सिलकोसिस: गुजरात का अमानवीय चेहरा

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स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जिससे हर व्यक्ति सरोकार है। स्वास्थ्य पर हमारे देश में जो स्थितियाँ हैं उससे यह भी निकलता है कि देश में जनस्वास्थ्य की स्थितियाँ कमोबेश बेहतर नहीं है। खासकर मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय समाज में बेहतर स्वास्थ्य रखना और बिगड़े हुए स्वास्थ्य को दुरुस्त करवाना खासा मुश्किल हो रहा है। स्वास्थ्य के निजीकरण ने इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र से लाभ आधारित व्यवस्था का पर्याय बना दिया है।स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जिससे हर व्यक्ति सरोकार है। स्वास्थ्य पर हमारे देश में जो स्थितियाँ हैं उससे यह भी निकलता है कि देश में जनस्वास्थ्य की स्थितियाँ कमोबेश बेहतर नहीं हैं। खासकर मध्यम वर्गीय और निम्नवर्गीय समाज में बेहतर स्वास्थ्य रखना और बिगड़े हुए स्वास्थ्य को दुरुस्त करवाना खासा मुश्किल हो रहा है। स्वास्थ्य के निजीकरण ने इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र से लाभ आधारित व्यवस्था का पर्याय बना दिया है।

इसी परिप्रेक्ष्य में विकास संवाद की ओर से मध्य प्रदेश के झाबुआ में 'मीडिया और स्वास्थ्य' विषय पर आयोजित परिसंवाद के प्रथम दिन के दूसरे सत्र में स्वास्थ्य के विभिन्न आयामों पर चर्चा हुई। इस संवाद का मकसद यहाँ पर बैठकर संवाद करना और जमीनी स्थितियाँ देखना। दरअसल झाबुआ में आयोजन का उद्देश्य कुछ और ही था। झाबुआ का नाम देश के चंद जिलों में शुमार है आदिवासी आबादी 89 प्रतिशत तक है, लेकिन स्थितियाँ इतनी भयावह हैं कि यहाँ के लोग द्वारा पलायन को विकराल रूप में पेश किया है। पलायन ने यहाँ पर सिलिकोसिस को जानलेवा बना दिया है।

परिसंवाद में चिन्मय मिश्र ने कहा कि सिलिकोसिस मिस्र में पिरामिड के निर्माण से लेकर मायावती की मूर्तियाँ बनाने वाले कामगारों से जुड़ा है। यह व्यवसायजन्य रोग है। यह भयंकर रोग धूल में सूक्ष्म कणों के अत्यधिक मात्रा में रहने से उत्पन्न होता है। स्फटिक के कारखानों में काम करने वालों में यह रोग अधिक होता है। ऐल्यूमिना, कार्बन, जिप्सम तथा हेमाटाईट के कण यदि धूल में सिलिका के साथ मिले रहते हैं, तो अनिष्टकर प्रभाव कम होते हैं। मध्य प्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, धार के लोग ज्यादा प्रभावित हैं। स्थिति इतनी विषम है कि मध्य प्रदेश और गुजरात में फर्क है। यहाँ के लोग गुजरात जाते हैं और बीमारी लेकर आते हैं, लेकिन सरकार उन्हें मुआवजा तक नहीं दे पाती है। इस परिसंवाद में सिलकोसिस से पीड़ित दिनेश राय सिंह ने बताया कि वे 2000 में गोधरा गए थे काम की तलाश में और हिन्दुस्तान फ़ैक्टरी में काम मिला। वहाँ पत्थर पीसने का काम था। वहीं इस बीमारी से जकड़ा और अब वे इस बीमारी से जूझ रहे हैं। उनके परिवार में कोई महिला नहीं बची है। सबको इस बीमारी ने लील लिया।

