अक्टूबर 2007 में उच्चतम न्यायालय ने राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए थे लेकिन उस आदेश की अवहेलना जगजाहिर है। देश में वर्तमान समय में कितने लोग इस अभिशप्त जीवन को जी रहे हैं इसका अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि कोई भी राज्य यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उनके राज्य में मैला ढोने की प्रथा कायम है। इसी कुप्रथा के बारे जानकारी दे रही हैं ऋतु सारस्वत
बड़ी संख्या में सफाई कर्मी फावड़ों एवं कुदालों से उस गंदगी और मल को बाहर निकालने में जुटे दिखाई देते हैं जिसको दूर से देखते ही आम आदमी नाक-मुंह सिकोड़ लेता है। सिर्फ इन सेप्टिक टैंकों एवं नालों का मल ही क्यों, देश में आज भी ऐसे हजारों लोग हैं, जो सिर पर मैला ढो रहे हैं। आमतौर पर यह देखने में आता है कि प्रशासन द्वारा पारंपरिक रूप से यानी सिर पर मैला ढोने के कार्य को ही अपराध माना जाता है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है हरियाणा के अधिकारी का वह लिखित वक्तव्य जिसमें कहा गया- ‘हमारे यहां सफाई कर्मचारी शुष्क शौचालय तो साफ कर रहे हैं, लेकिन यहां सिर पर मैला उठाने का कार्य कोई नहीं करता।’ अक्टूबर 2007 में उच्चतम न्यायालय ने राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए थे परंतु उक्त आदेश की अवहेलना जगजाहिर है।
देश में वर्तमान समय में कितने लोग इस अभिशप्त जीवन को जी रहे हैं इसका अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि कोई भी राज्य सहर्ष स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उनके राज्य में मैला ढोने की प्रथा कायम है। देश की स्वतंत्रता के छह दशक बाद भी सफाई कर्मचारी सिर पर मैला ढोने को क्यों विवश हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। 11वीं योजना में 2012 तक मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने और इसमें लगे लोगों के पुनर्वास का ब्लूप्रिंट तैयार किया गया था। मोहम्मद सलीम की अध्यक्षता वाली शहरी विकास संबंधी संसद की स्थायी समिति ने स्पष्ट किया था कि मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई योजना की जिम्मेदारी एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय को सौंपे जाने से लाभ के स्थान पर हानि अधिक हुई है। समिति के अनुसार इसके कारण किसी विशेष मंत्रालय की जवाबदेही सुनिश्चित न करने से करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बाद भी वास्तविक स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है।
केंद्र सरकार ने मैला ढोने वाले लोगों एवं उनके परिजनों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय योजना भी प्रस्तावित की थी परंतु अधिकतर योजनाएं कागजों का पुलिंदा बन कर रह गई हैं। सफाई कर्मचारियों की समस्याओं के प्रति असंवेदनशीलता इस तथ्य से साफ जाहिर होती है कि 10वीं पंचवर्षीय योजना में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने एवं इसमें लगे लोगों को रोजगार देने व शुष्क शौचालयों को बदलने के लिए 460 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। लेकिन खर्च मात्र 146 करोड़ रुपये ही किए जा सके। स्पष्ट है कि कमी धन उपलब्धता की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की है। सफाई कर्मचारियों के लिए गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में मांग की है कि मैला ढोने वालों की कानूनी परिभाषा में संशोधन किया जाए, जिसमें सिर्फ शुष्क शौचालयों को ही नहीं, बल्कि किसी भी रूप में और कहीं से (सीवर, सेप्टिक टैंक, नालियों आदि) पूर्ण या आंशिक रूप से मैला ढोने वालों को उनमें शामिल किया जाए।
यही उचित भी है क्योंकि सफाई कर्मचारियों को भी उसी तरह स्वच्छ पर्यावरण में जीने का अधिकार है जैसा अन्य लोगों को है। आये दिन सीवर और सेप्टिक टैंक में काम करते हुए सफाई कर्मियों के अपनी जान से हाथ धोने की खबरें आती रहती है। क्या यह देश के लिए जरूरी नहीं कि वह अपने सफाई कर्मचारियों को आधुनिक तकनीक से लैस मशीनें उपलब्ध कराए जिससे उनके जीवन की रक्षा हो सके और वे स्वच्छ पर्यावरण में जी सके। यह जरूरी है कि मैला ढोने का सवाल मानवाधिकारों के दायरे में लाए जाए जिससे इसका उल्लंघन करने वालों पर आवश्यक कानूनी कार्रवाई की जा सके। फिलहाल तो भारतीय सामंती समाज, सफाई कर्मचारियों को उनकी पहचान से मुक्त नहीं होने दिया जा रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफाई कर्मचारियों के परिवारों की यह पहचान स्वीकृत हो चली है। डॉ. अंबेडकर के अनुसार यह समुदाय जाति-व्यवस्था में शामिल ही नहीं है बल्कि उससे बाहर और अछूत है। यह अछूतपन सिर्फ उनकी समस्या नहीं, लोकतंत्र और सभ्य नागरिक समाज की समस्या है। सफाई कर्मचारी आंदोलन बीते दशकों से अभियान चला रहा है। यह अभियान भारतीय समाज को एक ऐसी मानवीय तस्वीर देने का प्रयास है जहां सभी बराबर हो।
