दुनिया में 1720, 1820 और 1920 में भी महामारी फैली थी, जिससे करोड़ों लोगों की जान गई थी। अब दो लाख से ज्यादा लोगों की जान ले चुके ‘कोरोना वायरस’ को भी दुनियाभर में महामारी घोषित किया गया है। संक्रमितों और मरने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है। भारत में भी महामारी फैलने लगी है, लेकिन भारत ने इससे पहले भी 1940 में हैजा के रूप में भी महामारी देखी थी। तो वहीं, 1994 में प्लेग के कारण गुजरात के सूरत की 25 प्रतिशत आबादी ने शहर छोड़ दिया था। इनमें चिकित्सक और केमिस्ट्स भी शामिल थे। सत्याग्रह की एक रिपोर्ट के अनुसार प्लेग के कारण 1994 में देश को 1800 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। इन महामारियों का संबंध भी कहीं न कहीं स्वच्छता से ही था। साफ पानी के बिना स्वच्छता संभव नहीं है, इसलिए इन बीमारियों को जल प्रदूषण से प्रत्यक्ष तौर पर जोड़ा जा सकता है, लेकिन फिर भी आज तक गंदगी और जल संकट को महामारी घोषित नहीं किया गया। भारत में इसे महामारी घोषित करने की जरूरत ज्यादा है।
130 करोड़ से ज्यादा आबादी वाला भारत विभिन्नताओं से भरा है। कभी पानीदार रहा भारत, आज भीषण जल संकट से जूझ रहा है। जलशक्ति मंत्रालय के राज्यमंत्री रतन लाल कटारिया ने लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए बताया था कि ‘‘देश के 17 करोड़ 78 लाख 31 हजार लोगों को निर्धारित 40 लीटर प्रतिदिन से कम पानी मिल रहा है, जबकि 3 करोड़ 1 लाख 68 हजार ग्रामीण दूषित पानी पी रहे हैं।’’ एक समय पर भारत में 24 लाख तालाब हुआ करते थे, लेकिन 5वें माइनर इरीगेशन सेंसस (2013-14) के आंकड़ें बताते हैं कि ‘भारत में करीब 2 लाख 14 हजार 715 तालाब हैं।’ यानी लगभग 22 लाख तालाब विलुप्त हो चुके हैं। जो तालाब बचे हैं, उनमे से अधिकांश प्रदूषित हैं। 4500 से ज्यादा छोटी बड़ी नदियां सूख चुकी हैं। 60 प्रतिशत स्प्रिंग्स भी सूख चुके हैं। वाॅटर फोरम की रिपोर्ट के मुताबित भारत में हर दिन करीब 40 लाख लीटर गंदा पानी नदियों और अन्य जल स्रोतों में बहाया जाता है। जिस कारण देश में 70 प्रतिशत सतही जल पीने के लायक नहीं है। नीति आयोग की रिपोर्ट भी कहती है कि ‘‘देश के 60 करोड़ लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता है।’’ ऐसे में गंदे पानी के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों के कारण भारत में हर साल करीब 3 लाख लोगों की मौत होती है। अकेले डायरिया के कारण 2016 में भारत में 1 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। ऐसे में जल प्रदूषिण के कारण विभिन्न बीमारियां देश में जन्म ले रही हैं।
जल संकट के अलावा ‘गंदगी’ भी भारत की एक बड़ी समस्या है। महात्मा गांधी का सपना ‘‘स्वच्छत भारत’’ का था। महात्मा गांधी के सपने को ही आगे बढ़ाते हुए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत की गई। स्वच्छता की ओर कदम बढ़ाते हुए वर्ष 2014 से अबतक 10 करोड़ 28 लाख 67 हजार 271 शौचालयों का निर्माण करवाया गया है। 6 लाख 3 हजार 175 गांवों और 706 जिलों को देशभर में खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया है, लेकिन इनमें से अधिकांश की हकीकत धरातल पर सरकारी फाइलों से भिन्न है। बड़े पैमाने पर खुले में शौच किया जाता है। भारत में जिस माॅडल पर शौचालयों का निर्माण और सीवर का पानी शोधित किया जाता है, वो गंदगी और जल प्रदूषण को और बढ़ा रहा है। क्योंकि सीवर का गंदा पानी कच्चे या पक्के गड्ढों में रिसते हुए भूजल तक चली जाती है या ये गड्ढ़े किसी न किसी जल स्रोत के पास खुलते है या उनके समीप हैं।