सामाजिक कार्यकर्ता अमूल्य ने बताया कि गोधरा में पत्थर को पाउडर में तब्दील कर देने वाले इन कारखानों में बेहद खतरनाक ढंग से काम होता है। मालिकों का दावा है कि कारखाने पूरी तरह मशीनीकृत हैं और यहाँ बिना मानव श्रम के काम होते हैं। विस्थापन और स्वास्थ्य का सवाल कुछ ऐसा ही है। काम नहीं मिलने पर लोग काम के लिये दूसरे प्रदेश में जाते हैं और वहाँ से जानलेवा बीमारी लेकर लौटते हैं। उन्होंने लोकसंघर्ष साझा मंच के प्रयासों का उल्लेख करते हुए कहा कि पहले तो टीबी बनाम सिलिकोसिस का मुद्दा उठा। ऐसी बीमारी में चिकित्सक टीबी का इलाज कर देते थे। लेकिन सारे इलाज धरे रह जाते। लेकिन कई लोगों की मौत के बाद इस रहस्यमयी बीमारी से पर्दा उठा। समुदाय आधारित सर्वेक्षण के बाद असलियत सामने आई। ​फिर साक्ष्य नहीं और साक्ष्य का सवाल आया। पूरी स्थिति के आकलन के बाद बात सामने आती है कि यह संगठित और असंगठित मजदूरों का है। इनके पास कोई साक्ष्य नहीं होने के कारण काफी परेशानी होती थी। साक्ष्य जुटने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को शिकायत की गई।

जाँच के बाद मुआवजा का आदेश हुआ। सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर किए गए। इतने संघर्ष के बाद स्थिति यह है कि केन्द्र ने मुआवजे का पैसा तो दिया है, लेकिन गुजरात सरकार खर्च नहीं कर पा रही है। यह अमानवीय स्थिति इतने संघर्षों के बाद भी बरकरार है। वहीं मोहन सुलिया ने कहा कि पलायन अब भी जारी है। सवाल सरकारी योजना की हकीक़त का है। यदि यहीं काम मिल जाए तो पलायन क्यों होगा। पलायन का सिलसिला इस क्षेत्र में 2009 से ही जारी है। प्रेम विजय पाटिल ने अपने संघर्ष के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि योजना की प्राथमिकता आधिकारियों पर टिकी होती है।

शंकर भाई ने कहा कि आदिवासी समाज धर्म बनने से पहले का समाज है। इनमें मानवता और सामूहिकता दोनों है। प्रकृति के साथ जीता है। जहाँ तक स्वास्थ्य का सवाल है पहले संसाधनों से इलाज करते थे अब खरीदकर दवा लेने की परम्परा चल पड़ी है। वहीं संदीप नाईक ने खदानों में चल रहे शोषण और स्वास्थ्य के खिलाफ हो रहे षड्यंत्र को रेखांकित किया। अध्यक्षीय उद्गार व्यक्त करते हुए सुधीर जैन ने कहा कि मानवीयता का सवाल महत्त्वपूर्ण है। पूरा मामला मानव संसाधनों के विकास पर सवाल खड़ा करता है। प्रदूषण की जो स्थिति और भयावहता है वह 2050 में जिस ढंग से जनसंख्या में बढ़ोत्तरी का जो अनुमान किया गया है, वह चुनौतीपूर्ण होगा।

खुद पर निगरानी का वक्त


दवा कम्पनियाँ काफी अरसे से अपने ब्रांड की बिक्री और प्रमोशन के लिये डॉक्टरों को आर्थिक या अन्य माध्यम से प्रलोभन देती रही है। इन फायदों में छोटे-मोटे गिफ्ट्स से लेकर घरेलू उपयोगी सामान या फिर विदेश यात्रा तक शामिल हैं। ये पूरा कारोबार अरबों रुपयों का है। इस तरह की प्रैक्टिस से मरीजों को ही खामियाजा भुगतना पड़ता है। उन्हें अनावश्यक दवाएँ खरीदने पर मजबूर किया जाता है।प्रथम दिन के तीसरे सत्र में 'स्वास्थ्य और पत्रकारिता' के मुद्दे पर सचिन कुमार जैन ने कहा कि एक ओर सहस्त्राब्दि विकास का लक्ष्य रखा गया तो दूसरी ओर 1.60 लाख बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं देख पाते हैं। नीतिगत प्राथमिकता की बात तो की जाती है, लेकिन बजट में कटौती की जा रही है। अस्पताल हैं तो डॉक्टर नहीं। संसाधन उपलब्ध नहीं है। देश भर में 14 लाख डॉक्टर्स की कमी है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुरूप चिकित्सक और मरीज के अनुपात में कम है। दूसरी ओर प्राइवेट अस्पतालों में शोषण का अन्तहीन सिलसिला। इलाज के क्रम से ही हर साल लोग गरीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं। ऐसे में पत्रकारिता की भूमिका अहम है। पत्रकारिता का क्या नजरिया हो, इस पर संजीदगी से गौर करने की आवश्यकता है।

