शहरों में जल प्रलय का कारण

शहरों में जल प्रलय।
शहरों में जल प्रलय।

मानसूनी सीजन का सिर्फ डेढ़ महीना ही बीता है। अभी ढाई महीने शेष हैं, लेकिन देश के कई हिस्से डूबने लगे हैं। असम और बिहार में नदी जनित बाढ़ ने कोहराम मचा रखा है। लाखों लोग प्रभावित हैं। बच्चे, बुजुर्ग, बीमार, दीव्यांग..। इंसानों की तो बात छोड़िए जानवर भी बेहाल हैं। खेती-किसानों को पानी लील चुका है, जो कुछ घर-गृहस्थी में जमा करके रखा था, उसे भी सहजने में मशक्कत करनी पड़ रही है। जो सुरक्षित स्थान पर पहुँच गए, वे नसीब वाले ठहरे। जो भाग्य और शासन-प्रशासन के भरोसे रहे, उनके रोजमर्रा की जरूरतों को पानी अपने साथ बहा ले गया। अभी तो यह शुरूआत है। कुछ दिन बाद पूर्वी उत्तरप्रदेश सहित देश की अन्य नदियाँ भी खतरे के निशाने से ऊपर पहुँच अपनी विनाशलीला की कहानी लिखेंगी। हम सब मूक अवाक होकर किसी चमत्कार के होने की आस लगाए रहेंगे। एक महीने पहले जिस जल को जीवन का पर्यायवाची माना जाता रहा था, बाढ़ में फंसे लोगों के लिए वही काल का तरल रूप दिख रहा है। यह आलम तब है जब देश के किसी भी हिस्से में अतिवृष्टि जैसे हालात नहीं हैं। मौसम विभाग बता रहा है कि असम और बिहार में बारिश सामान्य है। तो फिर ऐसे हालात हर साल क्यों हो रहे हैं ? दरअसल, एक तो हमने अतिक्रमण करके नदियों का प्रवाह संकरा कर दिया है। रही-सही कसर गाद के जमा होने से उसकी कम होती गहराई पूरा कर दे रही है। पहले नदियों के कैचमेंट में बारिश के पानी को रोकने के स्रोत हुआ करते थे- तालाब, पोखर, झील। अब हम सबके कारनामों ने ऐसा जादू किया कि सब छूमंतर होते गए। लिहाजा बारिश का पानी अब रास्ता बनाता हुआ बरसात के तुरन्त बाद नदियों में जा मिलता है। जो उन्हें उफनने पर विवश करता है। पहले भी यह पानी नदियों तक पहुँचता था, लेकिन वह नियंत्रित होता था। उसे साल भर हम सिंचाई से लेकर तमाम जरूरतों में इस्तेमाल करते थे। भूजल रिचार्ज होता रहता था। जो बचता था, वह नदियों में जाता था। लिहाजा सामान्य बारिश होने पर नदियाँ असामान्य रूप नही दिखा पाती थीं। ऐसी बाढ़ की विभीषिका से बचना है तो किसे बदलना है, नदियों को या हमें। सोचिएगा जरूर। 
 
शहरों में जल प्रलय

जल स्रोतों, झीलों के किनारों और ड्रेनेज चैनल्स के अंधाधुंध कंक्रीटकरण को रोक कर हम अपने शहरों को भयावह बाढ़ से बचा सकते हैं।
 
श्रीनगर
सितम्बर, 2014 में आई जल प्रलय ने बड़ा सवाल खड़ा किया। एक अध्ययन के मुताबिक श्रीनगर में बाढ़ से हुई तबाही का प्रमुख कारण वहाँ की झीलों के खस्ताहाल हुए नेटवर्क के चलते प्राकृतिक ड्रेनेज सिस्टम का खत्म हो जाना है। कैग की एक रिपोर्ट के मुताबिक डल झील का कैचमेंट एरिया 314 वर्ग किमी है। इसमें से 148 वर्ग किमी का क्षेत्रफल भू-कटाव के लिहाज से संवेदनशील है। झील का ओपन एरिया 24 वर्ग किमी से घटकर 12 वर्ग किमी हो चुका है और इसकी औसत गहराई भी कम होकर तीन मीटर रह गई है। इसके चलते बाढ़ के पानी को प्राकृतिक रूप से निकालने की झील की क्षमता पर बुरा असर पड़ा है। वर्तमान में लगातार दो-तीन दिन की बारिश में श्रीनगर शहर झेलम के पानी से डूबने लगता है। अब ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि शहर में बाढ़ के अतिरिक्त पानी को जमा करने के लिए शायद ही कोई वेटलैंड बचा हो। 50 फीसद जल निकाय खत्म हो चुके हैं। झेलम नदी बेसिन के जंगलों के कटने से वहाँ की अधिकांश झीलों और जल निकायों में बालू का जमाव बढ़ा है।
 
मुम्बई

घटना - बात जुलाई 2005 की है। इस दिन मुम्बई को प्रकृति से छेड़छाड़ का बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ा। 24 घंटे के भीतर शहर में 900 मिमी से अधिक बारिश हुई। 450 से अधिक लोग मारे गए। बाढ़ के साथ बुखार, डेंगू, डायरिया और कालरा का प्रकोप बढ़ा।

