साफ हाथों का दम

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गंदे हाथ बीमारियों को आमंत्रित करते हैं - यह कहना थोड़ा अचंभित करता है, पर वास्तविकता इससे परे नहीं है। हाथ की सफाई के प्रति बच्चों में जागरूकता का अभाव तो है ही, साथ ही साथ बड़े भी हाथ धोने में कोताही करते हैं। ऐसे में खाने के साथ पेट में कीटाणुओं का जाना मुश्किल नहीं होता, और फिर बीमारी की चपेट में आना स्वाभविक है। गांवों में तो शौच के बाद मिट्टी या राख से हाथ धोने का प्रचलन है। डायरिया जैसी गंभीर बीमारी का एक प्रमुख कारण भी साबुन से हाथ को साफ नहीं करना है। डायरिया बाल मृत्यु का एक बड़ा कारण है। यानी अकेले हाथ को साबुन से धोने की प्रैक्टिस शुरू कर दी जाए, तो डायरिया पर अंकुश के साथ-साथ बाल मृत्यु में भी कमी लाई जा सकती है।

यूनीसेफ के अनुसार, ’’ विश्व में 16 फीसदी बच्चों की मृत्यु डायरिया से होती है। 35 लाख बच्चे डायरिया एवं निमोनिया के कारण अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते। पांच साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चों की मौत डायरिया से होती है, जिसमें से 3,86,600 भारतीय बच्चे होते हैं। भारत में टॉयलेट के बाद या बच्चों की सफाई के बाद मां का हाथ धोने का प्रतिशत बहुत ही कम है, जबकि साबुन से हाथ धोने पर डायरिया होने की संभावना बहुत ही कम हो जाती है। डायरिया से बचने के विभिन्न कारणों में से साबुन से हाथ धोने पर डायरिया होने की संभावना 44 फीसदी कम हो जाती है। साबुन से हाथ धोने से पानी से होने वाली विभिन्न बीमारियों से बचा जा सकता है और यह बहुत खर्चीला काम नहीं है। इसे सभी वर्ग के सभी क्षेत्र के लोग अपना सकते हैं और उपयोग कर सकते हैं, बशर्ते कि उनमें इसे लेकर पर्याप्त जागरूकता हो।‘‘

देश ही नहीं दुनिया में हाथ धुलाई को महत्व देने के लिए प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय हाथ धुलाई दिवस भी मनाया जाता है। हाथ धुलाई दिवस एक ऐसा प्रतीक है, जिसके माध्यम से न केवल पाठशाला, आंगनवाड़ी एवं आश्रम के बच्चों में इसके प्रति जागरूकता लाई जाती है, बल्कि ग्रामीणों में भी इसे लेकर बच्चों की अपील का असर पड़ता है। यूनीसेफ का मानना है कि शाला के बच्चों को यदि इसके बारे में जागरूक कर दिया जाए, तो निश्चय ही बदलाव देखने को मिलेगा। हाथ धुलाई को स्थानीय संस्कृति एवं तौर-तरीकों को देखते हुए बढ़ावा दिया जा जाता है, ताकि लोग इसे अपना सके। अंतर्राष्ट्रीय हाथ धुलाई दिवस इसके लिए एक बेहतर अवसर है, जिस दिन सभी मिलकर इसका प्रचार-प्रसार कर सकते हैं और लोगों को इसके प्रति जागरूक कर सकते हैं। इस कार्य में पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, स्वास्थ्य विभाग, महिला एवं बाल विकास विभाग एवं लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग की बहुत बड़ी भूमिका है। उनके बीच सामंजस्य के साथ यदि इस कार्य को किया जाए, तो निश्चय ही सफलता की संभावना ज्यादा बढ़ जाएगी।

ग्रामीण विकास विभाग स्थानीय स्व-सहायता समूह को सस्ते साबुन बनाने का काम दे सकता है, जिसकी खपत स्थानीय बाजार में हो सकती है। सामान्य तौर पर लोग सादा पानी से, मिट्टी से या फिर राख से हाथ धोते हैं, जबकि ये इतने प्रभावी नहीं होते, इसलिए साबुन से हाथ धोने की आदत लोगों में विकसित करनी होगी, भले ही वे सस्ते एवं स्थानीय साबुन क्यों न उपयोग करें। मध्यप्रदेश के गुना, शिवपुरी, धार सहित कई जिलों में इसे लेकर बड़े पैमाने पर कार्य चल रहा है। भारत स्काउट एंड गाइड भी प्रदेश के 10 जिलों में इस मुद्दे पर सघनता के साथ काम कर रहा है। कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी ज्यादा सक्रिय हैं और वे अपने क्षेत्र में स्वच्छता अभियान में हाथ धुलाई को ज्यादा महत्व दे रही हैं।

धार जिले के धरमपुरी विकासखंड के पलासिया गांव की माध्यमिक शाला का एक सकारात्मक उदाहरण हमारे सामने है। शाला के बच्चे अब साफ हाथों के दम को पहचान चुके हैं। पढ़ाई के साथ-साथ हाथ की सफाई भी उनके लिए महत्वपूर्ण बन गया है। 8वीं की छात्रा आरती का कहना है, ’’पहले हम सब खुले में शौच जाते थे और हाथ धोने के लिए मिट्टी या राख का इस्तेमाल करते थे, पर अब हमारे घरों में शौचालय बना हुआ है। शाला में भी बालक एवं बालिकाओं के लिए अलग-अलग शौचालय बना हुआ है। हम शौच के बाद साबुन से हाथ धोते हैं।‘‘ बच्चों में इस जागरूकता के पीछे वसुधा विकास संस्थान का हाथ है, जिसने शिक्षा विभाग के साथ मिलकर यूनीसेफ के सहयोग से बच्चों को जागरूक करने का काम किया है।

यहां के बच्चों का कहना है कि हाथ की सफाई के महत्व बताने वाला साबुन का विज्ञापन भी टी।व्ही। पर आता है, जिससे उन्हें इसके महत्व का पता चलता है। बच्चे बताते हैं कि हाथ की सफाई से हम बीमार नहीं पड़ेंगे और जब बीमार नहीं पड़ेंगे, तो रोज स्कूल आएंगे और रोज स्कूल आएंगे, तो पढ़ाई में आगे होंगे। निश्चय ही बच्चों की यह सोच गलत नहीं है। डायरिया के शिकार बच्चों का मानसिक एवं शारीरिक विकास अवरूद्ध होता है। साबुन से हाथ धोना, डायरिया को दूर करने का एक कारगर हथियार है। इन बच्चों की आदतों को बदलना तो आसान है, पर गांव के बुजुर्ग अभी भी हाथ धोने के लिए साबुन का नियमित इस्तेमाल नहीं करते। उन्हें यह फिजूलखर्ची लगता है। पर विभिन्न विभागों के समायोजन के साथ शालाओं के बच्चे अपने-अपने क्षेत्र में यह बताने के लिए तैयार हैं कि - साफ हाथों में है कितना दम।

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