देश में जहां भी कहीं उद्योग के लिए जमीन ली जा रही है या जल-संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, वहां के किसान, गांव वाले जान तक देने पर उतारू हैं। कई ऐसी घटनाएं घट चुकी है जहां आंदोलनकारियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाइयां की गईं। कई लोग घायल हो चुके हैं, आंदोलकारियों के मन में निराशा है। स्थिति इस दिशा की ओर बढ़ चली है कि आज लाखों लोगों का राज्य शासन से और राजकर्ताओं से भरोसा उठ चला है।सिक्किम में पन-बिजली की ग्यारह योजनाओं पर काम चल रहा था। लेकिन लोगों के विरोध के आगे झुकते हुए सरकार ने इन सब पर काम रोक दिया है। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में भी बन रहे बांधों के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं। पिछले दिनों उत्तराखंड में गंगा पर बनाई जा रही दो जल विद्युत परियोजनाओं को भी स्थगित कर दिया गया है। हिमाचल प्रदेश में तो बांध इतने बदनाम हो चुके हैं कि वहां पिछले विधान सभा चुनाव में पहली बार प्रत्याशियों को ये वादे करने पड़े कि वे जीत गए तो इन बांधों को नहीं बनने देंगे। इस तरह वहां सचमुच इन्हीं वादों के बल पर चुनाव जीता गया।
देश के और भी कई भागों में कोयले से बनने वाली बिजली से लेकर कई तरह की खदानों से जुड़ी बहुत सारी अन्य परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं। दक्षिण कोरियाई कंपनी पास्को के लौह खदान व इस्पात संयंत्र आंदोलनकारियों के निशाने पर हैं। फिर भी हमारे प्रधानमंत्री ने दक्षिण कोरियाई प्रधानमंत्री से वादा किया है कि ये परियोजनाएं आने वाले महीनों में गति पकड़ लेंगी। लेकिन लोग हैं कि जिद पर अड़े हुए हैं। वे अपनी जमीन व अपने सहज जीवन को दांव पर नहीं लगाना चाहते। मुआवजा जैसे शब्दों से उनका भरोसा उठ चुका है। महाराष्ट्र के रत्नागिरि में प्रस्तावित ताप बिजली परियोजना के खिलाफ वहां के आम उत्पादक किसान उठ खड़े हुए हैं।
देश में जहां भी कहीं उद्योग के लिए जमीन ली जा रही है या जल-संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, वहाँ के किसान, गांव वाले जान तक देने पर उतारू हैं। कई ऐसी घटनाएं घट चुकी है जहां आंदोलनकारियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाइयां की गईं। कई लोग घायल हो चुके हैं, आंदोलनकारियों के मन में निराशा है। स्थिति इस दिशा की ओर बढ़ चली है कि आज लाखों लोगों का राज्य शासन से और राजकर्ताओं से भरोसा उठ चला है। यह संख्या कल बढ़ भी सकती है। इसलिए हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि ये आंदोलन ऐसे नहीं हैं, जिन्हें बाहरी ताकतों द्वारा विकास, प्रगति के दुश्मनों द्वारा खाद-पानी दिया जा रहा हो। ये आंदोलन स्वस्फूर्त हैं। कलिंग नगर में टाटा की एक परियोजना के खिलाफ आंदोलन में कई किसानों को जान से हाथ धोना पड़ा था। वह आंदोलन न तो नक्सलवादी था और न राष्ट्रविरोधी ही। वह तो गांव के सीधे-सादे किसान का आंदोलन था। उनके भीतर यह धारणा पक्की हो गई थी कि आधुनिक युग की इस व्यवस्था में जीने के लायक उनके पास क्षमता नहीं है। वे इससे पहले बनीं योजनाओं और उनसे उजड़े अपने आस-पड़ोस के विस्थापितों को देख चुके हैं। मुआवजे के रूप में पैसे व नौकरियों के जो वादे किए गए थे, वे कभी पूरे नहीं हो पाए थे। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि यह आधुनिक विकास उन्हें दीन-हीन बना देगा। गोवा कि स्थिति भी ठीक ऐसी ही है। वहां गांव-गांव में लोग ताकतवर खदान लॉबी के साथ जूझ रहे हैं। खदानों के कचरे और मलबे से उनके खेतों का सत्यानाश हो गया है। उनके पानी के स्रोत सूख गए हैं। अब गोवा के ये लोग तो अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा पढ़े-लिखे व क्षमतावान भी हैं, संपन्न भी। फिर भी ये खान मालिकों के ट्रक वहां नहीं देखना चाहते। वे अपनी जमीन में खदान नहीं बल्कि लहलहाती फसलें देखना चाहते हैं।
