सिक्के के दो पहलू हैं गंगा एवं भारत


सदियों से गंगा मानव जाति को जीवन जीने की कला सिखा रही है। मनीषियों ने गंगा को देव संस्कृति का जीवंत प्रतीक कहा है। उनके अनुसार गंगा संवेदनों का जीवंत स्वरूप है। वास्तव में गंगा केवल जल नहीं, पूरा हिंदुस्तान उसमें दिखाई देता है। यह अद्भुत साम्य है कि पवित्रता की श्खिर गंगा के स्वर्ग से अवतरण और गायत्री जयंती की तिथि एक ही है, या यूँ कहें कि एक ही महासत्य की दो अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ। एक दृश्य है और दूसरी अदृश्य, पर दोनों ही सदियों से संस्कृति को सींच रही हैं।

वेद, पुराण और शास्त्र गंगा की स्तुति से भरे हुए हैं। इनके अतिरिक्त योग्य दर्शन के माध्यम से भी भागीरथी की दिव्यता को अनुभूत किया जा सकता है। योग वेत्ताओं के अनुसार प्राण एक प्रकार की चैतन्य विद्युत शक्ति है, जो गंगा प्रवाह की भाँति इस व्यापक ब्रह्मांड में प्रवाहित हो रही है। शिव संहिता में बाएँ नासापुट अर्थात इड़ा नाड़ी से गंगा रूपी अमृत धारा का प्रगवाहमान होना बताया गया है। योग ग्रन्थों में सहस्त्रार को शिव का स्थान कहा गया है। चूँकि गंगा शिव की जटाओं से निकली है, इसी कारण सहस्त्रार को गंगा रूपी प्राण प्रवाह के उद्गम स्रोत के प्रतीक रूप में व्यक्त किया गया है।

भारतीय संस्कृति में गंगा को पवित्रता का पर्याय माना गया है। वस्तुतः जल के जीवन तत्व होने के कारण ही यहाँ नदियों के पूजन की परंपरा प्राचीन काल से मिलती है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों से संबंधित होने के कारण ही भारत में नदियों में पूर्णतया गंगा का सर्वाधिक महत्व रहा है जिनके नाम पर आज भी शपथ ली जाती है।

भारत के इतिहास में गंगा को जो आध्यात्मिक महिमा प्राप्त हुई है, वह अनूठी है। आज भी सभी धार्मिक कार्यों और संस्कारों में गंगा जल का प्रयोग होता है। गंगा समूचे मानव जीवन में इतनी घुल-मिल गयी है कि आश्चर्य होता है। इसी वजह से भारत और गंगा अभिन्न हो गए हैं।

पतित पावन गंगा नदी समग्र उच्च अधिभौतिक सत्यों का प्रतीक है। ‘गंगा’ शब्द की उत्पत्ति ‘गम’ धातु से हुई है। गम अर्थात विचरण करना। अतः गंगा संचार का प्रतीक है। जिससे सर्वव्यापी पुरुष की अन्तरात्मा से जागृत सृजन संभव होता है। एक शब्द में गंगा प्राणिक स्पन्दन है अर्थात वह जीवन प्रवाह है, जो अविरल गति से मन, जीव एवं जड़ पदार्थ के तीनों धरातलों पर बहता रहता है।

गंगा परम उपकारक नदी है। भारत की जनसंख्या का एक तिहाई भाग गंगा तटवर्ती प्रान्तों में निवास करता है। भारतवर्षीय गंगा पुरोहितों के तीर्थाभिलेखों पर यदि दृष्टि डालें तो पायेंगे कि सभी जाति, वर्ग, स्थान, वर्ण, लिंग, आश्रम, व्यवसाय आदि के व्यक्ति गंगा के प्रति अपूर्व श्रद्धा-परम्परा से रखते चले आ रहे हैं। यह श्रद्धा पुराण युग के पूर्व से प्रारम्भ हो जाती है। पुराण इस श्रद्धा की चरम परिणति के उद्गाता हैं।

पुण्य सलिला गंगा का हिमालय की सतत हिमाच्छादित ऐसी हिम गुफा से उद्गम हुआ है, जहाँ शाश्वत निस्तब्धता विराजमान रहती है। युगों-युगों से सहस्त्रों साधु-संत उसके तीर पर निवास करते आए हैं, जिनके आशीर्वाद का तेल वहाँ सर्वत्र बिखरा हुआ है।

दक्षिण भारतवासी नदी, तालाब आदि किसी भी जल से स्नान करते समय गंगा नाम का उच्चारण बड़ी श्रद्धा से करते हैं। गोदावरी को दक्षिण गंगा कहकर सम्मानित किया गया है। पर्वतीय प्रदेशों में तो प्रत्येक जल-स्रोता गंगा-गंगा कहकर पुकारने की पुरानी प्रथा है। इस तरह गंगा भारत की प्राणद्रव बनती चली गई।

भारतीय जीवन परंपरा में गंगा नदी की प्रतिष्ठा का कारण केवल आध्यात्मिक ही नहीं है। इसका वैज्ञानिक रहस्य भी है। गंगा जल में जीवाणु नाशक, कीटाणुनाशक एवं स्वास्थ्यवर्द्धक क्षमता पायी जाती है, इसीलिए इसे वैदिक शास्त्र में सराहा गया है। गंगा के स्वास्थ्य संबंधी गुणों का प्राचीन काल से उल्लेख मिलता है। चरक ने लिख है हिमालय से निकलने वाले जल पथ्य हैं।

गंगा के मातृत्व का परिणाम है कि वह न केवल हिन्दु अपितु इतर वर्ग वालों के लिये भी पूजनीय बन गई है। यही कारण है कि सोलहवीं शताब्दी के इतिहासकार अबुल फजल ने मुगल सम्राट अकबर के आचार-व्यवहार तथा स्वभाव की चर्चा करते हुए लिखा है- ‘सम्राट घर में तथा अपनी यात्राओं में भी गंगा जल पिया करते थे। उनका कहना था कि यह गंगा जल जीवन का मूल है और इसमें अमरदायिनी शक्ति निहित है’।

लेखक परिचय


राजीव मिश्र
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