस्तार में जाने से बैंक की ऐसी अनेक स्वीकारोक्तियां सामने आती हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि उसने सांस्कृतिक विरासतों को बचाए रखने के प्रति अधिक रुचि नहीं दिखाई है। साथ ही जहां थोड़ी बहुत चिंता दिखती है उसकी वजह उस स्थान-वस्तु की पर्यटन की दृष्टि से विपणन तक केंद्रित रही है। वहीं यदि नर्मदा घाटी परियोजना के दृष्टिकोण के इस अध्ययन को देखें तो हम पाते हैं कि इन्हें लेकर लगातार लापरवाही बरती गई है।

भारत में सांस्कृतिक विरासतों के प्रति लापरवाही बरते जाने की एक वजह यह भी है कि इस मामले ने आम व्यक्ति या उस क्षेत्र के निवासियों की निर्णायक भूमिका नहीं है। पुरातत्वीय विरासत के निर्धारण का समूचा उत्तरदायित्व एवं अधिकार केंद्र व राज्य के पुरातत्व विभागों के ही पास है।

भारत में पुरातत्वीय स्मारकों एवं स्थानों के संरक्षण सम्बन्धी कानून


भारत में पुरातत्वीय सम्पदाओं एवं अवशेषों के संरक्षण को लेकर केवल एक कानून अस्तित्व में है। बाकी के दो कानून महत्त्वपूर्ण स्मारकों दो दुरुपयोग (भारतीय बहुमूल्य निधि) क्षतिपूर्ति अधिनियम 1978 एवं भारत से पुरासंपत्तियों वस्तुओ के निर्यात के नियमन हेतु पुरासंपत्ति एवं कला निधि अधिनियम 1972 है।

1958 में लागू पुरातन स्मारक एवं पुरातत्वीय स्थल एवं अवशेष अधिनियम एवं इसके 1959 में तैयार नियम ही एकमात्र कानून है जो कि पुरातत्वीय स्थलों, स्मारकों, मूर्तियों एवं नक्काशी या उत्कीर्णन के संरक्षण के लिए प्रयोग में आता है। इस कानून की सीमा है जिससे सांस्कृतिक विरासत की व्यापक परिभाषा इसके अंतर्गत नहीं आती और केवल वो ही स्मारक इसके अंतर्गत आते है जो कि इस अधिनियम के अंतर्गत सूचीबद्ध हो सकते हैं। गौरतलब है कि जो स्मारक इसके अंतर्गत सूचीबद्ध नहीं हैं तो क्या वे संरक्षण किए जाने योग्य भी नहीं हैं। इस परिस्थिति में सोचना होगा कि सूचीबद्ध किए जाने की प्रक्रिया क्या है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि नर्मदा घाटी को देखें तो हमारे सामने यह तथ्य आता है कि राज्य के पुरातत्व विभाग की रिपोर्टें इस तर्क को आधार बनाकर लगातार कहती रही हैं कि घाटी में संरक्षण के लायक कोई स्थान ही नहीं है क्योंकि वे सूचीबद्ध ही नहीं हैं। इसके बाद यूं तो कहने को कुछ नहीं रह जाता लेकिन सब कुछ करने का रास्ता खुल जाता है कि इन स्मारकों, अवशेषों के संरक्षण के लिए नए सिरे से प्रयास किए जाएं।

