शिप्रा प्रदूषण

पुण्यदा शिप्रा आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व सदानीरा थी। उस समय उसके जल की गुणवत्ता भी वैज्ञानिक दृष्टि से उत्तम थी तथा परिक्षेत्र का पर्यावरण भी संतुलित था। आज वही सदानीरा शिप्रा मौसमी नदी बन चुकी है, जिसमें मात्र वर्षा ऋतु में जल प्रवाह रहता है शेष आठ-नौ माह में से केवल नवम्बर से फरवरी तक ही चार माह जल रहता है, वह भी लगभग प्रवाह-हीन। अवशेष माहों (लगभग फरवरी से जून तक) में नदी की स्थिति दयनीय रहती है। अनेक स्थानों पर शिप्रा जलविहीन, कंकड़, पत्थर, बालू वाली नदी हो जाती है। कुछ स्थानों पर अवश्य ही छोटे-छोटे गड्ढों में जल भरा रहता है अतः इस काल में इसे जलमय गड्ढों वाली नदी कह सकते हैं। शिप्रा के जल विहीन या अल्प जल वाली नदी हो जाने के दो प्रमुख कारण हैं – (1) उद्योगों तथा कृषि हेतु सिंचाई के लिये शिप्र-जल का अत्यधिक प्रयोग होना। (2) शिप्रा के तटवर्ती नगरों देवास, उज्जैन तथा महिदपुर को शिप्रा जल की आपूर्ति का होना। इन दो कारणों के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण कारण और भी है-वर्षा जल की आपूर्ति की मात्रा में निरन्तर कमी होना। सन् 1975 के पश्चात हुये अकल्पनीय धरातलीय एवं वायुमण्डलीय परिवर्तनों से भी जल-आपूर्ति में न्यूनता आयी है। इसका कारण ऋतुचक्र में परिवर्तन है, जिससे वर्षा अवधि एवं वर्षा मात्रा प्रभावित हुई है।

शिप्रा में जलाभाव के कारण वर्षभर जलप्रवाह नहीं रहता है। इस कारण से नदी जल की शुद्धता होने की जो सामान्य प्रक्रिया है वह भी नहीं हो पाती है। उद्योगों तथा नगरों के दूषित जल व अवशिष्ट ठोस द्रव्यों से भी नदी जल पर्याप्त मात्रा में दूषित हो रहा है। यह अवश्य है कि उद्योगों के दूषित जल को संस्कारित करने के उपरान्त ही नदी में प्रवाहित करने का प्रावधान है, फिर भी येन-केन प्रकारेण दूषित जल, नदी में मिलता ही है। इसी प्रकार तटवर्ती नगर के निस्सारित मल-जल को भी संस्कारित करने का नियम है। मल-जल की संस्कारित करने हेतु यद्यपि उपचार-यन्त्र तथा सीवेज पम्पिंग स्टेशन नगरों में स्थापित हैं किन्तु उपचार करने की क्षमता उत्सर्जित मल-जल के प्रमाण से बहुत ही कम है। विगत दस-पन्द्रह वर्षों में नगरों की जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

शिप्रा की सहायक नदी खान इन्दौर नगर के मध्य भाग में प्रवाहित होती हुई त्रिवेणी के समीप शिप्रा में मिलती है। इस नदी के द्वारा इन्दैर नगर न इन्दौर के औद्योगिक क्षेत्र का दूषित जल व अवशिष्ट पदार्थ शिप्रा में मिला दिया जाता है। इस कारण भी शिप्रा उज्जैन नगर में सर्वाधिक प्रदूषित हो गयी है। उज्जैन के त्रिवेणी क्षेत्र के समीप तटवर्ती भाग में ईंट के भट्टे भी पर्याप्त मात्रा में हैं, जो कि नदी जल को प्रदूषित करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। शिप्रा जल के स्थिरी-रूप के कारण भी प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि हुई हैं।