इस पूरी समस्या की जड़ यह है कि हम इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाते कि नौकरियों का वादा करने के बाद भी किसान अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते। योजना बनाने वाले, सरकारें सिर्फ उनकी गरीबी देखती हैं। लेकिन उनकी गरीबी के कारणों को कोई नहीं समझना चाहता। सच्चाई तो यह है कि यह आलेख हम सबके बारे में है। कुछ देरी से ही सही पर अब यहां बताना जरूरी है कि यह लेख उन लोगों के बारे में नहीं है। बांध, कारखाने, बिजली घर तो हमें चाहिए। हम इन सबको अपने विकास के लिए देश के विकास के लिए जरूरी मानते हैं। इसलिए हम किसानों की बात को समझने की कोई कोशिश ही नहीं कर पाते। हम अपने तरीके से इस विचित्र विकास के रास्ते तेजी के साथ तय करते जा रहे हैं। हमारे इस सफर में कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए।
आधुनिक युग की इस व्यवस्था में जीने के लायक उनके पास क्षमता नहीं है। वे इससे पहले बनीं और उनसे उजड़े अपने आस-पड़ोस के विस्थापितों को देख चुके हैं। मुआवजे के रूप में पैसे व नौकरियों के जो वादे किए गए थे, वे कभी पूरे नहीं हो पाए थे। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि यह आधुनिक विकास उन्हें दीन-हीन बना देगा।कानूनी अड़चन आती हो तो हम सब चाहेंगे कि उद्योगों को लगाने की अनुमति देने के लिए इधर-उधर भटकने के बदले ‘एकल खिड़की’ व्यवस्था लागू हो जाए। उद्योग लगाने वाले का सारा सरकारी काम एक ही जगह पूरा हो जाए। इसमें पर्यावरण के कानून भी अड़चन न डालें। उन्हें कमजोर करना पड़े तो कमजोर कर दें, बदलना जरूरी हो तो वैसा करें। इसलिए इन पेचों से परेशान हमारी सरकार ने पिछले साल पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के आकलन से जुड़े अनेक कायदे-कानून बदल डाले हैं। ये सारे कदम उद्योगों को पास करने के रास्ते में लालफीताशाही की मुश्किलों को खत्म करने व कागजी काम को जल्द निपटाने के ख्याल से उठाए गए थे। लेकिन इससे नई मुसीबत पैदा हो गई।
आज सभी खदान परियोजनाओं को बगैर किसी रुकावट के पास करने का दबाव पैदा हो गया है। देश के विकास के लिए बिजली चाहिए। इसलिए बिजली घरों को तो पर्यावरण नियमों से पूरी तरह मुक्त करने की आवाजें उठने लगी हैं। और तो और, जमीन-जायजाद का ताकतवर गुट भी अब मॉल, आवासीय कालोनियों व अन्य किस्म की शहरी परियोजनाओं को पर्यावरण विभाग से प्रमाणित करवाने जैसी बेमतलब की झंझटों से मुक्त करने की मांग करने लगा है।
हम सब भी प्रमाण पत्र देने वाली संस्थाओं को भ्रष्ट व अयोग्य बता कर एक तरह से इन मांगों को ठीक ही ठहराते हैं। हम नहीं कहते कि ये संस्थाएं इसलिए भ्रष्ट हो गई हैं क्योंकि हमने अपनी सुविधाओं के लिहाज से ही नियम-कानून को बढ़ावा दिया है। हम यह कभी नहीं कहते कि किसी औद्योगिक इकाई का पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का कागजी आकलन झूठा है या कि उस इकाई का सही आकलन करने के बदले, उसे सीधे पास करने के लिए हमने आकलन करने वाले अधिकारी को रिश्वत दी है। हम ये मांग भी नहीं करते कि इस संस्था को अपना काम ठीक से पूरा करने के लिए ज्यादा अच्छे लोग, ज्यादा सुविधा और ज्यादा आजादी दी जाना चाहिए।