हमें एक बार पुनः सोचना होगा कि इस 1310 किलोमीटर बहने वाली नर्मदा नदी जी कि पूर्व में अमरकंटक से निकलती है और पश्चिम में भडूच के पास अरब सागर में मिलती है और दुनिया की एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है, की सांस्कृतिक विरासत को कैसे बचाया जाए? अपने मनोहारी दृष्यबंधों के लिए विख्यात, अमरकंटक में जन्म की वजह से अमार्जा, मैकलपर्वत की पुत्री माने जाने की वजह से मैकाल कन्या, रुद्र की पुत्री होने की वजह से रुद्रकन्या और बिना रुके अबाध विचरण के कारण रेवा, शिव के त्रिशूल से गिरे सत्रह बिंदुओं से उत्पन्न होने के कारण शोण, महादेव की आज्ञा से तीव्र गति से प्रवाहमय होने की वजह से महानद, पापों को नष्ट करने वाली महती, सुंदर, स्वच्छ, स्वादिष्ट व स्वास्थ्यप्रद जल को वजह से सरसा, सतयुग के समय दिव्य मंदार पुष्पों से अलंकृत होने के कारण मंदाकिनी, दशधारा एवं अनेक कुंण्डों के साथ प्रत्यक्ष बहने की वजह से दर्शाणां, मयूर कल्प में महादेव द्वारा मयूर पंख हिलाने से बने त्रिकूट की वजह से चित्रकूटा या त्रिकूटा, अपनी नीली जलराशि एवं निबिड़ निशा में अवस्थित रहने से तमसा, विशिष्ट दिशा के कारण विदिशा, शिव की सोमकला (चन्द्रकला) से बिंदू रूप में उत्पन्न होने के कारण सोमोद् भवा, दुख में बंधे व्यक्तियों को बंधन मुक्त करने पर विपाशा, संपूर्ण लोक को प्रसन्न करने के कारण रंजना, तट पर बालू के टीलों के कारण बालु-वाहिनी, क्षेत्र में स्वास्थ्यकर वायु बहने का वजह से वायुवाहिनी, किसी समय हथियों (विन्ध्य) का क्षेत्र होने से करभा (करभ यानी हाथी की सूंड), कभी सुंदर कमल पूलों से ढंकी होने से चित्रोत्पला, मुरला नामक जनजाति के निवास स्थल होने से मुरला तथा स्वच्छ जल होने एवं प्रलय के महाघोर अंधकार में भी देदीप्यमान होने की वजह से बिमला कहलाने वाली इस नदी संस्कृति को बाँधों से रोके जाने के क्या सांस्कृतिक परिणाम सामने आ सकते हैं। यह समझना आवश्यक है। इतने पर्यायवाची अर्थ वाली नर्मदा का प्रत्येक नामकरण अपने आप में इसकी महिमा का गान करता नजर आता है। साथ ही यह अकेली ऐसी ही नहीं है जिसका अपना नर्मदापुराण है।

लाखों वर्षों के मौसम, भौगोलिक, पर्यावरणीय व सांस्कृतिक परिवर्तन का साक्षी रही यह घाटी जिसके बारे में मत्स्य पुराण में कहा गया है कि सरस्वती नदी में 3 बार, यमुना में 7 बार एवं गंगा में एक बार नहाने से पापों का नाश होता है मगर, नर्मदा के दर्शन मात्र से पाप मिट जाते हैं। यह भी माना जाता है कि इसी के तट पर अश्विनी कुमारों ने मनुष्यों को निरोग करने का ज्ञान प्राप्त किया था। यहीं पर शंकराचार्य से लेकर कबीर और सिंगाजी तक संतों ने तप किया है। यही नावड़ा टोली के किनारे बौध उपासना गृह मिले हैं। ऐसे तट जिनके किनारे शैव व वैष्णव दोनों संप्रदायों के धार्मिक स्थल विद्यमान हैं। ऐसी नदीघाटी सभ्यता जिसकी अद्वितीय परिस्थितियाँ और बसाहट की निरंतरता से हम नर्मदा मानव की ही उत्पत्ती नहीं बल्कि इसके अफ्रीका एवं पश्चिम के होमीनाइड और भारतीय उपमहाद्वीप एवं पूर्वी एशिया से भी पुरातन सम्बन्ध जोड़ सकते हैं, क्या उसे यों ही नष्ट हो जाने दें?