तटवर्ती नगर महिदपुर की जल पूर्ति शिप्रा से ही होती है। जल-प्रदाय हेतु नदी के जिस क्षेत्र से जल ग्रहण किया जाता है उसके पूर्व श्मशान घाट है, जहाँ का प्रदूषित जल शिप्रा में ही मिलता है.तट पर ईंट के कारखाने हैं। ईंट हेतु तटवर्ती क्षेत्र से मिट्टी का कटाव किया जाता है जिससे वर्षा ऋतु में जल प्रवाह के साथ बहकर मिट्टी नदी में मिल जाती है। परिणाम स्वरूप नदी तल उथला हो गया है। उज्जैन नगर की जल पूर्ति हेतु अम्बोदिया के निकट गम्भीर नदी पर बांध बंध जाने के कारण गम्भीर की जल मात्रा में भी बहुत कमी आ गयी है। इस कारण भी गम्भीर का बहुत कम जल शिप्रा में मिलता है। फलस्वरूप आलोट जागीर (मेल-मुण्डला) से आगे शिप्रा में जल की मात्रा में कमी हो गयी है। इस कारण तटवर्ती ग्रामों एवं महिदपुर में जल की कमी का अनुभव होने लगा है। नदी में जल की कमी से भी प्रदूषण की मात्रा में वृद्धि हो गयी है।

शिप्रा के जल को प्रदूषण मुक्त करने हेतु सन् 1992 में सिंहस्थ के पूर्व लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने एक कार्यकारी योजना की रिपोर्ट शासन को प्रस्तुत की थी। रिपोर्ट में शिप्रा-जल शुद्धिकरण हेतु रुपये 45 करोड़ 46 लाख तथा खान हेतु रुपये 4 करोड़ 45 लाख 83 हजार के प्रस्ताव प्रस्तावित थे। यह योजना मूर्ति रूप नहीं ले सकी। वर्तमान में शिप्रा शुद्धिकरण की दिशा में पुनः विचार किया गया और देश की अन्य बड़ी नदियों की शुद्धिकरण-योजना में शिप्रा को सूचीबद्ध कर लिया गया है। यह योजना 29 करोड़ की है। शिप्रा जब नवम्बर-दिसम्बर माह के बाद ही लगभग प्रवाह-हीन हो जाती है तब उसके स्थिरी-जल के शुद्धिकरण हेतु शासन ने करोड़ों की योजना स्वीकृत कर ली है। यह एक विडम्बना ही है। इस योजना में कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि नदी के जल-प्रवाह को वर्ष भर निरन्तर कैसे रखा जाएगा? यह अवश्य है कि योजना में नगरों तथी उद्योगों के उत्सर्जित एवं निस्सारित मल-जल के पूर्ण उपचारोपरान्त ही उसे शिप्रा में प्रवाहित किये जाने हेतु, यन्त्र आदि स्थापित करने का प्रावधान है। इससे शिप्रा कुछ अंशों में प्रदूषण मुक्त हो सकती है। यह कार्य केवल मात्र नगर व उद्योगों के उत्सर्जित तथा निस्सारित जल-मल तक ही सीमित है। शिप्रा में वर्षाऋतु पश्चात जलप्रवाह किस प्रकार बना रहे इस हेतु किसी प्रक्रिया का उल्लेख योजना में नहीं किया गया है। शिप्रा, प्रदूषण-मुक्त तभी हो सकती है जब उत्सर्जित तथा निस्सारित जल को विधिवत् उपचारोपरान्त ही नदी में प्रवाहित किया जाए और जल की मात्रा नदी में इतनी हो कि नदी वर्षभर प्रवाहमयी बनी रहे। ये दोनों कार्य यदि साथ-साथ नहीं किये जायेंगे तो शिप्रा को प्रदूषण मुक्त करना सम्भव नहीं है चाहे करोड़ो या अरबों की योजना क्यों न बनाई जाए।

पूर्वकाल में शिप्रा या किसी अन्य नदी के शुद्धिकरण करने की किसी योजना का उल्लेख किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता, कारण कि उस युग में नदी के प्रति समाज में दायित्व बोध था। धर्मसम्मत कार्यों के प्रति जनता की आस्था थी। पुराणों में जल की उत्पत्ति नारायण से मानी गयी है, इसी कारण जल की अपर संज्ञा नारः (नारा) भी है। जल को पवित्र माना जाता था। पुराणों एवं समृतियों ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि मल, मूत्र, विष्टा, कफ-थूकना आदि कार्य नदी, तालाब, बावड़ी आदि में न किये जायें। इन निषेध कार्यों को करने वाले व्यक्ति को ब्रह्म हत्या का दोषी कहता गया है। धर्मसिन्धु में तो स्पष्ट आदेश है कि –