इन सब प्रसंगों में हम धीरज खो बैठते हैं साथ ही हम अपनी मानवता भी खो देते हैं। आज लोग एक गंदी लड़ाई में उलझते हुए हैं और हम सारे यत्न कर लेने के बाद भी इस झगड़े को शांत नहीं करा पा रहे। इससे लड़ने को या सुलझाने का हमारा तरीका बिल्कुल घिसा-पिटा है। पहले हम नेताओं को साधते हैं। यदि हम उन्हें अपने पक्ष में नहीं कर पाते तो फिर उन्हें धमकाते हैं। यदि यह तरकीब विफल होती है तो हम राज्य की नजरों से बचते हुए आंदोलन शुरू कर देते हैं।
हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि हमारे ये तरीके कारगर नहीं साबित हो रहे हैं। हां, कभी-कभी हमें कुछ मामलों में सफलता जरूर मिल जाती है। लेकिन हम अपने खुद के आंगन में ईर्ष्या, क्रोध व नफरत को जन्म दे देते हैं। हमें इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि ये प्रश्न कोई समय काटने वाले चालू प्रश्न नहीं हैं। ये तो जीवन-मरण के सवाल से जुड़े हुए प्रश्न हैं। हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी का जीवन जल, जंगल और जमीन पर टिका हुआ है। समाज का यह बड़ा भाग इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि एक बार ये संसाधन गए नहीं कि उसके पास जीने का दूसरा रास्ता नहीं रह जाएगा।
इसलिए ऐसे आंदोलनों में बांध, कारखानों आदि के विरुद्ध उठने वाले आंदोलनों में किसी कपटपूर्ण समाधान के लिए कोई जगह नहीं है। इन मूल समस्याओं को बाद के लिए टाल देने से काम चलेगा नहीं। हमारी सरकारें उनके साथ व उनके पर्यावरण के साथ जिस तरीके से पेश आ रही हैं, उसे बदलना ही होगा। पर तब तो इसके लिए हमें अपनी जरूरतों को सीमित करना पड़ेगा। हमारे द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक-एक इंच जमीन, एक-एक बूंद पानी और खोदे जाने वाले एक-एक मुट्ठी खनिज, कोयले आदि का हमें हिसाब रखना होगा।
यदि इन सब से हमारा आपका जीवन चलता है तो इन पर टिके समाज को इस लाभ में सम्मान के साथ हिस्सेदार बनाना होगा। हमें इस लाभ के बंटवारे की नई व्यवस्था विकसित करनी होगी। यदि हम सुन सकें और सीख सकें तो पर्यावरण का यह पाठ सिर्फ हमें ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को यह बता सकता है कि इस धरती पर धमाचौकड़ी करने के बदले सहज तरीके से कैसे चला जाए। क्या हम अपनी चाल बदलने को तैयार हैं?
सुनीता नारायण सेंटर फॉर साईंस एंड एनवार्यमेंट की निदेशक और ‘डाउन टू अर्थ’ नाम के अंग्रेजी पत्रिका की संपादिका हैं।
देश के और भी कई भागों में कोयले से बनने वाली बिजली से लेकर कई तरह की खदानों से जुड़ी बहुत सारी अन्य परियोजनाओं के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं। दक्षिण कोरियाई कंपनी पास्को के लौह खदान व इस्पात संयंत्र आंदोलनकारियों के निशाने पर हैं। फिर भी हमारे प्रधानमंत्री ने दक्षिण कोरियाई प्रधानमंत्री से वादा किया है कि ये परियोजनाएं आने वाले महीनों में गति पकड़ लेंगी। लेकिन लोग हैं कि जिद पर अड़े हुए हैं। वे अपनी जमीन व अपने सहज जीवन को दांव पर नहीं लगाना चाहते। मुआवजा जैसे शब्दों से उनका भरोसा उठ चुका है। महाराष्ट्र के रत्नागिरि में प्रस्तावित ताप बिजली परियोजना के खिलाफ वहां के आम उत्पादक किसान उठ खड़े हुए हैं।