परिसंवाद का संचालन करते हुए चिन्मय मिश्र ने चन्द्रकान्त देवताले को उद्धृत करते हुए कहा- 'खुद पर निगरानी का वक्त'। मीडिया घरानों की सच्चाई का खुलासा करते हुए अधिकांश मीडिया घराने राजनीतिक दलों से प्रभावित हैं, उनसे संचालित होती है या उसके शेयर होल्डर हैं। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार मणिमाला ने की।

आउटलुक पत्रिका की मनीषा भल्ला ने कहा कि स्वास्थ्य की रिपोर्टिंग आम तौर पर सरजमीन की सच्चाईयों से भिन्न होती है। पंजाब की हरित क्रान्ति के किस्से अलग हैं, लेकिन सच्चाई यह भी है कि लोग कैंसर के शिकार हो रहे हैं। उन्होंने लगातर इस मुद्दे का कवरेज कर राष्ट्रीय बहस का विषय बनाया। बड़े महानगरों में तो स्वास्थ्य की रिपोर्टिंग पीआर कम्पनी के द्वारा होती है। उसमें बड़े अस्पतालों के उपलब्धियों की किस्से गढ़े जाते हैं।

चर्चा को आगे बढ़ाते हुए पत्रकार विजय चौधरी मध्य प्रदेश के क्लिनिकल ट्रायल के मामले में पत्रकारिता की भूमिका और अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि दवा कम्पनियों के द्वारा मरीजों पर क्लिनिकल ट्रायल कराए जाते हैं। मरीजों को पता ही नहीं होता है कि क्या हो रहा है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे को लगातार लिखकर विधानसभा से लेकर इंडियन मेडिकल काउंसिल तक ले गए। अदालत के आदेश पर विभागीय जाँच हुई। इसमें लिप्त डॅाक्टर 16 माह तक प्रैक्टिस से वंचित रहे। दवा कम्पनियाँ काफी अरसे से अपने ब्रांड की बिक्री और प्रमोशन के लिये डॉक्टरों को आर्थिक या अन्य माध्यम से प्रलोभन देती रही है। इन फायदों में छोटे-मोटे गिफ्ट्स से लेकर घरेलू उपयोगी सामान या फिर विदेश यात्रा तक शामिल हैं। ये पूरा कारोबार अरबों रुपयों का है। इस तरह की प्रैक्टिस से मरीजों को ही खामियाजा भुगतना पड़ता है। उन्हें अनावश्यक दवाएँ खरीदने पर मजबूर किया जाता है। प्रदेश के कई बड़े डॉक्टरों पर दवा कम्पनियों के पैसे से विदेश यात्रा का खुलासा होने के बाद इसकी शिकायत मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया में गई। इसकी जाँच एथिकल कमेटी ने की। जाँच में प्रदेश के 15 डॉक्टर दोषी पाए गए, जिनके खिलाफ कार्रवाई करते हुए मध्य प्रदेश मेडिकल काउंसिल ने इनके रजिस्ट्रेशन छह महीने के लिये निरस्त कर दिये गए। उन्होंने कहा कि यह ध्यान में रखने की बात है कि कोई अपने लाभ के लिये औजार की तरह इस्तेमाल नहीं कर पाए।

वहीं श्रावणी सरकार ने कहा कि पत्रकारिता के समक्ष अनेक चुनौतियाँ है। जहाँ तक स्वास्थ्य सेवा का सवाल है तो यह निजीकरण की ओर बढ़ रही है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा समाप्त हो रही है। इसमें आए फर्क को समझना होगा। उन्होंने कहा कि स्वास्थ्य का सवाल कुपोषण से जुड़ा है। उन्होंने इस मामले को गम्भीरता से समझा और लगातार काम कर रही हैं। सुधीर जैन ने कहा कि पेशा और व्यावसयिकता के सकारात्मक पहलू को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए। अध्यक्षता करते हुए जनआन्दोलनों की चर्चित पत्रकार मणिमाला ने चिन्ता जताई कि मीडिया में जनसरोकार की जगह खत्म होती जा रही है। परिसंवाद वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत, हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल के केसर सिंह, रमेश कुमार, स्नेहा, भड़ास डाट कॉम के यशवंत सिंह, जयंत तोमर, राकेश कुमार मालवीय, मदद फ़ाउंडेशन की वंदना झा के साथ देश के विभिन्न हिस्सों से आए पत्रकार, जनसंगठन के लोगों ने हिस्सा लिया।

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