हमें विचारना होगा कि यह अतीत हम और आप जो वर्तमान में रह रहे हैं सिर्फ उनका है या हमारी आने वाली पीढियों के लिए भी है। वर्तमान तो अतीत और भविष्य का महज जुड़ाव ही है। इसलिए नर्मदा घाटी के उत्खनन में मिले मनके या मोती सिर्फ उस काल की अनुपम कारीगरी से हमें रूबरू नहीं कराते बल्कि वर्तमान में इस इलाके के भील, भिलाला आदिवासी महिलाओं के गले में हजारों मनकों से सजी मालाएं तो हमें ताम्रयुगीन संस्कृति की निरन्तरता से भी रूबरू कराती हैं। एक अर्थ में समय ठहरा हुआ भी है और दूसरे अर्थों में प्रवाहमय भी है, ठीक नर्मदा की प्रत्येक लहर की तरह।

पहले किसान ने या कहें कि मध्यभारत के ताम्रयुगीन लोगों ने ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व के आखिरी दौर में इस क्षेत्र को अपना निवास बनाया था। इसके बाद ये क्षेत्र कायथा, अहार एवं मालवा संस्कृति के लोगों की बसाहट रहा है। क्या इस सच्चाई से भी आंख मोड़ लें? 1952-53 में नावड़ा टोली एवं महेश्वर में उत्खनन के पश्चात एचडी संकलिया, बी सुब्बाराव एवं एसबी देव (डेक्कन कॉलेज, पूना) ने नर्मदा घाटी की पुरातत्वीय विरासत स्थलों की समृद्धता को उजागर किया था। डेक्कन कॉलेज, पुणे के एम धवलीकर के अनुसार ‘यह पुरातत्वीय दृष्टिकोण से भारतीय उपमहाद्वीप में मील का पत्थर है। नावड़ा टोली, मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा जितना ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर 1800 ईसा पूर्व में जीवन के प्रमाण मिले हैं और पत्थर के 2000 से अधिक औजार भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ पर लोग एक समृद्ध कृषि अर्थव्यवस्था के संवाहक थे और गेहूँ, बाजरा और तिल व हुल्गा जैसे मोटे अनाज की फसलें एवं बेर जैसे फल भी उपजा रहे थे। वहीं वीरराघन के अनुसार यहाँ अन्य व्यवसाय जैसे मछली मारना व पशुपालन भी विद्यमान थे। गौरतलब है कि इस इलाके में उत्खनन की शुरुआत 1935 में डे टेट्रा और पीटरसन ने की थी।

इस नदी घाटी सभ्यता की जद में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात तीनों ही आ रहे हैं। इस सभ्यता पर विचार करते हुए यह भी मनन करना होगा कि लाखों-लाख सालों की सभ्यता की निरंतरता को क्या बाँध जिनकी आयु 50-60 वर्ष या सैद्धांतिक तौर पर भी अधिकतम 100 वर्षों की होती है, पर न्यौछावर किया जा सकता है? नर्मदा घाटी की जीवंत निरंतरता को लेकर सिर्फ कोई रुमानी ख्याली पुलाव नहीं बनाए गए हैं। इस दिशा में नवीनतम अध्ययन अंजली परांजपे का है जिन्होंने अत्यन्त सिलसिलेवार ढंग से इस नदी घाटी सभ्यता को समझा और समझाया है। पत्थर के औजारों से शुरु हुआ यहाँ का यह विकास चरणबद्ध रूप में हमारे सामने आता है। स्मारकों, धार्मिक स्थलों, पुरात्वीय महत्व के स्थलों का डूबना या डुबाया जाना जिस मनोवृत्ति की ओर इशारा कर रहा है, वह हमारे विकास की वर्तमान धारा का अविभाज्य अंग ही है। पुरातत्वीय सांस्कृतिक ह्रास के बाद निमाड़ के इतिहास में मानव हस्तक्षेप को भी देखना आवश्यक है। इस क्षेत्र के ऐतिहासिक काल या लिपिबद्ध इतिहास पर एक नजर दौड़ाने के बाद हमें विस्थापन और संस्कृति की विलोम धाराएं शायद ज्यादा स्पष्टता से दिखाई दें।