“मार्गजलदेवालयनदीतीरादौ मलोत्सर्गो निषिद्धः।हस्तान्द्वादश संत्यज्य मूत्रं कुर्याज्जलाशयात्” ।। परि पृ. 530
नदी को पूर्ण रूपेण प्रदूषण मुक्त एवं सुद्ध रखने हेतु भारतीय धर्माचार्य पूर्ण सजग तथा सचेत थे। यही कारण है कि शिप्रा आदि नदियों के प्रदूषित होने का उल्लेख किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं है। नदी सतत प्रवाहमयी बनी रहे इस दशा में भी वे सजग थे। इसी कारण उन्होंने स्नानार्थी के लिये स्नान-विधि का विधान किया था, जिसमें नदी नद के प्रति स्नानार्थी के कर्त्तव्य का स्पष्ट उल्लेख है। तदनुसार स्नान करने के पूर्व प्रत्येक स्नानार्थी का यह कर्त्तव्य था कि वह नदी-तल में से पञ्चलोष्ठ से लेकर सातलष्ठ तक (पाँच तगाड़ी सेलेकर सात तगाड़ी तक) मिट्टी निकालकर नदी से बाहर दूर फेंके। इस नियम के पालन करने पर नदी तल में गार (मिट्टी कचड़ा आदि) आदि संग्रहित होने का प्रश्न ही नहीं होता था। नदी पूर्ववत् गहरी बन रहने से उसमें जल की मात्रा भी पर्याप्त बनी रहती थी।

आज के भौतिक विकास की आपाधापी में किस स्नानार्थी को धार्मिक ग्रन्थों में उल्लिखित स्नानविधि का पालन करना अनुकूल एवं तर्क सम्मत लगेगा। आज का युवा वर्ग तो धार्मिक नियमों को ढकोसला तथा कालातीत मानकर उनके विपरीत आचरण करने में स्वतः को गौरवान्वित मान रहा है। इसी का परिणाम है कि नदी उथली होकर अल्प जल वाली हो गयी है। आज शिप्रा न तो सदानीरा नदी है और न प्रदूषण मुक्त ही। शिप्रा के प्रदूषण मुक्त न होने के कारण पर्यावरण भी प्रभावित हो गया है।

नदी जल में प्रदूषण का मानक तत्व उसकी गुणवत्ता है। जल में घुली ऑक्सीजन जो कि प्राणवायु कहलाती है यदि इसमें कमी है तो निश्चित रूप मे जल की गुणवत्ता में कमी मानी जाती है। जल की इसी गुणवत्ता का सन् 1982 से सतत अध्ययन करने पर, जल में हो रहे परिवर्तन स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। नदी जल में घुलित ऑक्सीजन का मात्रा भारतीयमानक के अनुसार 5.0 मिलीग्राम प्रति लीटर होना चाहिए क्योंकि इससे कम होने पर नदी का जल न स्नान करने योग्य होता है और न पीने योग्य ही होता है। मानक मात्रा में कम घुलित ऑक्सीजन होने पर जलीय वनस्पति तथा जीव-जन्तु के जीवन को भी खतरा उत्पन्न हो जाता है। कतिपय वनस्पतियाँ एवं मछलियाँ मानक (5.0 मिलीग्राम प्रति लीटर) से कम घुलित ऑक्सीजन में भी जीवित रह सकती हैं किन्तु यह मात्रा 3.0 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम नहीं होना चाहिए। पीने योग्य जल में निर्धारित मात्रा में ऑक्सीजन न होने पर उसमें न स्वाद रहता है और न जीवन उपयोगी तत्व ही। इतः जल में ऑक्सीजन का निर्धारित मात्रा में घुलित होना आवश्यक है।

उद्योगों तथा नगरों से उत्सर्जित एवं निस्सारित दूषित जल नदी में स्नान करने उपरान्त प्राप्त गन्दा पानी तथा अवशिष्ट अनुपयोगी सामग्री नदी जल मेx मिला दी जाती है। फलस्वरूप इन प्रदूषणकारी कारकों से नदी जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आ जाती है। औद्योगिकीकरण, नगरीकरण तथा भौतिक विकास की अन्धी दौड़ के कारण आज जन-मानस नदी के प्रति उदासीन हो गया है। फलस्वरूप आज पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