देश में जहां भी कहीं उद्योग के लिए जमीन ली जा रही है या जल-संसाधनों का दोहन किया जा रहा है, वहाँ के किसान, गांव वाले जान तक देने पर उतारू हैं। कई ऐसी घटनाएं घट चुकी है जहां आंदोलनकारियों के खिलाफ हिंसक कार्रवाइयां की गईं। कई लोग घायल हो चुके हैं, आंदोलनकारियों के मन में निराशा है। स्थिति इस दिशा की ओर बढ़ चली है कि आज लाखों लोगों का राज्य शासन से और राजकर्ताओं से भरोसा उठ चला है। यह संख्या कल बढ़ भी सकती है। इसलिए हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि ये आंदोलन ऐसे नहीं हैं, जिन्हें बाहरी ताकतों द्वारा विकास, प्रगति के दुश्मनों द्वारा खाद-पानी दिया जा रहा हो। ये आंदोलन स्वस्फूर्त हैं। कलिंग नगर में टाटा की एक परियोजना के खिलाफ आंदोलन में कई किसानों को जान से हाथ धोना पड़ा था। वह आंदोलन न तो नक्सलवादी था और न राष्ट्रविरोधी ही। वह तो गांव के सीधे-सादे किसान का आंदोलन था। उनके भीतर यह धारणा पक्की हो गई थी कि आधुनिक युग की इस व्यवस्था में जीने के लायक उनके पास क्षमता नहीं है। वे इससे पहले बनीं योजनाओं और उनसे उजड़े अपने आस-पड़ोस के विस्थापितों को देख चुके हैं। मुआवजे के रूप में पैसे व नौकरियों के जो वादे किए गए थे, वे कभी पूरे नहीं हो पाए थे। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि यह आधुनिक विकास उन्हें दीन-हीन बना देगा। गोवा कि स्थिति भी ठीक ऐसी ही है। वहां गांव-गांव में लोग ताकतवर खदान लॉबी के साथ जूझ रहे हैं। खदानों के कचरे और मलबे से उनके खेतों का सत्यानाश हो गया है। उनके पानी के स्रोत सूख गए हैं। अब गोवा के ये लोग तो अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा पढ़े-लिखे व क्षमतावान भी हैं, संपन्न भी। फिर भी ये खान मालिकों के ट्रक वहां नहीं देखना चाहते। वे अपनी जमीन में खदान नहीं बल्कि लहलहाती फसलें देखना चाहते हैं।
इस पूरी समस्या की जड़ यह है कि हम इस बात पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाते कि नौकरियों का वादा करने के बाद भी किसान अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते। योजना बनाने वाले, सरकारें सिर्फ उनकी गरीबी देखती हैं। लेकिन उनकी गरीबी के कारणों को कोई नहीं समझना चाहता। सच्चाई तो यह है कि यह आलेख हम सबके बारे में है। कुछ देरी से ही सही पर अब यहां बताना जरूरी है कि यह लेख उन लोगों के बारे में नहीं है। बांध, कारखाने, बिजली घर तो हमें चाहिए। हम इन सबको अपने विकास के लिए देश के विकास के लिए जरूरी मानते हैं। इसलिए हम किसानों की बात को समझने की कोई कोशिश ही नहीं कर पाते। हम अपने तरीके से इस विचित्र विकास के रास्ते तेजी के साथ तय करते जा रहे हैं। हमारे इस सफर में कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए।
आधुनिक युग की इस व्यवस्था में जीने के लायक उनके पास क्षमता नहीं है। वे इससे पहले बनीं और उनसे उजड़े अपने आस-पड़ोस के विस्थापितों को देख चुके हैं। मुआवजे के रूप में पैसे व नौकरियों के जो वादे किए गए थे, वे कभी पूरे नहीं हो पाए थे। वे इस बात को भी अच्छी तरह समझते थे कि यह आधुनिक विकास उन्हें दीन-हीन बना देगा।कानूनी अड़चन आती हो तो हम सब चाहेंगे कि उद्योगों को लगाने की अनुमति देने के लिए इधर-उधर भटकने के बदले ‘एकल खिड़की’ व्यवस्था लागू हो जाए। उद्योग लगाने वाले का सारा सरकारी काम एक ही जगह पूरा हो जाए। इसमें पर्यावरण के कानून भी अड़चन न डालें। उन्हें कमजोर करना पड़े तो कमजोर कर दें, बदलना जरूरी हो तो वैसा करें। इसलिए इन पेचों से परेशान हमारी सरकार ने पिछले साल पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के आकलन से जुड़े अनेक कायदे-कानून बदल डाले हैं। ये सारे कदम उद्योगों को पास करने के रास्ते में लालफीताशाही की मुश्किलों को खत्म करने व कागजी काम को जल्द निपटाने के ख्याल से उठाए गए थे। लेकिन इससे नई मुसीबत पैदा हो गई।
