शौचालय मुहैया करा देने से ही सेनिटेशन नहीं आ जाता

आजादी के 64 साल बाद भी देश के सिर्फ 47 प्रतिशत घरों में ही शौचालय की सुविधा मौजूद है। बाकी 53 प्रतिशत यानी देश की आधे से भी ज्यादा जनता खुले में ही निवृत होने को मजबूर हैं। हालांकि पिछले 10 सालों में, इसमें 13 प्रतिशत का सुधार हुआ है। 2001 में सिर्फ 34 प्रतिशत घरों में ही शौचालय था। लेकिन स्थिति अब भी कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। महज शौचालय मुहैया करा देने से ही काम पूरा नहीं जाता उसके लिए जरूरी है कि लोगों में चेतना भी आए बता रही हैं श्रीलता मेनन।

मध्यप्रदेश में करीब 54,000 मकानों का निर्माण हुआ उसमें से करीब 53,000 मकानों में शौचालयों का भी निर्माण किया गया। वहीं उत्तर प्रदेश में कुल 165,000 आवास का निर्माण किया गया लेकिन इसमें से आधे मकानों में ही शौचालय निर्मित किए जा सके। आखिर लोग शौचालय के निर्माण पर पैसे क्यों नहीं खर्च करना चाहते जबकि उनके पास मोबाइल खरीदने के लिए पैसा होता है? ग्रामीण भारत की करीब 54.4 फीसदी आबादी मोबाइल और टेलीफोन का इस्तेमाल करती है जबकि करीब 48 फीसदी ग्रामीण मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं।

वर्ष 2011 के जनगणना के आंकड़ों के विश्लेषण के बाद यह बात सामने आई है कि ग्रामीण भारत में रहने वाली कुल आबादी का करीब 70 फीसदी हिस्सा खुले में शौच करता है। हालांकि सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (एमडीजी) पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर खुले में शौच करने वाले लोगों की कुल संख्या का 60 फीसदी हिस्सा भारत में मौजूद है। यूनिसेफ के मुताबिक भारत के कई राज्यों को अपनी संपूर्ण आबादी के लिए शौचालय की सुविधा विकसित करने में 90 साल से अधिक का समय लग सकता है। हालांकि एमडीजी के तहत उम्मीद की गई है कि इस लक्ष्य को (सभी के लिए शौचालय) वर्ष 2015 तक पूरा कर लिया जाएगा। मध्यप्रदेश और उड़ीसा जैसे राज्यों को इसे हासिल करने में 90 साल का समय लगेगा जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और राजस्थान को अपनी संपूर्ण आबादी के लिए शौचालय की सुविधा मुहैया कराने में करीब 62 सालों का समय लगेगा।

यूनिसेफ इंडिया द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक केवल 17 राज्य पूरी आबादी के लिए शौचालय की सुविधा मुहैया कराने में कामयाब रहे हैं। हालांकि यह जानना दिलचस्प होगा कि न तो यूनिसेफ और न ही भारत सरकार के पास इस बात का जवाब है कि आखिरकार भारतीयों में खुले में शौच करने की प्रवृति क्यों विद्यमान है? जल और शौचालय पर यूनिसेफ इंडिया के विशेषज्ञ एडन क्रोनिन ने बताया कि भारत में प्रति वर्ष करीब 2 करोड़ नए लोग शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें वे भी शामिल हैं जिनके यहां शौचालय नहीं है। उन्होंने बताया कि इसमें गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) रहने वालों के मुकाबले उससे नीचे गुजर बसर करने वाले (बीपीएल) लोगों की अधिक संख्या है।

