सिक्के का दूसरा पहलू

इस व्यावहारिक और वैचारिक द्वन्द्व ने एक अच्छी खासी जमात तटबन्धों के खिलाफ खड़ी कर दी थी। सरकार ने इससे निबटने के लिए इलाके के प्रभावशाली लोगों और गाँव के मुखिया जैसे व्यक्तियों को काम का ठेका देने का प्रस्ताव कर दिया। यह लोग भारत सेवक समाज के यूनिट लीडर बन गये। इस तरह से जो विरोध में मुखर हो सकता था, उसी को तटबन्धों का पैरवीकार बना दिया गया।

भारत सेवक समाज के जन्म से लेकर कोसी परियोजना में जन-सहयोग की उसकी प्रारंभिक भूमिका तक इस पूरी कोशिश की एक रूमानी तथा गुलाबी तस्वीर सामने आती है किन्तु बाद के घटनाक्रम पर यदि नजर डाली जाय तो एक दूसरी ही तस्वीर उभरती है और प्रसंगवश उसका भी वर्णन आवश्यक प्रतीत होता है।

सरकार किसी भी कीमत पर कोसी के तटबन्धों का निर्माण कर देना चाहती थी, यह उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था। दिक्कत यह थी कि जिन लोगों की जमीन तटबन्धों के बीच फंसने वाली थी या जिनकी जमीन से होकर तटबन्ध गुजरने वाला था, वह लोग स्वाभाविक रूप से तटबन्धों के निर्माण के खिलाफ थे। ऐसे लोगों की वजह से निर्माण कार्य में बाधा उत्पन्न हो रही थी। वैसे भी यह इलाका समाजवादियों का गढ़ था और वह चाहते थे कि जब तक पुनर्वास और मुआवजे की समुचित और संतोषजनक व्यवस्था न हो जाय तब तक तटबन्धों का निर्माण न हो। इस व्यावहारिक और वैचारिक द्वन्द्व ने एक अच्छी खासी जमात तटबन्धों के खिलाफ खड़ी कर दी थी। सरकार ने इससे निबटने के लिए इलाके के प्रभावशाली लोगों और गाँव के मुखिया जैसे व्यक्तियों को काम का ठेका देने का प्रस्ताव कर दिया। यह लोग भारत सेवक समाज के यूनिट लीडर बन गये। इस तरह से जो विरोध में मुखर हो सकता था, उसी को तटबन्धों का पैरवीकार बना दिया गया। देखें बॉक्स-हमें क्या मिला?

एक तरफ जहाँ घाघ ठेकेदारों और धुरन्धर इंजीनियरों की युगलबन्दी चल रही थी वहीं दूसरी तरफ जन-सहयोग के नाम पर भारत सेवक समाज जैसी एक गैर-तजुर्बेकार संस्था खड़ी थी। इस मुकाबले के पहले शिकार हुये ललित नारायण मिश्र, सह-संयोजक-भारत सेवक समाज, जिन्होंने कोसी परियोजना पर काम शुरू होने के 6 महीने होते न होते 21 जुलाई 1955 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और कहा कि वह निम्न कारणों से अपने पद पर नहीं बने रहना चाहते।

(1) कार्य के विरुद्ध राजनैतिक दलों द्वारा निरन्तर और व्यापक दुष्प्रचार,
(2) ठेकेदारों द्वारा किसी की सुलभ अवसर पर कठिनाई पैदा करना, तथा
(3) कोसी प्रशासन तंत्र द्वारा जन-सहयोग को किसी भी प्रोत्साहन का अभाव, विशेषकर निचले तबके के तकनीकी स्टाफ (ओवरसियर आदि) का व्यापक असहयोग।

अपने त्यागपत्र के बावजूद ललित नारायण मिश्र बहुत ही सक्रिय रूप से 1957 के लोकसभा चुनावों तक और उसके बाद भी कोसी योजना क्षेत्र से जुड़े रहे और ऐसा विश्वास किया जाता है कि ललित नारयाण मिश्र तथा एक अन्य प्रभावशाली समाजकर्मी शोभानन्द झा के हटने के बाद भारत सेवक समाज में अराजकता पफैली। 1957 के लोकसभा चुनावों मे खड़े होने के कारण ललित नारायण मिश्र उस समय भारत सेवक समाज तथा कोसी योजना को समय नहीं दे सके। इसके बाद के घटनाक्रम में जन-सहयोग गौण हो गया और राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता मुखर हो कर सामने आई।

भारत सेवक समाज और उसका काम केवल इंजीनियरों और ठेकेदारों की ही आँख की किरकिरी नहीं था, समय के साथ-साथ उसमें राजनीतिज्ञ भी शामिल होने लगे जिनमें स्वभावगत रूप से विपक्षी पार्टियों के लोग थे और व्यक्तिगत ईष्र्या से सत्ताधारी पार्टी के भी लोग भी शामिल थे।

Path Alias

/articles/saikakae-kaa-dauusaraa-pahalauu

Post By: tridmin
×