सिर्फ बहता चलता है जल

नदी बिलकुल शांत कभी नहीं हो पाती चाहकर भी
कोई न कोई आवाज या सन्नाटा गूँजता हुआ-सा
उसके तट पर उसके मझधार में किसी चट्टान से नीरव टकराते उसके जल में।

नदी बहती है धरातल पर सूखकर रेत के नीचे थमकर
प्रतिपल जाती हुई अपने विलय की ओर
फिर थी उच्छल
धूप अँधेरे लू-लपट
सुख की झूलती हुई डालों
दुःख के खिसकते-ढहते ढूहों से
हर सर्वनाम को लीलता हुआ
आदि और अंत में उदासीन
सिर्फ बहता चलता है जल
जिसे शायद पता ही नहीं चलता कि वह नदी है।

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