सफाई कर्मचारी महिलाओं में से अनेक महिलाएं स्वयं आगे बढ़कर, इस अमानवीय प्रथा से मुक्ति पाने का प्रयास कर रही हैं। वे सरकारी कार्यालयों के सामने मैला ढोने की टोकरियां जला रही हैं और पुनर्वास के अपने अधिकार के लिए नारे लगा रही हैं। आंध्रप्रदेश की नारायणम्मा, पानीपत की बाली देवी, तमिलनाडु की जयंती वे महिलाएं हैं जिन्होंने न केवल मैला ढोने जैसे अमानवीय कृत्य से मुक्ति पाई है बल्कि सम्मान से जीने के लिए स्वयं संघर्ष किया है। आज वे ऐसी हर उस महिला के लिए उदाहरण है जो इससे मुक्त होकर सम्मानित जीवन जीना चाहती है। यह देश के हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाए, अन्यथा पूंजी की चमक के नीचे मैला ढोते हुए यह मजदूर अपने अभिशप्त जीवन से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे।
आंध्रप्रदेश की नारायणम्मा, पानीपत की बाली देवी, तमिलनाडु की जयंती वे महिलाएं हैं जिन्होंने न केवल मैला ढोने जैसे अमानवीय कृत्य से मुक्ति पाई है बल्कि सम्मान से जीने के लिए स्वयं संघर्ष किया है। आज वे ऐसी हर उस महिला के लिए उदाहरण है जो इससे मुक्त होकर सम्मानित जीवन जीना चाहती है। यह देश के हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाए, अन्यथा पूंजी की चमक के नीचे मैला ढोते हुए यह मजदूर अपने अभिशप्त जीवन से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे।
उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में सरकार से कहा कि वह सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा पर रोक लगाने के लिए शीघ्र ही संसद में विधेयक पेश करे। यह गौरतलब है कि 2003 में एक जनहित याचिका ‘इंप्लायमेंट ऑफ मैन्यूअल स्कैवेंजर एंड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैट्रिस (प्रोहिवेशन) एक्ट 1993 को लागू करने के लिए दायर की गई थी ताकि सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर रोक लगे। पिछले नौ वर्षों में इस बाबत न्यायालय ने कई आदेश जारी किए लेकिन उनका उचित कार्यान्वयन नहीं हुआ। इसके पीछे प्रशासनिक की इच्छाशक्ति की कमी तो है ही, साथ ही यह भी सत्य है कि जिन अधिकारियों पर इस अधिनियम को लागू कराने की जिम्मेदारी है वे स्वयं ही इसके बारे में ठीक से नहीं जानते। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह शहरों का विस्तार हुआ है उसने अनेक समस्याओं को उत्पन्न कर दिया है। हर शहर की अपनी विशेषताएं हैं परंतु हर जगह एक बात समान है, वह है गंदगी के ढेर। बड़े-छोटे शहरों में सड़कों पर और सेप्टिक टैंकों में पानी का भराव न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए नालों की सफाई का काम समय-समय पर नगरीय प्रशासन द्वारा कराया जाता है।बड़ी संख्या में सफाई कर्मी फावड़ों एवं कुदालों से उस गंदगी और मल को बाहर निकालने में जुटे दिखाई देते हैं जिसको दूर से देखते ही आम आदमी नाक-मुंह सिकोड़ लेता है। सिर्फ इन सेप्टिक टैंकों एवं नालों का मल ही क्यों, देश में आज भी ऐसे हजारों लोग हैं, जो सिर पर मैला ढो रहे हैं। आमतौर पर यह देखने में आता है कि प्रशासन द्वारा पारंपरिक रूप से यानी सिर पर मैला ढोने के कार्य को ही अपराध माना जाता है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है हरियाणा के अधिकारी का वह लिखित वक्तव्य जिसमें कहा गया- ‘हमारे यहां सफाई कर्मचारी शुष्क शौचालय तो साफ कर रहे हैं, लेकिन यहां सिर पर मैला उठाने का कार्य कोई नहीं करता।’ अक्टूबर 2007 में उच्चतम न्यायालय ने राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए अधिसूचना जारी करने के निर्देश दिए थे परंतु उक्त आदेश की अवहेलना जगजाहिर है।