सरकारी योजनाओं और तथ्य यह है कि बीपीएल भूमिहीन होते हैं और उनके पास खुले में शौच करने का विशेषाधिकार नहीं होता और यह एक वजह हो सकती है कि उन्हें शौचालय का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया गया हो। लेकिन सरकारी योजनाओं के साथ समस्या यह है कि शौचालय निर्माण का काम ग्रामीण विकास मंत्रालय के जिम्मे आता है जबकि गरीबों को ध्यान में रखकर चलाई जाने वाली आवासीय योजना इंदिरा आवास योजना (वर्ष 1985 से शुरू) दोनों ही अलग-अलग तौर पर संचालित होते हैं। इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि जिस व्यक्ति को इंदिरा आवास के तहत मकान मिला हो उसे शौचालय निर्माण की भी सुविधा मिली हो। योजनाओं के क्रियान्वयन में ऐसे अजीब वर्गीकरण के कारण ही वर्ष 1985 से लाखों मकान बिना किसी शौचालय के बनाए गए। दोनों ही सरकारी कार्यक्रम दो अलग-अलग विभागों के तहत आते हैं और राज्यों को इनके क्रियान्वयन के लिए भी स्वतंत्र तरीके से फंड भेजा जाता है।

करीब पांच साल पहले ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इन योजनाओं को कुछ हद तक एक साथ लाने की कोशिश की थी लेकिन किसी राज्य ने इसमें कोई सहयोग नहीं दिया। अधिकारियों ने बताया कि पिछले साल भी मंत्रालय ने इस मामले में दखल देते हुए निगरानी के जरिए यह सुनिश्चित करने की कोशिश की ताकि गरीबों को मकान और शौचालय की सुविधा साथ-साथ मुहैया कराई जा सके। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में इंदिरा आवास योजना के तहत करीब 30 लाख मकानों का निर्माण किया गया लेकिन उनमें से महज 3 लाख मकानों में शौचालय का निर्माण हो पाया। बंगाल में करीब 200,000 मकानों का निर्माण किया गया और इसमें से महज 70,000 घरों को शौचालय की सुविधा मिल सकी। वर्ष 2006-07 के आंकड़ो के मुताबिक इस अवधि में करीब 14 लाख मकानों का निर्माण किया गया और इसमें से आधे मकानों में शौचालय की सुविधा थी। इसे अब तक के सबसे बेहतर प्रदर्शनों में शुमार किया जा सकता है।

इसी साल मध्य प्रदेश में करीब प्रत्येक घर में शौचालय का निर्माण किया गया। इस अवधि के दौरान जहां मध्यप्रदेश में करीब 54,000 मकानों का निर्माण हुआ उसमें से करीब 53,000 मकानों में शौचालयों का भी निर्माण किया गया। वहीं उत्तर प्रदेश में कुल 165,000 आवास का निर्माण किया गया लेकिन इसमें से आधे मकानों में ही शौचालय निर्मित किए जा सके। इन सबके बीच जो चीज सरकार और संयुक्त राष्ट्र को चौंकाती है वह यह है कि आखिर लोग शौचालय के निर्माण पर पैसे क्यों नहीं खर्च करना चाहते जबकि उनके पास मोबाइल खरीदने के लिए पैसा होता है?

ग्रामीण भारत की करीब 54.4 फीसदी आबादी (मोबाइल फोन उपभोक्ता समेत) टेलीफोन का इस्तेमाल करती है जबकि करीब 48 फीसदी ग्रामीण मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। इस अजीब प्रचलन ने एक तरह से नीति निर्माताओं की नींद उड़ा दी है और आखिरकार ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इसके लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वे शौचालय निर्माण के प्रति उत्साह नहीं दिखाती हैं। हालांकि सच्चाई यह है कि ग्रामीण इलाकों में कई लोगों को यह लगता है कि शौचालय की वजह से उनका साफ सुथरा घर प्रदूषित हो जाएगा और उनकी यह धारणा नीति निर्माताओं की समझ से परे है।

शौचालय निर्माण की प्रवृति को प्रोत्साहित करने वाले इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि जल निकासी और ढकी नाली जैसी सुविधा के बगैर शौचालय मुहैया कराना समस्या को और अधिक गंभीर बना सकता है। यह सभी शहरी झुग्गी बस्तियों की समान समस्या है। दुर्भाग्यवश एमडीजी में स्वच्छ परिवेश और ढकी नाली जैसी किसी व्यवस्था को कोई जिक्र नहीं है। एमडीजी के लिए शौचालय का निर्माण ही एकमात्र लक्ष्य है, चाहे उसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

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