उद्गम स्थल से लेकर देवास तक शिप्रा में उल्लेखनीय प्रदूषणकारी तत्व मिलते नहीं हैं। वस्तुतः देवास से आगे की शिप्रा यात्रा प्रदूषणकारी है। देवास के औद्योगिक क्षेत्र से मेंढकी नाला, नागधवन नाला अवं सिटी सीवेज नाला शिप्रा में मिलते हैं। इन नालों द्वारा उद्योगों तथा नगर का प्रदूषित जल शिप्रा की ओर प्रवाहित होती है। उद्योगों से निस्सारित दूषित जल की मात्रा 0.28 क्यूबिक मी.प्रतिसेकेंड (Cu.M.Sec) है। इस विसर्जित दूषित जल की 0.15 क्यूबिक मात्रा सिंचाई में प्रयोग कर ली जाती है। शेष (0.13 क्यूबिक मात्रा) विस्रजित दूषित जल नागधवन नाले के माध्यम से शिप्रा में मिलता है। वस्तुतः वर्षा ऋतु को छोड़कर लगभग आठ माह नागधवन नाले का सम्पूर्ण जल सिंचाई में प्रयोग कर लिया जाता है। वर्षाऋतु में अवश्य ही सम्पूर्ण विसर्जित दूषित एवं गंदगी शिप्रा में मिलती है। औद्योगिक क्षेत्र के दूषित जल का वर्ष के आठ माह सिंचाई में प्रयोग होने पर भी उद्योगों से विसर्जित घुलनशील व अघुलनशील ठोस अवशिष्ट तत्व नदी की तलछटी में बैठ जाते हैं। ये तत्व ही वर्षाऋतु में जल प्रवाह के साथ शिप्रा में आकर मिलते हैं। अतः देवास में तथा देवास नगर के बाहर नागधवन नाला मिलने के बाद शिप्रा वर्षाऋतु में भी दूषित हो जाती है। वैसे देवास की प्रायः सभी महत्वपूर्ण औद्योगिक इकाईयों में जल उपचार-संयन्त्र स्थापित हैं। फिर भी शिप्रा जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। देवास के पश्चात उज्जैन जिले में शिप्रा के प्रवेश करते ही त्रिवेणी पर सांवेर से आती हुई खान नदी शिप्रा में मिलती है।