आज सभी खदान परियोजनाओं को बगैर किसी रुकावट के पास करने का दबाव पैदा हो गया है। देश के विकास के लिए बिजली चाहिए। इसलिए बिजली घरों को तो पर्यावरण नियमों से पूरी तरह मुक्त करने की आवाजें उठने लगी हैं। और तो और, जमीन-जायजाद का ताकतवर गुट भी अब मॉल, आवासीय कालोनियों व अन्य किस्म की शहरी परियोजनाओं को पर्यावरण विभाग से प्रमाणित करवाने जैसी बेमतलब की झंझटों से मुक्त करने की मांग करने लगा है।
हम सब भी प्रमाण पत्र देने वाली संस्थाओं को भ्रष्ट व अयोग्य बता कर एक तरह से इन मांगों को ठीक ही ठहराते हैं। हम नहीं कहते कि ये संस्थाएं इसलिए भ्रष्ट हो गई हैं क्योंकि हमने अपनी सुविधाओं के लिहाज से ही नियम-कानून को बढ़ावा दिया है। हम यह कभी नहीं कहते कि किसी औद्योगिक इकाई का पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का कागजी आकलन झूठा है या कि उस इकाई का सही आकलन करने के बदले, उसे सीधे पास करने के लिए हमने आकलन करने वाले अधिकारी को रिश्वत दी है। हम ये मांग भी नहीं करते कि इस संस्था को अपना काम ठीक से पूरा करने के लिए ज्यादा अच्छे लोग, ज्यादा सुविधा और ज्यादा आजादी दी जाना चाहिए।
इन सब प्रसंगों में हम धीरज खो बैठते हैं साथ ही हम अपनी मानवता भी खो देते हैं। आज लोग एक गंदी लड़ाई में उलझते हुए हैं और हम सारे यत्न कर लेने के बाद भी इस झगड़े को शांत नहीं करा पा रहे। इससे लड़ने को या सुलझाने का हमारा तरीका बिल्कुल घिसा-पिटा है। पहले हम नेताओं को साधते हैं। यदि हम उन्हें अपने पक्ष में नहीं कर पाते तो फिर उन्हें धमकाते हैं। यदि यह तरकीब विफल होती है तो हम राज्य की नजरों से बचते हुए आंदोलन शुरू कर देते हैं।
हमें इस बात को समझ लेना चाहिए कि हमारे ये तरीके कारगर नहीं साबित हो रहे हैं। हां, कभी-कभी हमें कुछ मामलों में सफलता जरूर मिल जाती है। लेकिन हम अपने खुद के आंगन में ईर्ष्या, क्रोध व नफरत को जन्म दे देते हैं। हमें इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए कि ये प्रश्न कोई समय काटने वाले चालू प्रश्न नहीं हैं। ये तो जीवन-मरण के सवाल से जुड़े हुए प्रश्न हैं। हमारे देश की एक बहुत बड़ी आबादी का जीवन जल, जंगल और जमीन पर टिका हुआ है। समाज का यह बड़ा भाग इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि एक बार ये संसाधन गए नहीं कि उसके पास जीने का दूसरा रास्ता नहीं रह जाएगा।
इसलिए ऐसे आंदोलनों में बांध, कारखानों आदि के विरुद्ध उठने वाले आंदोलनों में किसी कपटपूर्ण समाधान के लिए कोई जगह नहीं है। इन मूल समस्याओं को बाद के लिए टाल देने से काम चलेगा नहीं। हमारी सरकारें उनके साथ व उनके पर्यावरण के साथ जिस तरीके से पेश आ रही हैं, उसे बदलना ही होगा। पर तब तो इसके लिए हमें अपनी जरूरतों को सीमित करना पड़ेगा। हमारे द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली एक-एक इंच जमीन, एक-एक बूंद पानी और खोदे जाने वाले एक-एक मुट्ठी खनिज, कोयले आदि का हमें हिसाब रखना होगा।
यदि इन सब से हमारा आपका जीवन चलता है तो इन पर टिके समाज को इस लाभ में सम्मान के साथ हिस्सेदार बनाना होगा। हमें इस लाभ के बंटवारे की नई व्यवस्था विकसित करनी होगी। यदि हम सुन सकें और सीख सकें तो पर्यावरण का यह पाठ सिर्फ हमें ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को यह बता सकता है कि इस धरती पर धमाचौकड़ी करने के बदले सहज तरीके से कैसे चला जाए। क्या हम अपनी चाल बदलने को तैयार हैं?
सुनीता नारायण सेंटर फॉर साईंस एंड एनवार्यमेंट की निदेशक और ‘डाउन टू अर्थ’ नाम के अंग्रेजी पत्रिका की संपादिका हैं।
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