निमाड़ का संक्षिप्त इतिहास


निमाड़ की उपजाऊ भूमि कृषि के विकास के अनुकूल होने के साथ ही साथ सांस्कृतिक और व्यापार प्रणालियों की उत्कृष्टता का प्रतीक रही हैं। यहाँ पर प्राचीन व्यापार मार्ग पश्चिम में भडूच से दक्षिण (दक्खन) में पैठन तक का विद्यमान रहा है। यदि ऐतिहासिक काल (500 ईसा पूर्व के बाद का काल) से देखें तो निमाड़ राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। हरिवंश में राजा महिष्मन द्वारा स्थापित महिष्मति (महेश्वर) का उल्लेख किया है। मत्स्य एवं पद्म पुराण में उल्लेख आता है कि महेश्वर अनूप राज्य के शासक राजा सहस्त्रबाहु की राजधानी थी। महाभारत एवं रामायण में भी इस शहर का जिक्र आता है। वाल्मीकि रामायण में रावण का सहस्त्रबाहु की राजधानी में आने का वृतांत आता है। अपने घमंड में उसने नर्मदा के पानी को अपने हाथ से रोकने की कोशिश की। लेकिन नदी फूट पड़ी और उसकी हजार धाराएं एक साथ बह निकलीं जिससे कि एक जलप्रपात बन गया जो कि आज सहस्त्रघारा कहलाता है। सांची के महान स्तूप के पत्थरों पर महिष्मति के उन समृद्ध व्यापारियों के नाम उकेरे गए हैं जिन्होंने इनके निर्माण में बड़ी मात्रा में धन दिया था। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व निमाड़ मगध साम्राज्य का हिस्सा बन गया। इतना ही नहीं तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के महिष्मति गुदे सिक्के एक सशक्त राज्य के अस्तित्व को भी पुष्ट करते हैं।

पहली शताब्दी ईस्वी के बाद यहाँ अनेक विदेशी आक्रमण हुए। उस दौरान यह क्षेत्र मालवा कहलाता था और यह शक, सतवाहनों, क्षत्रपों एवं अभिरसों के आपसी युद्धों का लगातार साक्षी बना रहा। पाँचवीं शताब्दी ईस्वी तक मालवा का विलय चन्द्रगुप्त द्वितीय के साम्राज्य में हो गया था। लेकिन शीघ्र ही हूण राजा तोरणमान ने इस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। थोड़े-थोड़े समय के लिए कलचुरी, वरुधान, चालुक्य एवं राष्ट्रकूट राजवंशों ने यहाँ शासन किया। वहीं 812 ईस्वी से 13वीं शताब्दी के मध्य तक मालवा परमार राजवंश के अंतर्गत रहा और इसे कमोवेश यहाँ का शांति व समृद्धिकाल कहा जा सकता है। मुस्लिमों के हस्तक्षेप से इस क्षेत्र की शांति भंग हुई। पठानों एवं गुजरात के सुल्तानों के शासन के संकटपूर्ण काल के बाद 1561 के पश्चात मुगलों के शासन के अंतर्गत इस क्षेत्र ने पुनः शांति और समृद्धि अर्जित की।

इस समृद्ध क्षेत्र में चौथ एवं सार्देशमुखी की वसूली हेतु 17वीं शताब्दी में मराठा गिरोहों के प्रवेश से इस इलाके का सामान्य जीवन एक बार पुनः बाधित हुआ। बाजीराव पेशवा द्वितीय द्वारा मालवा के लिए एक उप राज्यपाल की नियुक्ति करने से कुछ इलाकों से कर वसूली की अनुमति देने के बाद ही अंततः इस इलाके में शांति कायम हो पाई। सन् 1755 तक पूरा निमाड़ मराठाओं के आधीन आ गया था। इस क्षेत्र में मराठाओं के शासन का सबसे यशस्वी काल एक तो मल्हार राव होल्कर के अंतर्गत रहा और दूसरा सन 1767 से 1795 के मध्य अहिल्या बाई होल्कर के देदीप्यमान शासन के दौरान था। एक सक्षम प्रशासक, पराक्रमी सिपाही और पवित्र नर्मदा की आराधक अहिल्याबाई ने नदी के आसपास तट, धर्मशालाएं एव मंदिरों का निर्माण करवाया। किसी भी अन्य शासक के मुकाबले वे नदी के किनारे रहने वालों के मन में इस नदी के प्रति श्रद्धा को बेहतर ढंग से समझती थीं और उसका सम्मान भी करती थीं। उनके काल में महेश्वर संस्कृत के अध्ययन का केंद्र बन गया। अहिल्याबाई को उनकी न्यायप्रियता और सक्षम प्रशासन, शिल्पों को प्रश्रय, खासकर वस्त्र उद्योग को जो कि आज भी उनके वंशजों की वजह से फल-फूल रहा है, की वजह से याद किया जाता है। 1823 में निमाड़ अंग्रेजों के अधीन आ गया और आजादी के यह मध्यप्रदेश राज्य का हिस्सा बना।