खान नदी इन्दौर नगर व इन्दौर औद्योगिक क्षेत्र का निस्सारित एवं उत्सर्जित दूषित व गंदगी अपने जल में मिलाकर सांवेर तहसील की ओर प्रवाहित होती है। इन्दौर नगर का लगभग 1818-2000 घन मी/दिन दूषित जल तथा औद्योगगिक क्षेत्र का लगभग 60,000 घन मी/दिन जल, खान में प्रवाहित होता है। औद्योगिक क्षेत्र के निस्सारित एवं उत्सर्जित दूषित जल में बीओडी एव. सीओडी. की उच्च-शक्ति होती है। इसके अतिरिक्त वनस्पति तथा तेल उद्योग का अनुपयोगी दूषित जल लगभग 50 घन मीटर से लेकर 60 घन मीटर तक खान में मिलता है, जिसमें उच्च-शक्ति के बीओडी तथा सीओडी के अतिरिक्त ग्रीस और तेल भी रहता है, जो जीवन के लिये हानिकारक है। इन्दौर के कविट खेड़ी (कवित खेड़ी) क्षेत्र में प्रदूषित खान से लगभग 3 से 4 एमजीडी उपचारित सीवेज जल निकाल कर लगभग 600 एकड़ क्षेत्र की सिंचाई की जाती है। कवित खेड़ी में ही गंदे दूषित जल के उपचार हेतु संयन्त्र स्थापित है, जिसकी उपचार क्षमता मात्र 3 एमजीडी है। इस संयन्त्र में प्रारम्भिक क्रिया द्वारा गन्दे जल से ठोस मल आदि वस्तुएँ निकालकर खाद बनाने हेतु मल को खाद-क्षेत्र में भेज दिया जाता है। इसके बाद भी अवशिष्ट विसर्जित गंदगी का एक प्रमुख भाग खान नदी में प्रवाहित होता है। इस जल में भारतीय मानक स्तर से अधिक मात्रा में बीओडी पाए जाते हैं। घुलनशील ठोस द्रव्य भी मान्य मात्रा से अधिक रहते हैं। इन्दौर के आगे अन्य छोटे-छोटे नाले भी खान नदी में मिलते हैं जिनमें संलग्न क्षेत्र का दूषित जल रहता है। यद्यपि इन्दौर नगर के बाहर खान नदी के जल का उपयोग सिंचाई के लिये कर लिया जाता है फलस्वरूप सांवेर तक का यात्रा में खान जल विहीन नदी हो जाती है। अघुलनशील अवशिष्ट तत्व नदी के तल में ही जमा रहते हैं जो वर्षा ऋतु के जल प्रवाह के साथ बहकर आगे चले जाते हैं। सांवेर तथा उसके पश्चात् अनेक छोटे-बड़े नाले खान में मिलते हैं। इनमें सबसे बड़ा नाला कतकिया नाला है। फलस्वरूप इसके बाद खान में जलप्रवाह बना रहता है। यही प्रवाहित जल त्रिवेणी से लगभग 6 किलोमिटर पूर्व सांवेर दिशा में रामवासा गाँव के समीप निर्मित तालाब में संग्रहित हो जाता है। इस संग्रहित जल से सिंचाई होती है। रामावासा बांध (तालाब) से छोड़ा गया जल खान नदी में प्रवाहित होता हुआ त्रिवेणी के समीप शिप्रा में मिलता है। शिप्रा खान संगम स्थल के पूर्व खान के तटीय भाग पर व शिप्रा के तटीय भाग पर ईंट के अनेक कारखाने हैं। इस कारण खान व शिप्रा दोनों का जल प्रदूषित हो रहा है व तटवर्ती भूमि का कटाव भी इस कारण विशेष रूप से हो रहा है। खान एवं शिप्रा संगम के कुछ आगे नदी में एक छोटा सा बैराज बना है, जिससे शिप्रा का दूषित जल उज्जैन की ओर आगे प्रवाहित नहीं हो पाता है। वर्षा ऋतु में खान के माध्यम से काफी मात्रा में जल शिप्रा में मिलता है। इस जल के साथ प्रदूषित जल व अवशिष्ट गंदगी भी शिप्रा में मिलती है।

उज्जैन में शिप्रा को और अधिक प्रदूषित करने वाली कपड़े की मिलें, लूम कारखाने तथा अन्य छोटे-बड़े उद्योग हैं। उद्योगों द्वारा विसर्जित प्रदूषित जल एवं गंदगी जिसकी मात्रा 9.0 एमएलडी (2.00 M.G.D.) है, पीलिया-खाल नाला द्वारा सिद्धवट तथा मंगलनाथ मन्दिर के समीप शिप्रा में मिलाई जाती है। इस प्रकार बहकर आयी हुई गंदगी के कारण यद्यपि शिप्रा प्रदूषित होती है किन्तु उसका प्रभाव उज्जैन पर नहीं पड़ता है। उज्जयिनी के आगे के शिप्रा तट के गाँव अवश्य ही इससे प्रभावित होते हैं। उज्जैन नगर के जल-मल निस्सारण हेतु तीन सीवर लाईन तथा तीन नाले हैं। ये नगर के गन्दे जल-मल को चक्रतीर्थ, दानीगेट, रुद्रसागर एवं नदी गेट पम्पिंग स्टेशन पहुँचाते हैं जहाँ उपचार संयन्त्रों द्वारा जल-मल की कुछ मात्रा का उपचार होता है तथा दूषित जल को उद्वहन पद्धति द्वारा 12 हेक्टेयर भूमि में फैला दिया जाता है, जहाँ, यूकेलिप्टस के 23 हजार पौधे रोपित किये गये हैं। इस उद्वहन सिंचाई प्रक्रिया से गंदे प्रदूषित जल की केवल मात्र 63.0 M.L.D. (14.0 M.G.D.) मात्रा ही सिंचाई हेतु उपलब्ध कराई जा रही है। इस प्रक्रिया के बाद शेष दूषित जल की 31.5 M.L.D (7.00M.G.D) मात्रा बचती है जो कि येन केन प्रकारेण शिप्रा जल में मिल जाती है। इस कारण भी शिप्रा की स्थिति प्रदूषण की दृष्टि से भयावह हो जाती है। महिदपुर नगर का भी गंदा व प्रदूषित जल-मल शिप्रा में ही मिलता है।