देश में वर्तमान समय में कितने लोग इस अभिशप्त जीवन को जी रहे हैं इसका अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि कोई भी राज्य सहर्ष स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि उनके राज्य में मैला ढोने की प्रथा कायम है। देश की स्वतंत्रता के छह दशक बाद भी सफाई कर्मचारी सिर पर मैला ढोने को क्यों विवश हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। 11वीं योजना में 2012 तक मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने और इसमें लगे लोगों के पुनर्वास का ब्लूप्रिंट तैयार किया गया था। मोहम्मद सलीम की अध्यक्षता वाली शहरी विकास संबंधी संसद की स्थायी समिति ने स्पष्ट किया था कि मैला ढोने की अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के उद्देश्य से प्रारम्भ की गई योजना की जिम्मेदारी एक मंत्रालय से दूसरे मंत्रालय को सौंपे जाने से लाभ के स्थान पर हानि अधिक हुई है। समिति के अनुसार इसके कारण किसी विशेष मंत्रालय की जवाबदेही सुनिश्चित न करने से करोड़ों रुपये खर्च किए जाने के बाद भी वास्तविक स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ है।
केंद्र सरकार ने मैला ढोने वाले लोगों एवं उनके परिजनों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय योजना भी प्रस्तावित की थी परंतु अधिकतर योजनाएं कागजों का पुलिंदा बन कर रह गई हैं। सफाई कर्मचारियों की समस्याओं के प्रति असंवेदनशीलता इस तथ्य से साफ जाहिर होती है कि 10वीं पंचवर्षीय योजना में मैला ढोने की प्रथा खत्म करने एवं इसमें लगे लोगों को रोजगार देने व शुष्क शौचालयों को बदलने के लिए 460 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। लेकिन खर्च मात्र 146 करोड़ रुपये ही किए जा सके। स्पष्ट है कि कमी धन उपलब्धता की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की है। सफाई कर्मचारियों के लिए गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट में मांग की है कि मैला ढोने वालों की कानूनी परिभाषा में संशोधन किया जाए, जिसमें सिर्फ शुष्क शौचालयों को ही नहीं, बल्कि किसी भी रूप में और कहीं से (सीवर, सेप्टिक टैंक, नालियों आदि) पूर्ण या आंशिक रूप से मैला ढोने वालों को उनमें शामिल किया जाए।
यही उचित भी है क्योंकि सफाई कर्मचारियों को भी उसी तरह स्वच्छ पर्यावरण में जीने का अधिकार है जैसा अन्य लोगों को है। आये दिन सीवर और सेप्टिक टैंक में काम करते हुए सफाई कर्मियों के अपनी जान से हाथ धोने की खबरें आती रहती है। क्या यह देश के लिए जरूरी नहीं कि वह अपने सफाई कर्मचारियों को आधुनिक तकनीक से लैस मशीनें उपलब्ध कराए जिससे उनके जीवन की रक्षा हो सके और वे स्वच्छ पर्यावरण में जी सके। यह जरूरी है कि मैला ढोने का सवाल मानवाधिकारों के दायरे में लाए जाए जिससे इसका उल्लंघन करने वालों पर आवश्यक कानूनी कार्रवाई की जा सके। फिलहाल तो भारतीय सामंती समाज, सफाई कर्मचारियों को उनकी पहचान से मुक्त नहीं होने दिया जा रहा है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफाई कर्मचारियों के परिवारों की यह पहचान स्वीकृत हो चली है। डॉ. अंबेडकर के अनुसार यह समुदाय जाति-व्यवस्था में शामिल ही नहीं है बल्कि उससे बाहर और अछूत है। यह अछूतपन सिर्फ उनकी समस्या नहीं, लोकतंत्र और सभ्य नागरिक समाज की समस्या है। सफाई कर्मचारी आंदोलन बीते दशकों से अभियान चला रहा है। यह अभियान भारतीय समाज को एक ऐसी मानवीय तस्वीर देने का प्रयास है जहां सभी बराबर हो।
सफाई कर्मचारी महिलाओं में से अनेक महिलाएं स्वयं आगे बढ़कर, इस अमानवीय प्रथा से मुक्ति पाने का प्रयास कर रही हैं। वे सरकारी कार्यालयों के सामने मैला ढोने की टोकरियां जला रही हैं और पुनर्वास के अपने अधिकार के लिए नारे लगा रही हैं। आंध्रप्रदेश की नारायणम्मा, पानीपत की बाली देवी, तमिलनाडु की जयंती वे महिलाएं हैं जिन्होंने न केवल मैला ढोने जैसे अमानवीय कृत्य से मुक्ति पाई है बल्कि सम्मान से जीने के लिए स्वयं संघर्ष किया है। आज वे ऐसी हर उस महिला के लिए उदाहरण है जो इससे मुक्त होकर सम्मानित जीवन जीना चाहती है। यह देश के हर नागरिक का कर्त्तव्य है कि इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाए, अन्यथा पूंजी की चमक के नीचे मैला ढोते हुए यह मजदूर अपने अभिशप्त जीवन से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे।
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