शौच पर एक कानूनी सोच

वर्ष 2008 में सरकार ने कहा था कि वर्ष 2015 तक कुल 60 फीसदी भारतीयों की खुले में शौच की समस्या का निराकरण कर लिया जाएगा। 26 से 50 फीसदी भारतीयों की पहुंच साफ-सफाई तक नहीं है, केवल 30 फीसदी लोगों के पास जल निकासी की उचित व्यवस्था है और कुल खराब जल में से 37 फीसदी का उपचार नहीं हो पाता। अनेक इलाकों में शौचालय का पानी जल स्रोतों और नदियों आदि में जा मिलता है। चूंकि उनके बहाव में कमी आई है इसलिए वे नैसर्गिक रूप से इस गंदगी की सफाई भी नहीं कर पाते।

यह बेहद महत्वपूर्ण बात है कि सरकार ने हाथ से कूड़ा, सेप्टिक टैंक तथा मैला आदि साफ करने पर रोक लगाने संबंधी कानून बनाने की शुरुआत की है। यह निंदनीय और अपमानजनक काम देश के नागरिक जीवन पर एक धब्बा है और साथ ही लोगों के सम्मानपूर्वक जीवन जीने के संवैधानिक अधिकार पर भी हमला है। इससे संबंधित मैनुअल स्कैवेंजर्स एंड रिहैबिलिटेशन बिल, 2012 में अधिसूचना जारी किए जाने के 9 महीने के भीतर हाथ से साफ किए जाने वाले सभी शौचालयों को स्वच्छ शौचालयों में बदलने या फिर उनको नष्ट करने की बात कही गई है। इसके क्रियान्वयक की निगरानी राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग करेगा। इसके अलावा सफाई कर्माचारियों को नए प्रशिक्षण दिए जाएंगे और वैकल्पिक रोजगार तलाशने में भी उनकी मदद की जाएगी। हमें वह काम करने में काफी लंबा समय लग गया जो शायद गांधी जी ने आजादी के बाद पहले दशक में ही कर दिया होता। सुलभ शौचालय के बिंदेश्वर पाठक उन चुनिंदा लोगों में शुमार हैं जिन्होंने हालात में सुधार लाने की कोशिश की बहरहाल, सवाल यह है कि क्या मौजूदा विधेयक इस दिशा में इच्छित कामयाबी ला पाएगा?

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरनमेंट ने देश के पर्यावरण से संबंधित अपनी ताजातरीन रिपोर्ट ‘इक्सक्रीट मैटर्स’ में हालात की गंभीरता और बड़ी चुनौती की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कराया है। 71 शहरों के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट में शहरी भारत में जल और सफाई का संकटपूर्ण जायजा लिया गया है। इसके निष्कर्ष बेहद दुखद हैं। इस समय देश की शहरी आबादी तकरीबन 34 करोड़ है जो 2030 तक 40 फीसदी बढ़कर 60 करोड़ हो जाएगी। इस दौरान 68 शहरों की आबादी 10 लाख से अधिक हो जाएगी। हालांकि सरकार का दावा है कि शहरी भारत के 90 फीसदी लोगों की पहुंच स्वच्छ पेयजल तक है जबकि 64 फीसदी की पहुंच सफाई सुविधाओं तक है लेकिन तमाम जगहों पर बिखरी गंदगी देखते हुए पानी की गुणवत्ता चिंता का विषय है।

आंकड़ों में देखा जाए तो कृषि क्षेत्र अब भी कुल उपलब्ध जल का 70 फीसदी इस्तेमाल करता है जबकि उद्योग, नगरीय निकायों आदि के लिए अलग से जल की आवश्यकता होती है। शहरों में होने वाली जलापूर्ति काफी दूर से और कमजोर स्रोतों से होती है। इस बीच बगैर उपचारित जल का इस्तेमाल होता रहता है, पाइप और नलके लीक होते रहते हैं तथा भूजल का अनियंत्रित दोहन हो रहा है और अपर्याप्त शौचालय सुविधाओं के कारण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। पानी का बहाव कम होने के कारण नदियां नालों में बदलती जा रही हैं। ग्रामीण और शहरी इलाकों में बढ़ती असमानता को पानी के आवंटन के मामले में महसूस किया जा सकता है और इसके प्रबंधन की आवश्यकता है।