निमाड़ के अतीत से लेकर वर्तमान तक की यह यात्रा एक और तो जीवन की निरंतरता का बोध कराती है, वहीं दूसरी ओर यह हमें यह भी समझा देती है कि जिस वैभव पर हम आज इतना गर्व कर रहे हैं, उसको यह क्षेत्र वर्षों पहले भोग चुका है। परिष्कार का चरम यह देख चुका है और हम आज उसे सहेजने तक में सक्षम नहीं हैं। क्या अपने अतीत से हमारा कभी पहले भी इतना अलगाव रहा हैं? शायद नहीं है तो फिर इस नई वास्तविकता को कैसे समझा जाए। डॉ. कपिल तिवारी कहते हैं कि भारतीय जीवन में पिछली दो सदियां समय की अपनी चेतना के अंतरण अर्थात पौराणिक से ऐतिहासिक समय बोध में स्थानान्तरित होने के लिए भी जानी जायेंगी। दो सदी पहले तक ऐसा नहीं था कि ऐतिहासिक समय मनुष्यों का है, इसमें देवों के लिए कोई जगह नहीं, दैत्यों के लिए भी नहीं। मनुष्यों ने उनसे कह दिया अब इन समय में हम ही देव और दानव भी होंगे, हमें तुम्हारी जरूरत नहीं।

पौराणिक समय नहीं होगा तो पुराण की कथा भी कैसे होगी? आज मनुष्यों ने सिर्फ अपने जीवन की कथा कहना शुरू कर दिया है। संसार छोटा हो रहा है, धरती संकुचित, इसमें मनुष्यों के रहने की जगह भी बहुत कम हो रही है। यह एक समयहीन समय है जिसमें समय के व्यतीत होने की चेतना समय में वास करने और जीने की चेतना पर भारी पड़ती है। ऐसे में हम देव और दानवों के लिए समय कहाँ से लाएं? हम देवलोक के लिए समय, धरती, प्रकृति और जीवन की कथा खो चुके हैं। अब सब जगह, सब समय सारी प्रकृति में हम ही हम हैं। हमारा इतना विस्तार और हमारी इतनी विराट सत्ता पहले कभी नहीं थी। इस सत्ता के भीतर मनुष्य अपनी जय-विजय का इतिहास लिखता है, समय आने पर उसे पढ़ लेता है और यदि, स्मृति खो जाए तो बहुत सा काम इतिहास से चलाना पड़ता है।

हम सब इसी अभिशप्त समय में विचरण कर रहे हैं और सिर्फ आने वाले कल को ही सब-कुछ मान रहे हैं। लेकिन हमें रुककर यह सोचना ही होगा कि अतीत किसका है। हमें विचारना होगा कि यह अतीत हम और आप जो वर्तमान में रह रहे हैं सिर्फ उनका है या हमारी आने वाली पीढियों के लिए भी है। वर्तमान तो अतीत और भविष्य का महज जुड़ाव ही है। इसलिए नर्मदा घाटी के उत्खनन में मिले मनके या मोती सिर्फ उस काल की अनुपम कारीगरी से हमें रूबरू नहीं कराते बल्कि वर्तमान में इस इलाके के भील, भिलाला आदिवासी महिलाओं के गले में हजारों मनकों से सजी मालाएं तो हमें ताम्रयुगीन संस्कृति की निरन्तरता से भी रूबरू कराती हैं। एक अर्थ में समय ठहरा हुआ भी है और दूसरे अर्थों में प्रवाहमय भी है, ठीक नर्मदा की प्रत्येक लहर की तरह। जो प्रतिक्षण नवीन भी है और उसी क्षण वह अपनी शाश्वतता को भी सिद्ध कर रही होती है।

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