इस प्रकार उद्योगों तथा नगरों द्वारा विसर्जित एवं निस्सारित प्रदूषित जल के शिप्रा में मिलने के कारण तटवर्ती नगरों का न केवल भौतिक पर्यावरण ही दूषित हो रहा है वरन् नगरों का धार्मिक-सांस्कृतिक पर्यावरण भी प्रदूषित हो गया है। आज के वैज्ञानिक युग में सामान्य शिक्षित युवक भी पुण्यप्रद शिप्रा में शुभ एवं मांगलिक पर्वों पर शिप्रा स्नान की इच्छा नहीं करता है। जल पीना या आचमन करना तो स्वप्न की बात है। शिप्रा जल के प्रदूषित होने के कारण नदी के जीव-जन्तु तो उन स्थानों पर भी समाप्त हो गये हैं जहाँ ग्रीष्म ऋतु में भी जल का संग्रह रहता है। प्रमाणिक तथ्य है कि नगरीय जनसंख्या का दो से तीन प्रतिशत भाग प्रति वर्ष जल-जन्य रोग से पीड़ित होता है। शिप्रा की वर्तमान दूषित स्थिति में कौन पढ़ा-लिखा व्यक्ति स्नान करने की इच्छा करेगा? मध्यप्रदेश शासन द्वारा नियंत्रित मध्यप्रदेश प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड अपने उज्जैन कार्यालय के माध्यम से शिप्रा जल की जाँच कराता है। इस हेतु उसने परिक्षेत्र में कतिपय बिन्दु स्थल निर्धारित किये हैं। वह इन बिन्दु स्थलों से जल-संग्रह कर जल की गुणवत्ता का परीक्षण करता है। ये बिन्दु स्थल क्रमशः निम्न हैं :-
 

क्रमांक

स्थल

नदी

अक्षांश

देशांश

1.

इन्दौर

खान

22.48

75.54

2.

देवास

(क्षिप्रा गाँव)

शिप्रा

22.82

75.31

3.

उज्जैन

(त्रिवेणी संगम)

1.       खान शिप्रा के मिलने से पूर्व

2.       शिप्रा खान से मिलने के पूर्व

3.       शिप्रा खान से मिलने के पश्चात

23.42

75.48

4.

उज्जयिनी

(गऊघाट)

शिप्रा

23.42

75.48

5.

उज्जयिनी

(रामघाट)

शिप्रा

23.42

75.48

6.

उज्जयिनी

(सिद्धवट)

शिप्रा

23.42

75.48

7.

उज्जयिनी

(मंगलनाथ)

शिप्रा

23.42

75.48


इन्दौर नगर की खान नदी में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा के सम्बन्ध में विचार करना अर्थहीन है, कारण कि नगर का प्रदूषित जल अनेक छोटे-बड़े नालों द्वारा अनेक स्थलों पर खान में मिलता है। अतः उस जल में ऑक्सीजन की मात्रा प्रायः नगण्य रहती है।

क्षिप्रा गाँव (देवास) के पूर्व शिप्रा में लगभग कहीं भी उल्लेखनीय प्रदूषणकारी जल नहीं मिलता है। इस कारण क्षिप्रा गाँव में शिप्रा जल भारतीय मानक स्तर IS-2296 का रहता है, जिसमें घुलित ऑक्सीजन आदि अनिवार्य तत्व मानक स्तर के रहते हैं।

उज्जयिनी नगर के शिप्राजल की गुणवत्ता पर तो प्रश्नचिन्ह ही लग गया है। उज्जयिनी में शिप्रा जल की गुणवत्ता विगत वर्षों में क्या थी। इसका संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत है।

सन् 1987 से 1996 तक किये गये शिप्रा जल परीक्षण से प्राप्त निष्कर्षों से स्पष्ट हो गया है कि अप्रैल से जुलाई माह तक प्राप्त जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित मानक से कम ही रही है तथा जल में अन्य घुलित वस्तुओं की मात्रा में अधिकता पाई गयी है यथा B.O.D. तथा C.O.D. । उज्जैन के समान महिदपुर में भी जलप्रदाय केन्द्र के जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा में कमी प्राप्त हुई है।

