पानी के साथ जिम्मेदार और संवेदनशील सलूक का रकबा लगातार घटता जा रहा है। घटाव की यह प्रक्रिया हमारे परिवेश में ही नहीं, हमारे भीतर भी तेजी से चल रही है। इस घटाव में पानी को लेकर सौन्दर्यबोध तो क्या, हमारा पूरा विवेक ही एक उपभोक्तावादी सनक में बदल चुका है।
देश के तमाम हिस्सों में गर्मी बढ़ने के साथ ही राहत की फुहारें भी पड़ने लगीं। गर्मी को कूलर, एसी, फ्रिज, वाटर पार्क आदि जैसे कृत्रिम साधनों से दूर भगाने का कारोबार करने वालों को जरूर यह सुहानी राहत आफत जैसी लगी हो पर आमजन तो मौसम की इस खुसगवारी का भरपूर आनन्द ही उठा रहे हैं, क्योंकि बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है।
वर्षा और बाजार का खेल नया भले हो पर संस्कृति और समाज के साथ उसका साझा पुराना है। इस लिहाज से विचार करें तो समय और समाज के बीच पानी और मनमानी का एक नया आवेगी सिलसिला आकार ले रहा है। इस सिलसिले को संजीदगी से समझने और पढ़ने की दरकार है।
वर्षा और बाजार का खेल भले नया हो पर संस्कृति और समाज के साथ उसका साझा पुराना है। इस लिहाज से विचार करें तो समय और समाज के बीच पानी और मनमानी का एक नया आवेगी सिलसिला आकार ले रहा है। इस सिलसिले को संजीदगी से समझने और पढ़ने की दरकार है। इस दरकार को खारिज करना वर्तमान और भविष्य के एक बड़े खतरे से बेपरवाह होने जैसा है।
बहरहाल, केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि दिल्ली में उमस भरी गर्मी के बीच बरसात की खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिये पर्याप्त स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही।
पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आँखें धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है।
दिल्ली, मुम्बई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो लखनऊ, सूरत, इन्दौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौन्दर्यबोध पारम्परिक है। पर यह बोध लगातार सौन्दर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है।
कई अखबारी फोटोग्राफरों के पास तो अपने खींचे या यहाँ-वहाँ से जुगाड़े गए ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रेरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नए मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसेज के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं। यानी सुन्दरता की आर्द्रता तभी आँखों को भाएगी जब दृश्य मांसल उत्तेजना से पूरी तरह तर-बतर होगा।
पानी को लेकर हिंसक मनमानी के दौर में आर्द्रता की यह दरकार एक और तरह की हिंसा की तरफ इशारा करती है। यह नई तरह की पानीदार हिंसा हमारी आँखों से शुरू होकर दिलो-दिमाग तक पहुँच रही है। यह हमारी सोच को क्रूर नाखूनों में बदल रही है और यह सब बहुत तेजी से घटित हो रहा है।
बात करें फिल्मों की तो नायिकाओं के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भीगना-नहाना ताल-तलैया, गाँव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे। अब इसे रोमांस या सेंसुआलिटी से आगे सीधे सेक्सुआलिटी का औजार मान लिया गया है।
एक ऐसा औजार जो हमारे विवेक को, हमारी चेतना को तेजी से सनसना जाता है। सिमोन द बउआर के शब्दों में कहें तो स्त्री-पुरुष का फर्क यहीं सेक्स से जेंडर में भी बदल जाता है। यह भी कि एक ऐसे दौर में जहाँ पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएँ दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है।
बहरहाल, पानी के इस सनसनाते अहसास ने सांस्कृतिक रूप से हमें किस कदर तंगहाल किया है, इसके लिये एक मिसाल काफी है। मिर्जापुर की एक बहुत मशहूर कजरी है- ‘बदरिया घिर आई ननदी...।’ पारम्परिक तौर पर चले आ रहे सावनी गीत-संगीत का शायद ही कोई कार्यक्रम हो, जो बिना इस गीत के माधुर्य के पूरा होता हो। पर शोभा गुर्टू और गिरिजा देवी से लेकर मालिनी अवस्थी तक को मशहूर करने वाली इस कजरी को अब अपने नए कद्रदानों की तलाश है।
अलबत्ता ‘आज ब्लू है पानी… पानी...’ की धुन पर थिरकने और लड़खड़ाने वाली पीढ़ी से इस बारे में कोई उम्मीद करना बेमानी है क्योंकि सावनी संवेदना का मतलब जब हनी सिंह जैसे रैपर समझाने लगें तो मस्ती का एक ही अभिप्राय शेष रह जाता है- चार बोतल बोदका, काम मेरा रोज का। वैसे भी संस्कृति जब हमारी जड़ों के साथ अपना रिश्ता एक बार तोड़ लेती है तो वह एक साथ कई प्रक्षेपित खतरों को लेकर आती है।
ऐसे में साफ है कि बरसात और समाज के बीच के बदले ताने-बाने को नए सिरे से समझना तो जरूरी है ही, नए सरोकारों और प्रचलनों पर भी गौर करना होगा। वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटते थे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परम्परा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है। बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहाँ का नहीं, पूरी दुनिया का है।
पूरी दुनिया में किसी भी पारम्परिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कास्ट्यूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लम्बाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिंग पूल और फाउंटेन की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं। इस लालच के सामने अगर आप देश की उस तस्वीर को रखकर देखें कि पानी के बिना किसान खुदकुशी कर रहे हैं और गुजरात, महाराष्ट्र से लेकर राजस्थान तक में पेयजल के लिये महिलाएँ सिर पर गगरी लिये पाँच-छह किलोमीटर तक की यात्रा कर रही हैं तो स्थिति की भयावहता ज्यादा समझ में आएगी।
आज एक तरफ पर्यावरण की चिन्ता करने वालों की तरफ से यह आशंका जताई जा रही है कि अगला विश्वयुद्ध किसी औपनिवेशिक विस्तार की हवस के कारण नहीं बल्कि पानी और उसे लेकर हो रही मनमानी को लेकर होगा, तो वहीं दूसरी तरफ पानी के साथ जिम्मेदार और संवेदनशील सलूक का रकबा लगातार घटता जा रहा है।
घटाव की यह प्रक्रिया हमारे परिवेश में ही नहीं, हमारे भीतर भी तेजी से चल रही है। इस घटाव में पानी को लेकर सौन्दर्यबोध तो क्या, हमारा पूरा विवेक ही एक उपभोक्तावादी सनक में बदल चुका है। एक ऐसी सनक जो पानी तो हमसे छीन ही रहा है, सौन्दर्य और महिला अस्मिता जैसे संवेदनशील सांस्कृतिक सवालों को भी एक नए हाहाकार में बदल दे रहा है।
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