वजह - 1925 में शहर का 60 फीसद रकबा कृषि और जंगलों के लिए था। 1990 में यह क्षेत्रफल आधा हो गया। मानसून की बारिश के पानी को बहाकर अपने साथ ले जाने वाली पूरे शहर में फैली छह धाराएँ और उनके बेसिनों पर सड़कें, भवन और झुग्गियाँ खड़ी हो गई। शहर में एक मीठी नदी हुआ करती थी, 2002-03 के एवायरमेंटल स्टेट्स रिपोर्ट में इसका जिक्र बाढ़ के पानी को निकालने वाले नाले के रूप में किया गया है। अशोधित सीवेज और कचरे ने इसका मार्ग अवरुद्ध किया हुआ है। लिहाजा शहर बार-बार लाचार हो रहा है।

गुवाहाटी

पहाड़ियों से आने वाला बारिश का पानी उनकी तलहटी में स्थित तालाबों में एकत्र होता है। तेजी से हो रहे अतिक्रमण ने ऐसे तालाबों और उन्हें भरने वाले रास्तों को नष्ट कर दिया। लिहाजा बाढ़ यहाँ की एक स्थाई समस्या हो चुकी है। यहाँ केवल अतिक्रमण समस्या नहीं है बल्कि नदियों और जल निकायों का कुप्रबन्धन भी इसमें शामिल होकर इसे भयावह बना रहा है। कूड़े-कचरे से यहाँ के पानी के निकास द्वार और जल निकाय पट रहे हैं। 2000 के बाद शुरू हुए अनियोजित तेज शहरीकरण ने झीलों के आस-पास की जमीन पर कॉलोनियाँ बसा दी हैं। कैचमेंट क्षेत्र से जंगल काटकर उन्हें दोयम दर्जे का बनाया जा रहा है। लिहाजा कैचमेंट में बालू का तेज जमाव हो रहा है।

हैदराबाद

यह शहर अपने जल निकायों को तेजी से खो रहा है। 1989 और 2001 के बीच जल निकायों का 3245 हेक्टेयर रकबा खत्म हो गया। यह क्षेत्रफल जल की प्रमुख जल संरचना हुसैन सागर से दस गुना अधिक है। शहर की प्रमुख नदी मुसी का बाढ़ क्षेत्र अतिक्रमण का शिकार हो चला है।

बेंगलुरु

1960 में इस शहर में 262 झीलें थीं, लेकिन आज इनमें से केवल दस में पानी है। इस शहर में दोनों तरह की अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम झीलें थीं। अपस्ट्रीम झीलें डाउनस्ट्रीम झीलों को विभिन्न नालों द्वारा बाढ़ के पानी से समृद्ध करती थीं। अब अधिकांश नालों का अतिक्रमण हो चुका है। अपस्ट्रीम झीलों के लिए अतिरिक्त पानी की निकासी बन्द होने के चलते शहर में बाढ़ के हालात पैदा हो रहे हैं।
 
कमजोर कड़ी

विशेषज्ञों के अनुसार शहरों के जल निकाय जमीनी मालिकानी वाली कई एजेंसियों के अधीन होते हैं। इनमें राजस्व विभाग, मत्स्य विभाग, शहरी विकास विभाग, सार्वजनिक निर्माण विभाग, नगर निकाय और पंचायतें आदि शामिल होते हैं। ये विभाग इन जल निकायों को खा जाते हैं और अपने इस कारनामे को भू उपयोग में बदलाव लाकर अंजाम देते हैं। इसके अलावा जानकारों का यह भी मानना है कि चूंकि ज्यादातर जल निकाय सूखे होते हैं, लिहाजा उनका अतिक्रमण ज्यादा आसान होता है। उनके सूखने के पीछे का मर्म यह है कि जल निकाय और उनका कैचमेंट एरिया दो विभागों के अधीन आता है। लिहाजा हितों के परस्पर टकराव के चलते जल निकाय का रखरखाव मुश्किल होता है और वे सूख जाते हैं। इस सन्दर्भ में विशेषज्ञ यह सुझाव भी देते हैं कि जल निकाय किसी एक अलग विभाग के तहत आने चाहिए।

कम हो रही दलदलीय जमीन

श्रेणी  

1911 में क्षेत्रफल  

(हेक्टेयर)

    2004 में क्षेत्रफल

(हेक्टेयर)

खुली जलीय जमीन    4000.50 3058.88
नम/दलदली जमीन    13425.90 6407.14
निर्माण वाली जमीन   1745.73 10791.60
अन्य 50505.90 49426.70

जल निकायों का संरक्षण

इस दिशा में गुवाहाटी और कोलकाता ने कदम उठाए हैं। गुवाहाटी में राज्य सरकार एक कानून बनाकर वैट लैड्स और उसके इर्द-गिर्द की जमीन को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रही है। इसी आशय के कानून कोलकाता, केरल और आन्ध्रप्रदेश सरकार ने भी बना रखे हैं।

क्या कहता है कानून

संविधान का अनुच्छेद 48 ए कहता है, राज्य को पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए उसमे सुधार की कोशिश करनी चाहिए और वह देश के समस्त जीव-जन्तुओं और जंगलों को सुरक्षा प्रदान करें। इसी तरह संविधान के 51 ए अनुच्छेद में प्रत्येक नागरिक का यह मूल कर्तव्य है कि वह जंगलों, झीलों, नदियों और वन्य जीवों समेत प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करें और उनमें सुधार करें। सभी सजीवों के प्रति उसमें करुणा, सहानुभूति का भाव होना चाहिए।
 

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Post By: Shivendra
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