निष्कर्ष :- घुलित ऑक्सीजन भारतीय मानक के अनुसार स्नान घाटों पर कम से कम 5.0 मिलिग्राम प्रतिलीटर होना आवश्यक है। घुलित ऑक्सीजन गर्मी के दिनों में तापक्रम की वृद्धि के कारण कम हो जाती है। गर्मी के दिनों में चूँकि ठोस एवं कार्बनिक पदार्थों का सान्द्रीकरण हो जाता है, इस कारण जल में घुलित ऑक्सीजन सान्द्रीकृत पदार्थों को डिकम्पोज अर्थात् विखण्डित करने में शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। गर्मी में वैसे भी शिप्रा में जल बहुत कम तथा प्रवाहहीन रहता है। अतः जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम रहती है और वह भी सान्द्रीकृत पदार्थों के विखण्डन क्रिया में समाप्त हो जाती है। फलस्वरूप जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। इस प्रकार की स्थिति में घुलित ऑक्सीजन की कमी के कारण नदी में एनौरोबिक स्थिति बन जाती है। परिणामस्वरूप नदी जल सेप्टिव हो जाता है। त्रिवेणी संगम पर खान नदी से मिलने के पश्चात शिप्रा जल की गुणवत्ता उत्तरोत्तर खराब ही होती जाती है। त्रिवेणी एवं गौघाट के मध्य उज्जैन सिटी सीवेज के दो नाले शिप्रा में मिलते हैं, जिनसे शिप्रा में लगभग 20 लाख लीटर गंदाजल मिलता है। “पीक” समय में यह मात्रा 45 लाख लीटर तक पहुँच जाती है। परिणाम स्वरूप गौघाट पर जल की गुणवत्ता प्रभावित रहती है। उज्जैन नगर के अन्तिम परीक्षण बिन्दु स्थल सिद्धवट में शिप्रा जल गुणवत्ता की दृष्टी से सर्वाधिक प्रभावित रहता है।

त्रिवेणी संगम पर खान के शिप्रा में मिलने से भी शिप्रा जल विशेष रूप से प्रदूषित होता ही है कारण स्पष्ट है कि खान इन्दौर नगर व उसके आसपास के औद्योगिक क्षेत्र के दूषित जल को वहन करती हुई शिप्रा में मिलती है। यह प्रदूषण वृद्धि वर्षा ऋतु प्रारम्भ होते ही अनुभव की जाती है। कारण कि नदी तल में संग्रहित अवशिष्ट ठोस प्रदूषण कारक तत्व वर्षा जल के तेज प्रवाह के कारण जल के साथ प्रवाहित होते हुये शिप्रा में मिलते हैं। वर्षाऋतु होने के कारण तटवर्ती ग्रामों के कृषक भी वर्षाजल से सिंचाई नहीं करते हैं। परिणामतः शिप्रा जल में जून-जुलाई में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आ जाती है।

इन्दौर में खान जल का प्रयोग पीने के लिये नहीं किया जाता है अतः जल की न्यून गुणवत्ता का प्रभाव जन-जीवन पर नहीं पड़ता है किन्तु पशु अवश्य ही उस जल को पीते हैं। जिनसे पशुओं को अनेक रोग होने की सम्भावना बन जाती है और इनमें वह पशु धन भी होता है जिनसे प्राप्त दूध शहर में वितरित किया जाता है। अतः अप्रत्यक्ष रूप से इन्दौर का जन-जीवन भी खान के प्रदूषण से प्रभावित है। खान के प्रदूषण से नगर का भौतिक जीवन तो प्रभावित होता ही है, सांस्कृतिक जीवन पर भी खान का विपरित प्रभाव पड़ता है। इन्दौर नगर के मध्य कृष्णापुरा की छत्रियाँ, जूनी इन्दौर का इन्द्रेश्वर मंदिर, पंढरीनाथ और भैरव मन्दिर का धार्मिक व सांस्कृतिक परिवेश भी खान से प्रभावित है। यह अवश्य है कि वर्तमान में कृष्णापुरा के समीप पुल के नीचे खान नदी पर एक सुन्दर तालाब बना दिया गया है। जिससे परिक्षेत्र के परिवेश पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। महिदपुर में कोई विशेष बड़ा उल्लेखनीय उद्योग नहीं है और न नगर ही बहुत बड़ा है। केवल मात्र नगर का निस्सारित दूषित जल ही शिप्रा जल की गुणवत्ता को कुछ अंशों में प्रभावित करता है।
 

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