हालांकि लंबे समय से पानी को किसी आर्थिक महत्व वाली वस्तु के बजाय सामाजिक उपयोग की वस्तु माना जाता रहा है लेकिन विभिन्न राज्यों में पानी के आवंटन, उसके मूल्यांकन और उपचार के मानकों में काफी अंतर है। सरकार में नागरिकों के इस्तेमाल का पानी बाहर से मंगाने की प्रवृत्ति बढ़ गई है या फिर उसे महंगी दरों पर पानी खरीदना पड़ता है अथवा करीब 2000 करोड़ रुपए के बोतलबंद पानी के कारोबार पर निर्भर रहना पड़ता है। जल की उपलब्धता, सफाई और प्रदूषण के मामले में झुग्गी-बस्तियों की हालत सबसे अधिक खराब है। वर्ष 2008 में सरकार ने कहा था कि वर्ष 2015 तक कुल 60 फीसदी भारतीयों की खुले में शौच की समस्या का निराकरण कर लिया जाएगा। 26 से 50 फीसदी भारतीयों की पहुंच साफ-सफाई तक नहीं है, केवल 30 फीसदी लोगों के पास जल निकासी की उचित व्यवस्था है और कुल खराब जल में से 37 फीसदी का उपचार नहीं हो पाता।

अनेक इलाकों में शौचालय का पानी जल स्रोतों और नदियों आदि में जा मिलता है। चूंकि उनके बहाव में कमी आई है इसलिए वे नैसर्गिक रूप से इस गंदगी की सफाई भी नहीं कर पाते। नदियों की सफाई, नाली आदि में सुधार के लिए भारी धन का आवंटन किया गया है लेकिन शहरों में बुनियादी ढांचे में सुधार का यह मतलब कतई नहीं है कि नदियों और जलाशयों तक स्वच्छ उपचारित जल पहुंच रहा है। इस क्रम में चेन्नई का उदाहरण लिया जा सकता है जहां कूम और अदयार नदियां तथा बकिंघम नहर साफ-सफाई में जबर्दस्त निवेश के बावजूद नाबदान में तब्दील हो चुकी हैं। इसके बावजूद राज्य प्रदूषण बोर्ड के मुताबिक 423 जगहों पर औद्योगिक कचरा और मल आदि शहर के जल स्रोतों में जा मिलते हैं। शहर में जलापूर्ति की लागत 13 रुपए प्रतिलीटर पड़ रही है। अगर लीकेज को ध्यान में रखा जाए तो यह दर 17 रुपए हो जाती है।

मैले को शौचालयों से ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचाने के लिए भी बहुत बड़ी मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। हालांकि ऐसे फ्लश डिजाइन किए जा चुके हैं जिनमें कम पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन जरूरत ऐसे शौचालय तैयार करने की है जिनमें गंदगी के निस्तारण के लिए अधिक दूरी न तय करनी पड़े और इसका अपघटन रसायनों आदि के जरिए किया जाए। इस बीच, शिक्षा का अधिकार अधिनियम के पारित होने के चार वर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम के उन प्रावधानों को बरकरार रखा जिनमें कहा गया है कि गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक और बोर्डिंग स्कूलों को छोड़कर छह से 14 वर्ष उम्र के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा सुनिश्चित की जाएगी। यह बाल अधिकार अधिनियम है और संविधान के अनुच्छेद 45 के तहत तो इस पर बहुत पहले अमल कर लिया जाना था? बहरहाल अब सरकार को चाहिए कि वह गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों को अतिरिक्त जवाबदेही वहन करने में सहायता करने को कहे। इसके अलावा पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित शिक्षकों, किताबों और बुनियादी ढांचे की भी व्यवस्था की जानी चाहिए।

(लेखक द इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक हैं।)

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