सोपान जोशी ने अपनी पुस्तक ‘जल थल मल’ में लिखा है कि ‘‘ज्यादातर लोगों द्वारा फ्लश कमोड का मैला पानी किसी पक्के या कच्चे गड्ढे में डाल दिया जाता है। जमीन के नीचे किसी अंधे कुएं में जाकर उसकी उर्वरता तो बेकार हो ही जाती है, भूजल भी दूषित होता है। यह प्रदूषण दिखता नहीं है। जो अदृश्य हो उसकी चिंता भी कम ही होती है। सीवर के मैले पानी से होने वाला जल प्रदूषण आमतौर पर आंखों से दूर रहता है। जो दिखाई देता है, वह सड़कों और खुले इलाकों के आसपास पड़ा मल, यहां वहां खुले में मल त्याग करने बैठे लोग। हमारी सरकारों का ध्यान खुले में मलत्याग रोकने के लिए शौचालय बनाने में ज्यादा है, उन शौचालयों से होने वाले जल प्रदूषण की ओर एकदम नहीं है।’’ सोपान जोशी लिखते हैं कि ‘‘सरकारी मदद जिस तरह शौचालय बनाने के लिए मिलती है, उनकी रूपरेखा एक खाके से निकली हुई होती है। उनमें देश की विविधता की झलक नहीं होती, किसी स्थान विशेष की परिस्थिति भी नहीं।’’
इन परिस्थितियों में भी हम देश की जनता से स्वच्छता बनाए रखने और साफ पानी से नियमित तौर पर हाथ धोने की अपील कर रहे हैं। इस कार्य के लिए विज्ञापनों और विभिन्न माध्यमों पर लाखों-करोड़ों रुपया खर्च किया जा रहा है, लेकिन ये विचारणीय प्रश्न है कि जहां साफ पानी नहीं है, वहां हाथ धोना कितना कारगर रहेगा ? जिन इलाकों में पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं हैं, वहां लोग खाने और पीने के लिए पानी का उपयोग करें, या स्वच्छता के लिए ? स्वच्छता के लिए पानी का उपयोग कर भी लें, लेकिन शौचालयों के लिए पानी ज्यादा लगता है। इतना पानी कैसे उपलब्ध कराया जाएगा ? यदि पानी उपलब्ध भी कराया जाता है, तो शौचालयों का उपयोग करने लिए व्यवहार परिवर्तन आज भी बड़ी चुनौती है। मलिन बस्तियों में खुले में शौच को रोक पाने में सरकारें पूरी तरह से विफल रही हैं। यहां केवल शौच ही नहीं, बल्कि गंदगी का भी सैलाब है। इस गंदगी को बढ़ाने में हमारे नगर निकाय बड़ा योगदान देते हैं, क्योंकि कूड़े का शोधन करने वाले पर्याप्त प्लांट न होने के कारण कूड़ा खुले डंपिंग यार्ड में फेंक दिया जाता है। पहाड़ी इलाकों में ये नदियों और वादियों में पड़ा रहता है। दिल्ली में कूड़े का पहाड़ दुनिया भर में प्रसिद्ध है। ऐसी परिस्थितियों में हम कैसे महामारियों से बचने की कल्पना कर सकते हैं। यदि भविष्य में हमें इन महामारियों से बचना है तो जल संकट और गंदगी को ही महामारी घोषित करना होगा। क्योंकि बीमारियों के रूप में महामारी आती हैं, और चली जाती हैं। जल संकट और गंदगी हमारे साथ हमेशा से है। ये समस्या हर साल बढ़ रही है। यदि समय पर हम नहीं संभले तो स्थिति नियंत्रण के बाहर होगी। इसलिए, जिस प्रकार कोरोना से लड़ने के लिए एकजुटता दिखाते हुए युद्ध स्तर पर कार्य किया जा रहा है, उसी प्रकार जल संकट और गंदगी से निपटना होगा। इसी प्रकार की सख्ती अपनानी होगी। साथ ही पर्यावरण संरक्षण प्राथमिकता होनी चाहिए। तभी हर कोई सुरक्षित रहेगा।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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